Friday 15 March 2013 10:13:16 AM
अवधेश कुमार
नई दिल्ली। संसद में तीखी बहस में शेर व शायरी निश्चय ही तपिश के बीच हल्की फुहारों का अहसास कराती है, पर यदि शेर-शायरी में भी तीखापन ही हो तो क्षणिक आनंद तो अवश्य पैदा होता है, किंतु परिणाम स्वरूप अंततः तीखापन ही बढ़ता है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान ऐसा ही हुआ।
लोकसभा में प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘हमको उनसे वफा की है उम्मीद, जो नहीं जानते कि वफा क्या है?’ यह शेर यदि मीठा दर्द बयान करने के लिए होता तो इसका संदेश अलग जाता, लेकिन प्रधानमंत्री ने विपक्ष के प्रति अपने गुस्से और तिलमिलाहट को व्यक्त करने के लिए इसका प्रयोग किया तो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी करारा जवाब देते हुए कहा कि शेर कभी उधार नहीं रखा जाता, इसलिए एक शेर का जवाब दो शेर से देना होगा। उन्होंने कहा-‘कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।’ फिर उन्होंने दूसरा शेर बोला, ‘तुम्हें वफा याद नहीं हमें जफा याद नहीं, ज़िंदगी और मौत के दो ही तराने हैं, एक तुम्हें याद नहीं, एक हमें याद नहीं।’
संसद यूं ही तनाव पूर्ण वातावरण एवं देश की कई बड़ी ज्वलंत चुनौतियों से घिरी हुई है इसलिए यह तो स्वाभाविक और स्पष्ट है कि ये शेर राजनीतिक वार और प्रतिवार के तौर पर किए गए, जिससे बहस के अंत में माहौल कहीं ज्यादा तपिश से भरा था। प्रधानमंत्री ने वफा की उम्मीद वाला शेर भाजपा की आलोचना को धार देने के संदर्भ में किया तो सुषमा स्वराज ने भी बेवफाई का शेर बोलते हुए कहा कि भाजपा इसलिए प्रधानमंत्री की आलोचना करती है, क्योंकि वे देश के साथ बेवफाई कर रहे हैं और देश के साथ बेवफाई करने वालों से हम वफा नहीं कर सकते। वास्तव में सरकार एवं मुख्य प्रतिपक्ष भाजपा के बीच का रिश्ता और व्यवहार इस समय सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच के सामान्य मतभेद सरीखे नहीं रह गए हैं। दोनों के बीच इतना तीखा विभाजन हो चुका है कि बड़े नेता भी आपा खोने की स्थिति में पहुंच गए हैं।
आप देखेंगे कि भाजपा के विरुद्ध स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के स्वर धीरे-धीरे बदले हैं और अब तो वे आर-पार जैसे भाव प्रकट कर रहे हैं। सात मार्च को लोकसभा एवं आठ मार्च को राज्य सभा में उनका तेवर सबसे ज्यादा आक्रामक था। ऐसा लग रहा था, मानो वे अपना पूरा गुस्सा संसद में भाजपा पर उतार रहे हैं। दो बानगी देखिए-2004 में इस पार्टी ने इंडिया शाइनिंग का नारा दिया था, लेकिन मतदाताओं ने भाजपा की चमक ही धो दी। वर्ष 2009 के आम चुनाव में इस पार्टी ने अपने लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रुप में पेश किया।
भाजपा शायद यह समझ रही थी कि लौहपुरुष एक मेमने पर बहुत भारी पड़ेंगे, लेकिन सब जानते हैं कि चुनाव का नतीजा कैसा रहा। जिसे ईर्ष्या होती है, उसे सब कुछ बुरा ही दिखता है। ये सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आम नोंक-झोंक की पंक्तियां नहीं हो सकतीं। प्रधानमंत्री ने भाजपा के आरोपों और रवैये को उसका अहंकार करार दिया। किसी को अहंकारी कहना, ईर्ष्यालू करार देना आम राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की भाषा नहीं हो सकती। भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कांग्रेस नेहरु परिवार की आलोचना की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि वह उनका जवाब देने में उनके स्तर पर नहीं उतरना चाहते। अगर राज्यसभा एवं लोकसभा में भाजपा नेताओं की भाषा पर नजर दौड़ाएं तो यद्यपि उनमें इतनी तल्खी नहीं थी, पर उनके तेवर भी संसदीय लोकतंत्र के आम प्रतिपक्ष की तरह नहीं था। जैसे सुषमा स्वराज एवं अरुण जेटली दोनों ने सरकार पर तीखे हमले करते हुए कहा कि विश्वसनीयता के संकट से गुजरती और भ्रष्टाचार व घोटालों से घिरी सरकार में नीतियां बनाने वालों को लकवा मार गया है।
देश की आर्थिक प्रशासनिक स्थिति पर सरकार एवं विपक्ष के बीच मतभेद होना स्वाभाविक है। राष्ट्रपति के अभिभाषण में हमेशा केवल सरकार का पक्ष रहता है। सरकार ने जिस तरह अपनी उपलब्धियों का दावा किया था, उससे वैसे भी सहमत होना कठिन है। सरकार की नीतियों का बचाव करते हुए प्रधानमंत्री ने आर्थिक मंदी से उबरने और विकास दर 8 प्रतिशत तक ले जाने का दावा किया। किसानों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और शिक्षा से जुड़ी योजनाओं का भी बचाव किया। आंकड़ों के साथ दावा किया कि गरीबी कम हुई है और दुनिया को देखते हुए भारत की आर्थिक स्थिति बेहतर है। विपक्ष यह कैसे स्वीकार कर लेगा कि संप्रग सरकार की आर्थिक मोर्चे से लेकर सुरक्षा मामलों एवं स्वच्छ प्रशासन के कदमों की उपलब्धियां संतोषजनक हैं?
इसलिए उसकी आलोचना स्वाभाविक है और सरकार के मुखिया के नाते प्रधानमंत्री को उसका जवाब देते हुए अपनी उपलब्धियों के दावों को सत्यापित करना भी, किंतु यह इस सीमा तक चली जाए कि जहां सरकार विपक्ष को उसकी औकात बताने लगे, उसकी भाषा में विपक्ष के प्रति उपहास हो तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं हो सकती है। दुर्भाग्य से लगातार ऐसा ही हो रहा है। कभी-कभार ऐसे अवसर आते हैं, जब लगता है कि सरकार और मुख्य विपक्ष के बीच शायद अब समन्वयकारी संबंध हो जाएगा, लेकिन अगले ही क्षण स्थिति पहले से ज्यादा तनावपूर्ण हो जाती है। मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति यदि इतने उत्तेजित होकर जले कटे शब्दों को प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें आडवाणी का व्यक्तिगत उपहास तक शामिल है, तो इसी से अंदाजा लगा लीजिए कि हमारी राजनीति इस समय किस स्थिति में पहुंच गई है।
हमारे लिए इसमें आश्चर्य का कोई पहलू होना भी नहीं चाहिए। वैसे तो दोनों पक्षों के बीच तनाव लगातार बना रहा है। आखिर छः महीने में तीन भारत बंद सामान्य राजनीतिक मतभेद का सबूत नहीं है, लेकिन मानसून सत्र में भाजपा ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर जैसी स्थित उत्पन्न कर दी थी, उसमें कांग्रेस ने हमले का जवाब हमला यानी उसके खिलाफ आक्रामक होने की रणनीति अपनाई। सुषमा स्वराज एवं अरुण जेटली ने भ्रष्टाचार में सरकार पर मोटा माल खाने का आरोप लगाया एवं पार्टी ने प्रधानमंत्री को संसद में जवाब तक नहीं देने दिया। उसके बाद सोनिया गांधी ने स्वयं कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में दो बार भाजपा के खिलाफ संसद से सड़क तक आक्रामक होने का आह्वान किया। चार नवंबर 2013 को कांग्रेस की रामलीला मैदान महा रैली में भी उन्होंने कहा कि गांव-गांव में फैले कांग्रेस के साथियों से कहना चाहता हूं कि हमें पूरे आत्मविश्वास के साथ विरोधियों को जवाब देना है, कांग्रेस का दामन साफ है।
इस तरह देखें तो प्रधानमंत्री का तीखा तेवर कांग्रेस की रणनीति का ही अंग है। सोनिया गांधी ने भी अपने भाषणों में यही कहा था कि वे 2004 एवं 2009 की हार को पचा नहीं पा रहे हैं और यही बात मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं। सोनिया गांधी ने कहा कि हम देश का विकास कर रहे हैं, उनके शासनकाल से हम ज्यादा बेहतर स्थिति में देश को ले गए हैं, जिसे वे सहन नहीं कर पा रहे हैं और प्रधानमंत्री भी लगभग यही कह रहे हैं, तो विपक्ष यानी भाजपा के खिलाफ जवाबी होने की जगह तीखा हमलावार रुख अपनाना कांग्रेस की रणनीति हो चुकी है। हॉलांकि भाजपा अब प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग नहीं कर रही है। कोयला ब्लॉक आवंटन में भ्रष्टाचार संबंधी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के बाद के उसके रुख एवं आज के रुख में यह बड़ा बदलाव है। तब उसने ऐलान कर दिया था कि यदि इस मुद्दे पर उसके साथी दल साथ छोड़ दें तो भी वह अपने रुख पर कायम रहेगी। तो बदलाव साफ हैं, पर उसके तेवर उसी तरह तीखे हमले वाले हैं।
भाजपा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित पूरी यूपीए सरकार को भ्रष्ट, निकम्मी और देश को पीछे ले जाने वाला करार दे रही है। स्पष्ट है कि दोनों पक्ष अनुचित व्यवहार कर रहे है, किंतु जब आपका पूरा ध्यान सच और झूंठ, विवेक-अविवेक से परे केवल आगामी चुनाव के अपने संकुचित राजनीतिक हित तक सीमित हो जाएं, एक दूसरे के अंत करने की भावना घर कर जाए तो फिर परिणति यही होगी। इसमें चाहे आप शेर पढ़िए, या खुशनुमा गीतों की कोई पंक्तियां गुनगुना दीजिए, उसकी तासीर हमले, गुस्से और घृणा की ही होगी। इसमें कौन वफा कर रहा है और कौन बेवफाई, इसका फर्क करना कठिन है। कम से कम वफा तो कोई नहीं कर रहा है।