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लखनऊ। प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने राज्यपाल को लिखे पत्र में अनुरोध किया है कि वे उत्तर प्रदेश की सरकार के स्थानीय निकाय चुनाव कानून में संशोधन के फैसले को अपनी मंजूरी न दें क्योंकि यह सरकार निकायों को ऐसे तत्वों के हाथों में देने की योजना बना रही है जिनकी जनता के प्रति कोई भी जवाबदेही नहीं होगी। उन्होंने खेद व्यक्त किया है कि मायावती सरकार लोकतांत्रिक व्यवस्था को खत्म कर रही हैं जैसाकि उन्होंने हाल ही में हुए पंचायत चुनावों में किया है।
पत्र में उन्होंने लिखा है कि देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के अथक प्रयासों के परिणाम स्वरूप वर्ष 1992 में सरकार ने लोकसभा में 73वां, 74वां संविधान संशोधन पारित किया था, जिसके अंतर्गत ग्रामीण, नगर और स्थानीय निकायों में निर्वाचन को संवैधानिक अनिवार्यता प्रदान की गयी। यह संशोधन, पंचायत स्तर पर व्यापक विचार-विमर्श के उपरांत किया गया। इसमें स्पष्ट मंशा एवं उद्देश्य है कि सत्ता का विकेंद्रीकरण हो, स्थानीय निकाय ही स्थानीय सरकार के रूप में कार्य करे, जिसमें जनप्रतिनिधियों एवं जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी हो। संशोधन के अनुरूप प्रत्येक राज्य ने अपने-अपने नगर निगम और नगरपालिका अधिनियमों में आवश्यक संशोधन किए। उत्तर प्रदेश विधानसभा में यह संशोधन 30अप्रैल 1994 में किया गया। संशोधन की मंशा को ध्यान में रखते हुए नगरपालिका और नगर निगम अधिनियमों में इस प्रकार संशोधन किया गया था कि उसके स्वरूप को पारदर्शी एवं जनता की भागीदारी के आधार को बढ़ाते हुए जवाबदेह बनाने का प्रयास किया गया।
रीताबहुगुणा जोशी ने आगे लिखा है कि महापौर और चेयरमैन का चुनाव, नगर निगम और नगर पालिका अधिनियमों में नगर पंचायत और नगर निगम के चेयरमैन एवं महापौर का चुनाव सीधे जनता से कराने का प्रावधान किया है। यह गंभीर विचार-विमर्श के उपरांत और इन सस्थाओं के पूर्व अनुभवों पर आधारित है। संविधान में संशोधन के उपरांत निर्वाचन की प्रक्रिया के निर्धारण का अधिकार प्रदेश सरकारों को है। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने सीधे और दलीय आधार पर ये चुनाव करने का विकल्प चुन लिया। विकल्प के बाद चार सरकारों ने यूपी में सफलतापूर्वक चुनाव कराए हैं इसलिए अब पुनः विकल्प बदलना, जनभावना और कानून के खिलाफ है।
वर्ष 1995 के पूर्व स्थानीय निकायों के प्रमुखों का चुनाव पार्षद किया करते थे जिससे धनाड्य व्यक्ति धनबल के सहारे उन पदों पर आसीन हुए। उन्होंने जनभावनाओं से सरोकार न रखते हुए केवल अपने आर्थिक पक्ष को मजबूत करने के लिए अपने पद का दुरूपयोग किया। इन विसंगतियों को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने वर्ष 1994 में स्थानीय निकाय प्रमुखों के चुनाव सीधे कराने का निर्णय लिया। इस तरह से उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव के तीन चक्र पूर्ण हो चुके हैं और अधिकांश चेयरमैन और महापौर के कार्यकाल आरोप रहित रहे हैं। लीडरशिप सामने आई है और उन्होंने मध्यम और आम जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व किया है।
पत्र में लिखा गया है कि प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती प्रचलित चुनाव प्रणाली में जिस प्रकार का परिवर्तन/संशोधन करने की पहल कर रही हैं उससे वह न केवल स्थानीय निकाय को कमजोर करेंगी वरन धन-बल के दुरूपयोग का रास्ता खोल देंगी। चेयरमैन और महापौर यदि पार्षद चुनेंगे तो खरीद-फरोख्त शुरू हो जाएगी और धन, बल के आधार पर ही बहुत से अवांछनीय तत्व इन महत्वपूर्ण पदों को प्राप्त करने में सफल हो जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि इन व्यक्तियों की जनता के प्रति जवाबदेही समाप्त हो जायेगी। आश्चर्यजनक यह भी है कि महापौर और चेयरमैन का चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति को सदन का सदस्य होने की आवश्यकता भी नहीं है। विचार करने का विषय है कि जो व्यक्ति एक वार्ड का चुनाव जीतने योग्य न हो, वह संस्था का मुखिया हो जायेगा। यदि ऐसा हुआ तो यह 74वें संशोधन की मंशा के पूर्णतया विपरीत होगा।
केंद्र सरकार हजारों करोड़ रूपये, शहरी नवीनीकरण योजना के अंतर्गत राज्य सरकारों को देती है। इस धन को निर्वाचित नगर निकाय के सदन की योजनाओं के आधार पर नियमानुसार खर्च किया जा रहा है। इस कार्य में सदन के महापौर और चेयरमैन उत्तरदायी होते हैं एवं उनकी भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती है। यदि यह चुनाव अप्रत्यक्ष आधार पर किया गया तो फिर इसमें घोटालों की विशेष आशंका होगी, क्योंकि संस्था का अध्यक्ष जनता के प्रति सीधे उत्तरदायी नहीं होगा।
पत्र में उल्लेख किया गया है कि प्रस्तावित संशोधन में संभवतः नामित सदस्यों को मतदान का अधिकार दिया जा रहा है जो असंवैधानिक है क्योंकि भारत के संविधान के 243आर (आईवी) में यह स्पष्ट रूप से निर्देशित है कि ऐसे सदस्यों को मतदान का अधिकार नहीं होगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने नामित सदस्यों के मतदान करने पर रोक लगा रखी है इसलिए प्रदेश सरकार इसके विपरीत संशोधन कर अपने राज्य में नामित सदस्यों को मतदान का अधिकार नहीं दे सकती, क्योंकि ऐसा करना असंवैधानिक है। स्पष्ट है कि यह व्यवस्था शासित दल के नामित सदस्यों के सहयोग से सभी निकायों पर कब्जा करने की मंशा से की जा रही है। उदाहरण के तौर पर हाल ही में कराये गये पंचायतराज चुनाव में शासित दल ने धन, बल का प्रयोग कर अधिकांश जिला पंचायतों और क्षेत्र पंचायतों पर कब्जा किया है। यदि प्रस्तावित संशोधन लागू हो जाते हैं तो महात्मा गांधी की पंचायतीराज विचारधारा, राजीव गांधी के स्थानीय निकाय को स्वायत्तशासी बनाने की मंशा और 74वें संविधान संशोधन का गला घुट जायेगा।
जब से नगर पालिका और नगर निगम अधिनियम बने हैं उसमें अविश्वास प्रस्ताव का प्रावधान रखा गया है। अब संज्ञान में आया है कि इस धारा को भी प्रदेश सरकार खत्म करने जा रही है। जिस नियम को और सख्त करने की आवश्यकता थी उसे पूर्णतया समाप्त करने की मंशा समझी जा सकती है। वर्तमान सरकार का कार्यकाल लगभग एक वर्ष से भी कम बचा है। ऐसी सरकार जिसका कार्यकाल समाप्त होने जा रहा हो, उसके द्वारा अपने पक्ष में चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की नीयत से पुनः नये संशोधन करना बिल्कुल अनुचित है। इसलिए इस विधेयक को वे अपनी स्वीकृति न दें ताकि 73वें, 74वें संविधान संशोधन के अनुरूप जनता का पक्ष दुर्बल न पड़े और स्थानीय निकाय आम आदमी की भावनाओं का प्रतिबिंब हों, उनके प्रति उत्तरदायी हों। ऐसा न हो कि यह व्यवस्था अवांछनीय तत्वों की कठपुतली बनकर रह जाए।