हृदयनारायण दीक्षित
...तो विदेशी विश्वविद्यालय भारत आ रहे हैं और वह यहां अपनी शाखाएं खोलेंगे। केंद्र ने उनके स्वागत के लिए बाकायदा एक कानून का मसौदा बनाया है और भारत में पहले से यूरोपीय माडल की शिक्षा व्यवस्था है ही। यहां राजनीति विज्ञान को यूनान के पोलिस-नगर राज्यों से जन्मा पढ़ाया जाता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र ईसवी सन् की शुरूआत के बहुत पहले का है लेकिन विदेशी तर्ज पर यहां अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ बताए जाते हैं। सारी दुनिया के भाषा विज्ञानी संस्कृत को प्राचीनतम समृद्ध भाषा बताते हैं लेकिन यूरोपीय विद्वान एक काल्पनिक इन्डो यूरोपीय भाषा को संस्कृत की जननी पढ़ाते हैं। अंग्रेज विद्वान भारत को प्राचीन राष्ट्र नहीं मानते, वे इस राष्ट्र गठन का श्रेय अंग्रेजी सत्ता को देते हैं। यूरोपीय दृष्टिकोण वाली शिक्षा पद्धति भारत को आत्महीन बनाती है।
महात्मा गांधी ने 100 बरस पहले (1909 ई) हिन्द स्वराज (पृष्ठ 88-89) में लिखा 'अब ऊंची शिक्षा को लें। मैंने भूगोल, खगोल सीखा, बीज गणित, रेखागणित का ज्ञान भी हासिल किया, भूगर्भ विद्या को मैं पी गया। लेकिन इससे क्या? उससे मैंने अपना, अपने आस-पास के लोगों का क्या भला किया? उससे क्या फायदा हुआ? इस उच्च शिक्षा से हम मनुष्य नहीं बनते। हम अपना कर्तव्य नहीं जान सकते।' गांधीजी मैकाले ब्रांड यूरोपीय शिक्षा के विरोधी थे और सच्चा मनुष्य बनाने वाली भारतीय शिक्षा पद्धति के आग्रही। बावजूद इसके कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने की अनुमति देने वाले 'विदेशी शैक्षिक संस्था' (प्रवेश नियमन, संचालन) विधेयक-2010 को मंजूरी दे दी है।
विधेयक के मुताबिक विदेशी विश्वविद्यालय को भारतीय विश्व विद्यालय अनुदान आयोग में पंजीयन कराना होगा। पांच सौ करोड़ रूपये की प्रतिभूत जमा करनी होगी। वे मनचाही फीस वसूल करेंगे लेकिन मुनाफा राशि का विनियोग भारत में ही करेंगे। मुनाफा राशि को विदेश न ले जाने के प्राविधान का स्वागत हुआ है लेकिन इसके अंतर्निहित खतरे भी हैं। वे भारत में अपना शिक्षा व्यापार और फैलाएंगे। भारत की शिक्षा सभ्यता और संस्कृति को और भी ज्यादा प्रभावित करेंगे। लेकिन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने इसे अभूतपूर्व क्रांति बताया है। विदेशी शिक्षा को �वर्ल्ड क्लास-विश्वस्तरीय� कहा जा रहा है, सो विधेयक को लेकर खासी बहस चल निकली है।
विश्व के किसी भी राष्ट्र में स्वराष्ट्र के प्रति ऐसा हीन भाव नहीं देखा गया है। भारत में सारा कुछ विदेशी �वर्ल्ड क्लास� है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है। लेकिन स्वदेशी शिक्षा, स्वराष्ट्रीय ज्ञान अनुशासन दो कौड़ी का है। अमेरिका में भारतीय ज्ञान विज्ञान की प्रशंसा है। बराक ओबामा ने अमेरिकी युवकों को भारतीय युवकों की योग्यता के उदाहरण देकर सावधान किया था। भारत के अनेक प्रोफेसर विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। भारत के ज्ञान विज्ञान ने विलियम जोन्स, मैक्समूलर, एडलर युंग, एचएस मेन, कार्ल मार्क्स, ब्लूम फील्ड, शापेन हावर जैसे अनेक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के चिन्तकों को भौचक किया था। लेकिन अचरज है कि वे केंद्र विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी दुकानें खोलने का कानून बनाने जा रहा हैं। प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि भारत के विश्वविद्यालय, उच्च शिक्षण संस्थान आईआईएम, आईआईटी आदि वर्ल्ड क्लास क्यों नहीं हैं? कांग्रेस की सरकारों ने 45-46 बरस की सत्ता में अंतरराष्ट्रीय मानकों वाली उच्च शिक्षण संस्थाएं क्यों नहीं चलाईं? यूपीए दोबारा सत्ता में हैं। आप उच्च शिक्षा आवश्यकताओं की जिम्मेदारी से पल्ला क्यों झाड़ रहे हैं?
आत्महीनता राष्ट्र निर्माण की शत्रु है। अंग्रेजी राज ने आत्महीनता की ग्रन्थि पैदा की। लंदन से पढ़कर लौटे सभी लोग महान हो गये और भारत में पढ़े सभी विद्वान् देशी गंवार। बुनियादी सवाल यह है कि आक्सफोर्ड या हारवर्ड की शिक्षा ही क्यों विश्वस्तरीय-वर्ल्ड क्लास है? जेएनयू, बीएचयू या आईआईएम की शिक्षा भी विश्वस्तरीय क्यों नहीं है? अमेरिका के राजप्रमुख ओबामा ही अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व क्यों है? प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी अंतरराष्ट्रीय क्यों नहीं है? आखिरकार क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या विश्वस्तरीय होने के मानक क्या हैं? इंग्लैण्ड छोड़ यूरोप के किसी भी देश की राजभाषा अंग्रेजी नहीं है। जर्मनी, फ्रांस, स्पेन सहित किसी भी यूरोपीय देश में अंग्रेजी की महत्ता नहीं है। लेकिन भारत में यही अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है? भारत में लम्बे समय तक अंग्रेजी राज रहा। तब यूरोपीय शिक्षा का दबदबा था। भारत अब संप्रभु राष्ट्र है। भारत अपनी शिक्षा पद्धति, राष्ट्रभाषा और अपने विज्ञान दर्शन को विश्वस्तरीय सिद्ध करने का दावा क्यों नहीं ठोंकता? भारत का विज्ञान और दर्शन वैदिककाल से ही विश्वस्तरीय है। एडलर युंग, मैक्समूलर एचएच मेन ने भारतीय तत्वज्ञान को अंतर्राष्ट्रीय बनाता था। कृतज्ञता भी व्यक्त की थी। गोपाल कृष्ण गोखले, तिलक, गांधी और विपिन चंद्र पाल ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और सभ्यता संस्कृति को कभी भी विश्वस्तरीय या वर्ल्ड क्लास नहीं माना। लेकिन वर्तमान सत्ताधीश हरेक विदेशी वस्तु को ही वर्ल्ड क्लास सिद्ध करने पर आमादा है। आत्महीनता की ग्रंन्थि ही राष्ट्रीय अपमान करा रही है।
अंग्रेजों ने भारत को असभ्य देश पढ़ाया। अंग्रेजी-राज ने भारत को अंग्रेजनिष्ठ प्रजा बनाए रखने के तमाम षड़यंत्र किये। उन्होंने इसीलिए पंथनिरपेक्ष प्राचीन शिक्षा का ढांचा तहस नहस किया था। अंग्रेजी राज के पहले यहां लाखों स्कूल थे, उच्च शिक्षा के केंद्र भी थे। सरथामस मुनरो ने 1822 में शिक्षा पर सर्वेक्षण करवाया था। मद्रास प्रेसीडेन्सी के 21 जिलों में 1094 उच्च शिक्षा संस्थान थे। ईसाई मिशनरी एडम की रिपोर्ट (1893) के अनुसार बंगाल और बिहार में प्रतिगांव में स्कूल थे। बंगाल के प्रत्येक जिले में उच्च शिक्षा संस्थाएं थी। मुम्बई और पंजाब में भी थीं। लेकिन यूरोप की शिक्षा व्यवस्था मध्यकाल तक चर्च के नियंत्रण में थी। भारत की शिक्षा का उद्देश्य मुक्त-समाज था- सा विद्या या विमुक्तये। इंग्लैंड में पहली बार सन् 1832 में राजकोष से 2000 डालर शिक्षा के लिए दिये गये। फ्रांस ने राज्य क्रान्ति 1788 ई के बाद यही काम किया। इसके बहुत पहले फायहान (5वीं सदी) के यात्रा विवरणों में भारतीय शिक्षा तंत्र की प्रशंसा है। नालंदा विश्वविद्यालय वर्ल्ड क्लास था। चीनी यात्री ह्वेनसांग व ईत्सिंग ने इसका विवरण लिखा। राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की। भोज ने धार में भोजशाला की स्थापना की। अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य तक्षशिला में प्रोफेसर थे। भारत का पहला अखिल भारतीय राष्ट्र-राज्य बनाने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य और विश्व के प्रथम व्याकरणाचार्य पाणिनि इसी विश्वविद्यालय के छात्र थे। इसके भी पहले उत्तरवैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था और भी वर्ल्ड क्लास थी। तैत्तिरीय उपनिषद् में एक पूरा खण्ड शिक्षा पर है। यहां उच्च शिक्षाविदों की प्रशंसा है, 'वे स्वराज्य पाते हैं, विज्ञानपति हो जाते हैं।' भारतीय शिक्षा संसार ज्ञान देती थी, आत्म ज्ञान देती थी, राष्ट्र भाव जगाती थी। स्वराज्य दिलाती थी।
अंग्रेजियत के प्रसार के कारण भारत में विदेशी के प्रति सम्मान है, स्वदेशी के प्रति हीनभाव है। सम्प्रति अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सबसे ज्यादा विदेशी छात्र भारत के ही हैं। यूरोप के देशों में भी भारतीय छात्रों की बहुतायत है। भारत बड़ा बाजार है। सो जार्जिया टेक्निकल यूनीवर्सिटी ने हैदराबाद में 250 एकड़ जमीन पहले से ही खरीद ली है। याले यूनीवर्सिटी, हारवर्ड विजिनेस स्कूल आदि अनेक संस्थाएं तैयार बैठी हैं। विधेयक में विदेशी संस्थाओं को अनुसूचित जाति/जनजाति/पिछड़ी जाति आरक्षण से मुक्त रखा गया है। सरकार उत्साहित है। विधेयक के समर्थकों का कहना है कि इससे उच्च शिक्षा क्षेत्र में प्रतियोगिता बढ़ेगी। केंद्र ने यहां अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। उच्च शिक्षा ही क्यों प्राइमरी शिक्षा का सरकारी ढांचा भी ध्वस्त है। केंद्र को उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए अतिरिक्त धन प्राविधान करना चाहिए था। जार्जिया यूनीवर्सिटी ने भारत जाकर पढ़ाने वाले अध्यापकों को पहले जैसा वेतनमान देने का पत्र लिख दिया है। कनाडा और अमेरिका में उच्च शिक्षा के अध्यापकों को दिया जा रहा वेतन भारत से लगभग 5 गुना है, यह जर्मनी और यूके में ढाई गुना ज्यादा है। भारतीय अध्यापक स्वाभाविक ही विदेशी शिक्षा संस्थाओं की तरफ आकर्षित होंगे। तब भारतीय शिक्षण का संस्थाओं का क्या होगा? भारत में पहले से ही भारतीय संस्थाओं व विदेशी संस्थाओं के साझे अनेक संस्थाएं हैं। उनका क्या होगा? क्या भारतीय शिक्षा संस्थान बंद हो जाएंगे? और पूरी उच्च शिक्षा विदेशी ही चलाएंगे?
केंद्र की अपनी कोई भारतीय शिक्षा नीति नहीं है। केंद्र शिक्षा को भी बाजारू उपभोक्ता माल समझता है। प्रतिस्पर्धी-बाजार तैयार माल को हरद्वार दरवाजे तक पहुंचा रहा है। विदेशी शिक्षा भी फास्ट फूड की तरह भारत में दस्तक दे रही है। अंग्रेज भारत से बेमन ही विदा हुए थे। वे भारत की भाषा, सभ्यता, संस्कृति बदलने का सपना पाले रहे। अंग्रेजीराज के समय उनका उपकरण सत्ता थी, ईसाई मिशनरियां थीं। अब उनका उपकरण बाजार है, शिक्षा बेचने वाली कंपनियां हैं और पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक ईसाई मिशनरियां हैं। डूब मरने जैसी बात है कि भारतीय राज्य अपने नागरिकों को राष्ट्रीय बजट से उच्चस्तरीय शिक्षा भी नहीं दे सकता। आश्चर्य है कि विश्व की आर्थिक महाशक्ति का दावा ठोंकने वाला भारत उच्च शिक्षा के लिए यूरोपीय/अमेरिकी कम्पनियों के ही सहारे है। भारत के पास उच्च शिक्षा का स्वदेशी ढांचा नहीं है। दोषी केंद्र की सरकार है। भारत के दुर्दिन हैं, राष्ट्रनिर्माण के संवैधानिक जिम्मेदार ही स्वदेशी का अपमान और विदेशी का सम्मान करा रहे हैं। जनगणमन जागे, वरना भारत फिर से गुलाम होगा।