डीपी मिश्रा
लखीमपुर-खीरी। देश के जाने-माने राष्ट्रीय उद्यानों में एक दुधवा नेशनल पार्क से आज जैसे रोने की आवाज आती है। यह पार्क वन्य प्राणियों और समृद्धशाली वनसम्पदा से आच्छादित था। मीलो लंबी हरियाली और हरे-भरे मैदानों में फलते-फूलते वन्यप्राणी साम्राज्य की हलचल से गुलजार, बारहों-मास वसंत ऋतु की दूर तक फैली महक से आस-पास के इलाकों में मदमस्ती का एहसास कभी किसी स्वर्ग लहरी से कम नही था। लेकिन आज दुधवा में मरघट का सा सन्नाटा दिखाई देता है। सायरन और मानव की भीड़ के दुस्साहस से डरे सहमें वन्यप्राणी न जाने किस लोक में जा रहे हैं। घने वनों से आच्छादित कई इलाके आज खाली दिखाई दे रहे हैं। वन और वन्यप्राणी प्रबंधन के सारे प्रयोग तार-तार हो रहे हैं। आखिर इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? कई सवाल दुधवा के पार्क में दाखिल होते ही पीछा करने लगते हैं जिनमें एक यह है कि क्या हमें यहां बाघ के दर्शन हो पाएंगे कि नहीं। कुछ ही किस्मत वाले हैं जो यहां बाघ देख पाते हैं। सचमुच यह वैभवशाली दुधवा आज अनाथ सा है।
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना दो फरवरी सन् 1977 में वन प्रबन्धन, वन्यजीवों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिये की गई थी। इसके लिये बनाए गए नियम और कानून आज अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। सन् 2000-01 से लागू किये गये दस वर्षीय मैनेजमेंट प्लान के अनुसार आशातीत परिणाम नहीं निकल पाये हैं। वन्यजीवों की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। तमाम वन्यजीवों के साथ ही दुधवा के राजा बाघ के दर्शन अब दुर्लभ ही होते जा रहे हैं। इससे लग रहा है कि वन्यजीवों और बाघों से समृद्धशाली दुधवा का लगभग एक दशक पूर्व वाला स्वर्णकाल भविष्य में लोगों के लिये केवल याद बनकर रह जायेगा। दुधवा नेशनल पार्क के समीपवर्ती गांवों के नागरिक जो वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण और सुरक्षा में आगे रहकर सहभागिता करते थे वही अब पार्क के नियम-कानून और वहां की पाबंदियों के दुश्मन बन गए हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया है कि नागरिकों के हितों को अनदेखी किए बगैर वनजीवन और मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए, तभी वन और वन्यजीवन संरक्षित करने के सार्थक, सफल और दूरगामी परिणाम निकल सकते हैं।
सन् 1861 में अंग्रेजी हुकूमत में काष्ठ उत्पादन के लिये खैरीगढ़ परगना क्षेत्र के 303 वर्ग किलोमीटर जंगल को संरक्षित किया गया था। तत्पश्चात सन 1886 में मिस्टर ब्राउन के बनाए गए वैज्ञानिक प्लान के अनुसार यहां वन प्रबंधन की शुरूआत हुई। सन् 1905 में यहां वन विभाग का नियंत्रण हो जाने के बाद, विलुप्त प्रजाति बारहसिंघा के संरक्षण के लिये 15.7 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र को सोनारीपुर सेंक्चुरी के नाम से संरक्षित किया गया। कालांतर में वन्यजीवों के संरक्षण को ध्यान में रखकर सरकार ने इस क्षेत्रफल को बढ़ाकर 212 वर्ग किमी क्षेत्रफल को दुधवा सेंक्चुरी के रूप में संरक्षित कर दिया। सन् 1977 में 2 फरवरी को सरकार ने वन, वन्यजीवों के साथ ही जैव-विविधता को संरक्षण देने के लिये दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर दी और 634 वर्ग किलोमीटर दुधवा के वन क्षेत्रफल में किशनपुर वन्यजीव बिहार का 204 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र शामिल करके 1987 में दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना की गई। सन् 1994 में 66 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वनक्षेत्र दक्षिणी बफर के रूप में जोड़ दिए जाने के बाद कुल 884 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्रफल दुधवा टाइगर रिजर्व के तहत संरक्षित हो गया है।
गौरतलब है कि वन और वन्यजीवों को संरक्षण और सुरक्षा देने के उद्देश्य से वनपक्षी एवं पशु संरक्षण अधिनियम 1912, भारतीय वन अधिनियम 1927 के बाद वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम 1972 बनाया गया। इनके लगभग बेअसर रहने पर सन् 1991 एवं 2000 और इससे पूर्व भी अधिनियम में किये गये तमाम महत्वपूर्ण संशोधनों के बाद भी उत्तर प्रदेश में वनमाफिया एवं वन्यजीवों तस्करों और शिकारियों की कारगुजारियां बेखौफ जारी हैं। इसके अतिरिक्त वन्यजीवों और वन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये राष्ट्रीय उद्यान के भी नियम कानून बने हुए हैं, जो बदलते परिवेश में अब बेमानी हो गए हैं और दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की प्रगति के दुश्मन बन गए हैं। राष्ट्रीय उद्यान के कानून एवं नियमों में वन्यजीवों का जीवनचक्र प्रभावित न हो इसलिए उनके वासस्थल क्षेत्र में मानव प्रवेश निषिद्ध करके उनको प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध कराने की परिकल्पना की गई है, साथ ही जैव विविधता को संरक्षण देने के उद्देश्य से जंगल में जो जैसा है वैसा ही रहेगा, उसमें परिवर्तन न किए जाने का कानून भी बनाया जा चुका है। किताब में तो यह कानून अच्छा है, लेकिन यथार्थ के आइने में यह नियम-कानून इन्हें लागू करने वालों की माफिया-सरगनाओं और हत्यारों से साठ-गांठ के कारण बेअसर हो रहे हैं।
दुधवा क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ विषम हैं। आस-पास के ग्रामीण राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व जंगल से वन उपज का लाभ लेते रहे जिस पर अब पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके कारण वन और वन्यजीवों के संरक्षण में संवेदनशील और भावात्मक रूप से जुड़े ग्रामीणों का स्वभाव अब इनके प्रति क्रूर हो गया है और वन उपज की जबरदस्त चोरी को बढ़ावा भी मिला है। यहां एक विचारणीय बात यह भी है कि वन्यजीवों के शिकार हुए पालतू मवेशियों का मुआवजा जो सरकार ने निर्धारित किया हुआ है, वह बहुत ही कम है। जैसे बैल का मुआवजा 2300 रुपए, भैंसे 2500 रुपए और गाय-घोड़े का 1200-1200 रुपए रखा गया है। मवेशियों की बाज़ार में कीमत क्या है यह कानून बनाने वालों और मुआवजे की रकम निर्धारित करने वालों को अच्छी तरह से पता है। फसल की क्षतिपूर्ति भी लगभग नाममात्र निर्धारित है। दुधवा में सफलता पूर्वक चल रही गैण्डा पुर्नवासन परियोजना के तहत विचरण करने वाले 30 सदस्यीय गैण्डा परिवार के सदस्य अक्सर जंगल के बाहर आकर कृषि फसलों को भारी क्षति पहुचाते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि लगभग 24 साल इस परियोजना को हो जाने के बाद भी प्रदेश सरकार ने गैण्डा से होने वाली फसल क्षति के मुआवजे का निर्धारण अभी तक नही किया है। वन्यप्राणियों से होने वाली जानमाल की क्षति की वाजिब भरपाई न होने से ग्रामीण आज वन्यजीवों को संरक्षक नही बल्कि दुश्मन की निगाह से देखते हैं।
दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना हो जाने के बाद सन् 1983 से 1993 तक वन विशेषज्ञ विश्व भूषण गौड़ की बनायी वन प्रबंधन कार्य योजना पर यहां कार्य किया गया। इसमें वन एवं वन्यजीव संरक्षण जैव विविधता की सुरक्षा के साथ ही काष्ठ उत्पादन को भी प्रमुखता दी गई थी। तत्पश्चात सन् 1993-94 से 2000-01 तक डा आरएल सिंह की वार्षिक कार्य योजना के तहत वन प्रंबधन किया गया। यहां के तत्कालीन फील्ड निदेशक रूपक डे जोकि अब राज्य के प्रमुख वन संरक्षक हैं की तैयार की गई कार्ययोजना पर वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रबंधन किया जा रहा है। इस पर सन् 2010 तक कार्य चलेगा। इस प्लान में वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन, वन्यजीवों की प्रगति आधारित अनुश्रवण, आद्र क्षेत्रों का विकास, फायर कंट्रोल एवं प्राकृतवास पर प्रतिकूल कारकों को चिन्हित कर उनके नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है। दस साल का समय व्यतीत हो रहा है लेकिन इस कार्य योजना के भी अनुकूल परिणाम नही निकले हैं। अलबत्ता अति संरक्षण के चलते मानव एवं वन्यजीवों के बीच की खाई चौड़ी ही होती जा रही है और इससे जंगल में वन्यजीवों की संख्या में भी गिरावट दर्ज हो रही है। वन विभाग लगातार कागजों में वन्यजीवों की संख्या को बढ़ाकर प्रदर्शित करता आ रहा है। वन एवं वन्यजीवों के संरक्षण और सुरक्षा के लिये विश्व प्रकृति निधि-भारत की नई कार्ययोजना का प्रारूप तैयार किया जा रहा है। इस कार्ययोजना को तैयार करने वालों ने अगर वन्यजीवों के साथ में मानव के हितो को भी ध्यान में रखकर कार्ययोजना तैयार नही की तो शायद इसका हश्र भी पूर्ववर्ती कार्ययोजनाओं की तरह ही होगा। इस बात से इंकार नही किया जा सकता है।
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान को स्थापित हुए 33 साल व्यतीत हो गए हैं। इसके लाभ-हानि का यदि आंकलन मोटे तौर पर किया जाए तो बचे-खुचे वन तथा वन्यजीवों की सुरक्षा और संरक्षण की दृष्टि से आवश्यकता के अनुरूप किया जा रहा वन प्रबंधन समय की मांग है और इसमें सभी को सहयोग भी देना चाहिए। लेकिन संरक्षण की अधिकता में मानवहित को नजरंदाज किया जा रहा है जिससे इसके आशातीत परिणाम नहीं निकल रहे हैं। वन विभाग और आमजनता के बीच बढ़ी दूरियां वन प्रबंधन के लिये हितकर नहीं कही जा सकती हैं। इसका प्रत्यक्ष परिणाम है कि पिछले पांच साल में वन्यजीवों की संख्या में भारी गिरावट आई है। पार्क स्थापना से पूर्व जब जंगल में मानव प्रवेश निषेद्ध नहीं था, तब घास-फूस, जलौनी लकड़ी आदि वन उपज का लाभ ग्रामीणों को दिया जाता था, अब इसे ग्रासलैण्ड मैनेजमेंट के तहत जलाया जाता है। इससे जमीन पर रेंगने वाले जीव-जंतु जलकर मर जाते हैं और कीमती लकड़ी जिसे बेचकर राजस्व प्राप्त किया जा सकता है वह भी कोयला बन जाती है।
वन विभाग संरक्षित वन क्षेत्र को पूर्णतया निषिद्ध बनाने के प्रयास में लगा हुआ है। इससे भविष्य में और ज्यादा प्रतिकूल प्राकृतिक परिस्थितियां उत्पन्न हो जाएंगी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि संरक्षण के जो सुपरिणाम अब तक नही निकल पाए हैं इससे सार्थक दूरगामी परिणाम क्या निकल पाएंगे? बढ़ती जनसंख्या, बदलते परिवेश और विषम परिस्थितियों में यह आवश्यक हो गया है कि अब वन, वन्यजीवों और मानव के संबंधों को नई परिभाषा दी जाए जिससे मानव का भावात्मक लगाव वन्यजीवों के प्रति पैदा हो सके। हर किसी का कहना है कि इन तथ्यों को नजर अंदाज करके उठाए गए कोई भी कदम कदापि फलदायक नहीं होगें। इसमें यह प्रश्न भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि मुआवजा राशि का बाज़ार के अनुसार निर्धारण किया जाए और पेशेवर तस्करों एवं वन्य प्राणियों के हत्यारों को नीचे से ऊपर तक मिल रही शरण पर सख्ती से लगाम लगाई जाए। यह तब और भी संभव हो सकेगा जब इच्छाशक्ति और नैतिक बल ऊंचा होगा।