Monday 26 September 2022 03:10:56 PM
के विक्रम राव
उडुपी (कर्नाटक) की एक कन्नड़भाषी 21 वर्षीय युवती साना अहमद है, वह हिजाब पहनना चाहती है। न्यायालय में मुकद्मा लड़ रही है और दूसरी ओर इसी दौरान तीन हजार किलोमीटर दूर इस्लामिक देश ईरान की राजधानी तेहरान में पश्चिमोत्तर पर्वतश्रृंखला की कुर्द नस्ल की युवती महसा आमिनी है, जिसने हिजाब के विरोध में प्राणोत्सर्ग कर दिए हैं। इस्लामी ईरान के कट्टरराज में जेल में पुलिस के हाथों पीटे जाने पर वह मरी। महसा आमिनी अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जीना चाहती थी। उसने ईरान सरकार की तानाशाही की खिलाफत की। उसीकी शहादत का नतीजा हैकि विश्व के सभी राष्ट्र कड़ाई से ईरान का बहिष्कार कर रहे हैं। जिन पर्शियन तरुणियों के चेहरे देखकर चांद भी शर्माता हो, आज वे नरकीय वातावरण में जी रही हैं।
अचरज होता हैकि व्यक्तिगत स्वाधीनता का संघर्षशील देश रहा ईरान आज इस्लामी कट्टरता का शिकार है। उदारवाद से घिन करता है। अपनीही सामाजिक आज़ादी को तजने को तैयार है, बजाए उन तमाम प्रगतिशील महिलाओं के अभियान से जुड़ने के समस्त नारी समाज को जागृत करे, नरनारी की समानता को दृढ़तर बनाए। उधर यह कन्नड़ युवती युगों की पारंपरिक जकड़ में बंधी रहना चाहती है, उस तोते की मानिंद जिसे पिंजड़े से प्यार हो गया है। वह नभचारी पक्षी उन्मुक्त और निर्बाध नहीं होना चाहती। नारी स्वतंत्रता केलिए विश्वकी सबसे महान जंग आज इस्लामी ईरानी गणराज्य में हो रही है। हिंदी की मशहूर लेखिका और लखनऊ की तरक्कीपसंद नाइश हसन का विश्लेषण मर्म को छू जाता है। यदि वह हिंदू होती तो कट्टर इस्लामिस्ट उसे मार्गभ्रष्ट तथा भटकी खातून करार देते। वह धर्मनिष्ठ मुसलमान है। उसने अपने स्तम्भ में स्पष्ट लिखा हैकि ईरानी औरतों के इस विद्रोह की आग तेहरान, साकेज और कुर्दिस्तान की राजधानी सननदाज सहित पूरे देशमें फैल चुकी है। पूरी दुनिया इस विद्रोह को देख रही है और ईरानी महिलाओं को अपना समर्थन भी भेज रही है।
ईरान की सरकार महिलाओं को 60 की उम्र में भी बिना हिजाब सड़क पर आने की इजाजत नहीं देती, उन्हें भी दंडित करती है। मॉरल पुलिसिंग का अधिकार सरकार ने ही दिया है। बढ़ते विरोध को देखते हुए ईरानी सरकार अपनी नैतिक पुलिस की आलोचना नहीं सुनना चाहती। उन्हीं क्रूर सिपाहियों का राज चलाना चाह रही है। ईरान में धर्मगुरू सैयद रूहोल्लाह मुसावी उर्फ अयातुल्लाह खोमैनी के नेतृत्व में 1979 में धर्म के नाम पर एक क्रांति हुई। इस दौरान महिलाओं केलिए दो नारे बहुत जोर-शोर से उछाले गए 'घरो की ओर लौट जाओ' और 'जड़ों की ओर लौट चलो।' ईरान में जड़ों की तरफ लौटने का मतलब जड़ता की तरफ लौटना साबित हुआ। आधुनिकता के खिलाफ परंपरावादी शक्तियां संगठित होने लगीं। संगीत पर पाबंदी लगाई जाने लगी, औरतों पर फर्जी इस्लामी कायदे-कानून लादे जाने लगे, सागर तटों पर स्त्री-पुरुष के स्नान पर रोक लगाई गई। इसी दौरान औरतों को मनुष्य से मवेशी बनाने केलिए कई नियम भी लाए गए। मुताह यानी एक निश्चित रकम के बदले एक निश्चित समय केलिए शादी उनमें से एक है। खौमैनी ने ही मुताह की इजाजत दी, इसे ब्लेसिंग बताया। अवैध संबंधों के शक में 43 साल की ईरानी महिला शेख मोहम्मदी अश्तिआनी को 2010 में उसके नाबालिग बेटे के सामने 99 कोड़े मारे गए।
इसी संदर्भ में इस जुलाई की घटना है। इस्लामी जम्हूरिया की दो तरुणिओं समीना बेग (पाकिस्तान) और अफसानेह हेसामिफर्द (ईरान) ने विश्वमें सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट के बाद काराकोरम पर्वत श्रृंखला पर फतह हासिल करके जुमे (22 जुलाई 2022) की नमाज अता की थी तो हर खातून को नाज हुआ होगा। सिर्फ सरहद पर ही नहीं, ऊंचाई पर भी वे पहुंच गई। यही इन दोनों युवतियों ने बता दियाकि सब मुमकिन है, बस इच्छाशक्ति होनी चाहिए। सुन्नी समीना और शिया अफसानेह आज स्त्रीशौर्य के यश की वाहिनी बन गई हैं। मगर फिर याद आती है मांड्या (कर्नाटक) की छात्रा मुस्कान खान, जिसने पढ़ाई रोक दी थी, क्योंकि उसे कॉलेज के नियमानुसार हिजाब नहीं पहनने दिया गया था। बजाए जीवन की ऊंचाई के मुस्कान खान अदालत (हाईकोर्ट-बंगलूर और उच्चतम-दिल्ली) तक चली गई। मुसलमान उद्वेलित हो गए। क्या होना चाहिए था? शायद ईस्लामी मुल्कों की तरुणियां ज्यादा मुक्त हैं, मगर सेक्युलर भारत में क्यों नहीं हैं? हिंदुस्तान में कौमियत मजहब पर आधारित नहीं है। फिरभी हिजाब पर बवाल क्यों? चिंतक चार्ल्स फ्राइड ने लिखा थाकि 'व्यक्ति स्पंदित रहता है। जोभी भिन्न राय रखता है, भटकता है।' आखिर मौलिक अधिकार व्यक्तिगत होते। धर्म हर नागरिक केलिए अनिवार्य नहीं है, यही नियम लागू होना चाहिए ईरानी तरूणियों पर। (के विक्रम राव देश के जाने-माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वॉलपोस्ट से साभार)।