विनोद कुमार
Tuesday 28 October 2014 04:34:51 AM
रांची। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तेज हवा के बावजूद, झारखंड में चुनावी टक्कर कांटे की रहेगी। नरेंद्र मोदी की उपस्थिति की वजह से यहां राजनीतिक ध्रुवीकरण पूर्व के चुनावों से इस बार ज्यादा तेज और स्पष्ट दिशा में दिख रहा है। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में ऐतिहासिक जीत के कारण यूपीए के घटक दलों के लिए वे चुनौती बनकर उभरे हैं और यह अफरा-तफरी है कि अगर यूपीए ने मिल-जुलकर नरेंद्र मोदी के उभार का मुकाबला नहीं किया तो झारखंड भी पूरी तरह भाजपा के हाथ में चला जाएगा। झारखंड नरेंद्र मोदी के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उदारीकरण की उनकी तमाम नीतियां यहीं परवान चढ़नी हैं। लौह अयस्क और कोयले का भंडार यहीं है, भूमि अधिग्रहण कानून को वे आसान बना रहे हैं, लेकिन झारखंड की सत्ता उनके हाथ में नहीं रही तो बदली हुई नीतियों को यहां उतारना मुश्किल होगा।
आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में तो भाजपा का ही शासन है और ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी राजनीति में भले ही नरेंद्र मोदी के विरोधी हों, किंतु अर्थनीति में नरेंद्र मोदी के करीबी हैं, इसलिए झारखंड की जीत नरेंद्र मोदी के लिए अहमियत रखती है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यहां फूंक-फूंककर हर कदम उठा रहा है। झारखंड में कई बार मिली-जुली सरकार का नेतृत्व कर चुकी भाजपा को हरियाणा से जबरदस्त प्रेरणा मिली है और अब वह झारखंड में भी अपने बलबूते सरकार बनाना चाहती है। भाजपा का फिलहाल इस बात पर जोर नहीं दिख रहा है कि झारखंड का मुख्यमंत्री आदिवासी ही हो, बावजूद इसके वह इस मामले में अपने पत्ते नहीं खोल रही है और ना ही किसी चेहरे की घोषणा कर रही है।
झारखंड में पिछली कई भाजपा सरकारों का नेतृत्व कर चुके अर्जुन मुंडा अब बहुत ज्यादा मुखर नहीं हैं और रघुवर दास एवं यशवंत सिंहा जैसे भाजपा नेताओं को लगता है कि उनके मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद बनी हुई है। एनडीए की एक बड़ी चिंता यह है कि किसी ज़माने में भाजपा के नाक का बाल रहे बाबूलाल मरांडी, जो 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा से निकल गए थे, उनका क्या किया जाए? पिछले चुनाव में बाबूलाल मरांडी का तालमेल कांग्रेस से था और उन्हें ग्यारह सीटें भी मिलीं थीं, किंतु आज बहुत सारे विधायक उनका साथ छोड़ चुके हैं। बाबूलाल मरांडी भाजपा से अलग रहकर भाजपा का नुकसान ही करेंगे और भाजपा नहीं चाहती कि उसके वोटों का इधर-उधर बटवारा हो। भाजपा के कई शीर्ष नेता चाहते हैं कि बाबूलाल मरांडी भाजपा में वापस हो जाएं।
बाबूलाल मरांडी भी मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं और इस पद के प्रबल दावेदार भी हैं। मुख्यमंत्री नहीं बनाने की वजह से ही वे पिछली बार भाजपा से अलग हुए थे, इसलिए भाजपा में वापसी के लिए यह पद उनकी शर्त हो सकती है। यह अलग बात है कि बदले हुए राजनीतिक हालात में वे इस बात के लिए कितना अड़ते हैं। यूपीए में भी स्थिति स्पष्ट तो है, लेकिन सीटों के लिए बड़ी खींचतान है। कांग्रेस नेतृत्व और झारखंड मुक्तिमोर्चा के शीर्ष नेतृत्व में भी कुछ दुविधा की स्थिति है। दोनों की जेब में पैसा जरूर खनखना रहा है और इनके यहां जिसे देखो वही चुनाव लड़ने के लिए बेताब है। कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता जोर-शोर से दावा करते रहते हैं कि कांग्रेस झामुमो के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ेगी, बल्कि अपने बलबूते पर ही चुनाव लड़ेगी, ताकि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का अवसर रहे। झामुमो के नेता भी कम से कम 82 में से 50 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बाबूलाल मरांडी पर दांव खेला था, इसके बावजूद न तो कांग्रेस की सीटें बढ़ीं और न बाबूलाल मरांडी 11 का आकड़ा पार कर पाए, इसलिए कांग्रेस के सामने इसबार झामुमो से तालमेल करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
झारखंड प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखदेव भगत इस मामले पर दिल्ली में सोनिया गांधी से बातचीत करने वाले हैं, जिसमें कोई बीच का रास्ता निकला जाएगा। झारखंड में जहां तक वामदल हैं, उनकी स्थिति राज्य में निरंतर कमजोर ही हुई है। यूपीए में भाकपा, माकपा शामिल रहती है। माले का स्टैंड यह रहता है कि अगर माकपा व भाकपा यूपीए के साथ गई तो वे अपने दम पर चुनाव लड़ेंगे, वरना वाममोर्चा के साथ जाएंगे। एक नेता हैं-सुदेश महतो और उनकी पार्टी है आजसू, लेकिन वे कुर्मी नेता बनते जा रहे हैं और उनका भविष्य भाजपा के साथ ही जाने में है। चमड़ा लिंडा और बंधु तिर्की जैसे झारखंडी नेता, जो इन दिनों तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं, भाजपा के साथ तो नहीं ही जाएंगे, उनकी झामुमो से कुछ बात हो सकती है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि अगर यूपीए के घटक दलों में मुकम्मल तालमेल रहा तो भाजपा के लिए झारखंड का मुकाबला काफी कांटेदार होगा, बाकी युवा मतदाताओं का भी मूड है, जो इस चुनाव को भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में कर सकते हैं, जिसकी उम्मीद दिख भी रही है। जनसत्ता से साभार।