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श्रीनगर। जम्मू-कश्मीर में यहां के पूर्व राज्यपाल डा जगमोहन की आज जरूरत महसूस की जा रही है। बहुत से लोग आज के संदर्भ में इस तर्क को खारिज कर सकते हैं लेकिन कश्मीर घाटी और यहां के राजनीतिक सूरमाओं की नस-नस से पूरी तरह वाकिफ डा जगमोहन ने श्राईन बोर्ड की जमीन जैसे राज्य के न जाने कितने विवाद बगैर किसी शोर-शराबे के समाधान के अंजाम तक पहुंचाए हैं। कश्मीर के कुछ मक्कार किस्म के नेताओं को जगमोहन ने कभी मुह नहीं लगाया लेकिन यहां की जनता में जगमोहन की एक छवि थी जो आज भी कायम है। वैष्णो देवी मंदिर के प्रबंध और उसकी यात्रा को सुगम बनाने का श्रेय जगमोहन को ही जाता है। एक महीने से श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड की जमीन के विवाद में लगातार हिंसा में जम्मू जल रहा है और कश्मीर से दिल्ली तक इस पर जमकर राजनीति हो रही है, इसीलिए आज यहां जगमोहन याद किए जा रहे हैं।
श्राइन बोर्ड के जमीन मुद्दे पर राजनीतिक प्रयोग ही चल रहे हैं। राज्य को हिंसा से बचाने में विफल सरकार की इसके समाधान में अपनाई गई राजनीतिक रणनीति भी उलझती जा रही है। इसी कारण श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड को भूमि देने और फिर राजनीतिक दबाव में उसे वापस लेने का मामला देश का अब राजनीतिक मुद्दा बन गया है। इस धार्मिक मामले में राजनीतिक दखल के बढ़ने और आंदोलनकारियों से फूहड़ तरीके से निपटने के कारण यह मामला हिंसा में बदला जिससे आज तक जम्मू कश्मीर सुलग रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री के नेतृत्व में जम्मू गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के हाथ कोई समाधान नहीं लगा है सिवाय शांति की अपील करने के।
जिसकी उम्मीद की जा रही थी वही हुआ-भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे को देशव्यापी हिंदु जन-जागरण के लिए लपक लिया है और श्राईन बोर्ड संघर्ष समिति जमीन वापसी से नीचे बात करने को तैयार ही नहीं है। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के नेताओं ने भी यहां आकर अपनी राजनीतिक रणनीति आजमा ली। प्रतिनिधिमंडल के नेताओं ने कश्मीरियों के साथ केवल भाषणबाज़ी की और मुख्य विवाद जमीन के मामले को आखिर में रखा। जम्मू कश्मीर में पहले शांति स्थापित कायम करने की अपील का असर तभी संभव हो सकता था जब पहले मुख्य विवाद पर बात होती। मगर पहली प्राथमिकता इस समस्या के समाधान की नहीं रही जिसके कारण जम्मू में आंदोलन भड़का जो पूरे जम्मू कश्मीर को अपनी हिंसक चपेट में ले रहा है।
श्राईन बोर्ड संघर्ष समिति के नेता अड़े हुए हैं कि उन्हें जमीन चाहिए जिसे भी बात करनी है वह इसी मुद्दे पर बात करे, लेकिन इस मुद्दे पर तो कोई बात ही नहीं कर रहा है। यहां हिंदू मुस्लिम एकता के गीत गाए जा रहे हैं और भाजपा और हिंदु नेताओं को गालियां दी जा रही हैं। अभी तक जितनी भी वार्ताएं हुई हैं उनका कोई भी समाधान नहीं निकला है। जम्मू कश्मीर के राज्यपाल वीएन वोहरा को विवाद में घसीट कर उन्हें हटाए जाने की मांग की जा रही है। केंद्र सरकार भी एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रख रही है। श्रीनगर में सर्वदलीय बैठक के बाद गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने बहुत सतर्क होकर इस विवाद में अपनी टिप्पणी की है। इस आंदोलन का सबसे बड़ा पक्ष यह है कि जब श्राईन बोर्ड को जमीन दे दी गई थी तो उस पर विवाद शुरू होते ही वह वापस क्यों ले ली गई? यह ठीक उस तरह से हुआ कि जिस प्रकार अयोध्या में कांग्रेस ने एक बार विवादास्पद जमीन पर शिलान्यास करा दिया और अगले दिन उसे रुकवा भी दिया जिससे कांग्रेस के पास न हिंदू रूके और न मुसलमान। यह मामला भी बिल्कुल वैसा ही है जिसमें कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद की सरकार से पीडीपी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे न सरकार बची और ना ही गुलाम नबी आजाद अपने फैसले पर कायम ही रह सके।
पीडीपी की नेता महबूबा सईद इस समय भले ही यह समझ रही हों कि उन्होंने इस मुद्दे पर सरकार को ठिकाने लगा दिया है और घाटी के मुसलमानों को भी खुश कर दिया है लेकिन यह भी सही है कि इससे जम्मू और कश्मीर में दो संप्रदायों के बीच जो तलवारें खिंच गई हैं अब वे म्यान में वापस नहीं लौटने वालीं हैं।
जहां तक केंद्र सरकार की बात है तो केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल कह रहे हैं कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे शांतिपूर्वक तरीके से निपटना होगा क्योंकि मुद्दे को सुलझाने की कोशिश में यह नहीं होना चाहिए कि एक हिस्से को राहत मिल जाए और राज्य के दूसरे हिस्से में समस्या खड़ी हो जाए तो यह भी संभव नहीं है। शिवराज पाटिल के पास मालूम नहीं ऐसा कौन सा फार्मूला है जिससे कि वो दोनों पक्षों को खुश कर सकते हों। यदि ऐसा ही था तो गुलाम नबी आजाद सरकार से समर्थन वापस लेने वाली पीडीपी को समझाना चाहिए था कि श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड को दी गई जमीन पर राजनीति करने से उसके दुष्परिणाम होंगे और घाटी में शांति का माहौल खत्म हो जाएगा। इस वक्त पीडीपी हो या नेशनल कांफ्रेंस, घाटी के मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए दोनों श्राईन बोर्ड को देकर वापस ली गई जमीन को फिर से सौंपने को तैयार नहीं हैं। इस मामले के अब राजनीतिक परिणाम ही सामने आएंगे और यह भी बिल्कुल तय है कि इसमें बीच का रास्ता कोई नहीं बचा है और यह मामला तभी शांत हो पाएगा जब वह जमीन श्राईन बोर्ड को वापस कर दी जाए।
भारतीय जनता पार्टी ने इस मामले को अपने राजनीतिक एजेंडे और चुनाव प्रचार का हिस्सा बनाया है। भाजपा सवाल पूछ रही है कि देश में हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं पर आखिर कब तक ऐसे हमले होते रहेंगे। देश में अयोध्या, काशी और मथुरा पहले से ही सुलग रहे हैं और इन मुद्दों के समाधान की भी कोई सूरत नजर नहीं आ रही है। श्राइन बोर्ड की जमीन का मामला भी ऐसे ही विवादास्पद मामलों की सूची में चला गया है। यही फारूख अब्दुल्ला जैसे नेताओं की राजनीतिक विफलता मानी जा रही जो अपने राज्य के घरेलू मामलों का अपने बीच ही समाधान नहीं करा सके। इसीलिए घाटी के लोग जगमोहन और उन जैसे शासकों को याद कर रहे हैं। अमरनाथ श्राईन बोर्ड की जमीन का मामला अब चुनाव के मुद्दे में बदल रहा है। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का भाषणों के बजाय अगर जमीन मामले को सुलझाने पर जोर देता तो इसमें शायद सफलता मिलती लेकिन प्रतिनिधिमंडल का दौरा कोई रास्ता नहीं निकाल पाया।