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भारत में प्रदूषण से खेती और नदियों को गंभीर खतरा

पौधे और पर्यावरण प्रदूषण पर चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन

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लखनऊ। पौधे और पर्यावरण प्रदूषण पर चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का बड़ी वैज्ञानिक चिंताओं एवं खोजपूर्ण उपलब्धियों के साथ समापन हुआ। चौथे दिन संगोष्ठी का समापन और विदाई सत्र था। पर्यावरण से संबंधित तीन मुख्य क्षेत्रों पर प्रस्तुतीकरण किए गए-पौधों का वातावरण प्रदूषण के प्रति प्रतिक्रिया, अपशिष्ट और प्रबन्धन और वातावरणीय बदलाव। इस अवसर पर डॉ एसबी अग्रवाल वनस्पति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने ओजोन के भारतीय कृषि पर प्रभाव पर व्याख्यान देते हुए कहा कि पूरे विश्व में कृषि उत्पादकता में कमी के लिए ओजान एक प्राथमिक कारण है। भारत में तीव्र औद्योगीकरण, यातायात के बढ़ते संसाधनों, प्रतिकूल पर्यावरण एवं सामाजिक आर्थिक कारणों से बढ़ते ओजोन की वजह से ओजोन प्रदूषण के गम्भीर खतरे में है। उन्होंने कहा कि प्रमुख कृषि फसल जैसे सोयाबीन, चावल, अलसी, गेहूं की उपज में महत्वपूर्ण कमी देखी गई जब ओजोन का स्तर मात्र 10 पीपीबी से 20 पीपीबी बढ़ गया। पत्ते का नुकसान, पौधों की बढ़त के मानक जैसे तने एवं पत्तों की वृद्धि, जड़ की वृद्धि, स्टोमेटा से संचयन में कमी के अतिरिक्त एंटी आक्सीडेंट में कई गुना वृद्धि भी पाई गई। तनाव प्रेरित प्रोटीन की भी वृद्धि ओजोन तनाव की वजह से कई गुना बढ़ गई।
एक प्रमुख व्याख्यान में डॉ आरडी त्रिपाठी वरिष्ठ वैज्ञानिक एनबीआरआई ने नई धान की किस्मों के विषयों में बताया जिसमें आर्सेनिक का स्तर कम होता है और जो मनुष्य के सेवन के लिए सुरक्षित है। धान का भोज्य प्रयोग विश्व की आधी आबादी करती है और आर्सेनिक युक्त भूमिजल से सिंचाई के कारण स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न हो रही है। उन्होंने बताया कि 91 धान जर्मप्लास्म के अध्ययन से पता चला है कि उनमें से 52 किस्में कम आर्सेनिक स्तर के कारण 60 किलो वजन के व्यक्ति के लिए सुरक्षित है जबकि बाकी मनुष्यों के सेवन के लिए असुरक्षित है। दो विभिन्न आर्सेनिक वाली धान की किस्में जीनोटाइप में से छांटी गयी है। निम्न आर्सेनिक संचयक पर्याप्त सिलेनियम स्तर और उच्च आवश्यक अमीनो एसिड संचयक जीनोटाइप को मध्यम आर्सेनिक प्रदूषित मिट्टी में उगाने और मनुष्य के प्रयोग के लिए उपयुक्त पाया गया है। ये निम्न फलित होने वाली आर्सेनिक किस्में आणविक ब्रीडिंग के माध्यम से उच्च उत्पादकता की सुरक्षित धान किस्में बनाने में सहायक हो सकती हैं।
डॉ यूएन राय वरिष्ठ वैज्ञानिक एनबीआरआई ने मुख्य व्याख्यान में बताया कि बावजूद दावों के कि गंगा का जल बैक्टीरिया नाशक, स्वास्थ्यवर्धक, न सड़ने वाला और शुद्धीकरण की खूबियों से युक्त है, नदी पूरी तरह से प्रदूषित हैं और प्रदूषण का स्तर खतरनाक स्तर तक बढ़ चुका है। सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं के विभिन्न उपायों के अत्यधिक धनराशि खर्च करने, आधारभूत सुविधाओं के बावजूद समय से इच्छित परिणाम नहीं प्राप्त किये जा सके क्योंकि उचित योजना, वैज्ञानिक/तकनीकी आधार का भारी अभाव था। पौधे पर आधारित प्रबन्धन जिसमें वृक्षारोपण और वेटलैन्ड का निर्माण शामिल है, एक कम खर्च की तकनीक है जो जैवछन्नी (बायो फिल्टर) का काम करता है। ये पोषक तत्वों को हटाने और अन्य प्रदूषक जैसे भारी तत्वों को नदी जल से हटाकर नदी का स्तर सुधार सकता है। इसके लिए स्थानीय लोगों की भागीदारी, गैरसरकारी संस्थाओं, एच्छिक संगठन और नदी प्रदूषण से जुड़े व्यक्तियों को समस्या के प्रभावी प्रबन्धन के लिए उत्साहित किया जाना उचित होगा।
विदाई सत्र में पिछले सत्रों में प्रस्तुत विभिन्न मुददों पर चर्चा हुई और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिये गये- पैम्ठ के उद्देश्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण एवं उभरते हुए क्षेत्रों की पहचान करते हुए, प्रमुख वैज्ञानिकों की पहचान करके सहयोग एवं सम्बद्धता स्थापित करना, पर्यावरण शिक्षा पर जोर, जनसंचार माध्यम से स्थानीय स्तर पर वैज्ञानिक सूचनाएं पहुंचाना, आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी तकनीक एवं तरीकों को वनस्पति क्षेत्र में लाना और ग्रामीण क्षेत्रों को इस उन्नति तक पहुंचाना। संगोष्ठी में सर्वश्रेष्ठ पोस्टर को पुरस्कार दिये गये। रिचा दवे, रावअसं को प्रथम, समंथा पितग्रोप बीएचयू की द्वितीय और डॉ अफरोज शमा बाई को तृतीय स्थान के लिए चयनित किया गया।

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