Wednesday 13 March 2013 11:47:40 AM
श्रीगोपाल नारसन
हरिद्वार। उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय में न प्राध्यापकों के बैठने की जगह है न समुचित क्लास रूम, न हाजरी रजिस्टर और न ही विषयगत छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के लिए जरूरी सुविधाएं। यह कहना किसी जनसामान्य ने नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय में पिछले पांच माह से पढ़ा रहे अतिथि प्राध्यापक एवं फिल्म निर्देशक सुभाष अग्रवाल का है। उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के बदतर हालात से त्रस्त होकर कुलपति को भेजे अपने त्यागपत्र में सुभाष अग्रवाल ने उल्लेख किया है कि उन्हें विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए पांच माह बीत गए, परंतु आज तक विश्वविद्यालय ने उन्हें नियुक्ति पत्र तक उपलब्ध नहीं कराया है।
रूड़की निवासी सुभाष अग्रवाल मुंबई की फिल्मी दुनिया में पहले साउंड डायरेक्टर थे, फिर फिल्म रूई का बोझ बनाकर फिल्म निर्देशक बन गए। संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को जनसंचार एवं पत्रकारिता पढ़ाने के लिए बुलाए गए सुभाष अग्रवाल को विश्वविद्यालय ने शासनादेशानुसार 25 हजार रूपए प्रतिमाह का निर्धारित मानदेय भी नहीं दिया, बल्कि इसकी जगह जब उन्हें आठ हजार रूपए प्रतिमाह देने की कोशिश की गई तो उन्होंने क्षुब्ध होकर एवं विश्वविद्यालय की खराब व्यवस्था के चलते त्यागपत्र दे दिया है। उन्होंने अपने त्यागपत्र में लिखा है कि वे आत्मा का शोषण करके पेट का पोषण नहीं करेंगे। सुभाष अग्रवाल का कहना है कि कहने को भले ही यह विश्वविद्यालय हो, परंतु इस विश्वविद्यालय में प्राईमरी स्कूल स्तर की भी तो सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।
सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त सूचना में बताया गया है कि उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय में नए व्याकरण विभाग के 2 पद सामान्य और एक पद अनुसूचित जाति के लिए स्वीकृत है। इसी तरह साहित्य विभाग में दो पद सामान्य व एक पद अनुसूचित जाति, ज्योतिष विभाग में, एक पद सामान्य, हिंदी विभाग में एक पद सामान्य, शिक्षा शास्त्र विभाग में एक पद प्रोफेसर सामान्य, 4 पद सहायक प्रोफेसर सामान्य व 2 पद सहायक प्रोफेसर अनुसूचित जाति तथा एक पिछड़ा वर्ग, योग विभाग में एक पद सामान्य के लिए आरक्षित है। विश्वविद्यालय में उपनल के माध्यम से गनमैन, चौकीदार, माली, अर्दली, सफाई कर्मचारी के 8 पदों पर कार्यरत अनुसूचित जाति के कर्मचारियों को छोड़कर प्राध्यापन में घोषित आरक्षित कोटे को पूरा नहीं किया गया है। सामान्य वर्ग में भी कई प्राध्यापक ऐसे हैं, जो शैक्षिक योग्यता भी पूरी नहीं करते हैं। हद तो यह है कि विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए न पर्याप्त क्लास रूम हैं, न पर्याप्त फर्नीचर, श्यामपट और चाक जैसी मामूली सुविधाएं भी नहीं हैं, ऐसे में प्राध्यापक पढ़ाएं भी तो कैसे?
पत्रकारिता विभाग की हालत तो और भी बदतर है, जहां पढ़ाई के आवश्यक उपकरण ही मौजूद नहीं हैं। विश्वविद्यालय के पदों को भरने में भी मनमानी नीति अपनाई गई है। बीएड विभाग के प्रोफेसर मोहन चंद्र बलोदी को पहले विश्वविद्यालय का कार्यवाहक कुलपति बनाया, जब इस पद पर महावीर अग्रवाल की नियुक्ति हो गई तो बलोदी को ही विश्वविद्यालय का कार्यवाहक कुलसचिव बना दिया गया, साथ ही संस्कृत अकादमी के सचिव पद पर भी उन्हें ही तैनात कर दिया गया। ऐसे में बलोदी बीएड के छात्रों को कैसे पढ़ा पाते होगें, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।