मोहम्मद असलम अंसारी
लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट देखकर ऐसा नहीं लगता है कि इस रिपोर्ट को तैयार करने में लिब्राहन कमीशन के अध्यक्ष ने पूरी तरह से आज़ाद होकर यह रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट को ध्यान पूर्वक देखने और समझने के बाद ऐसे कई बिंदु सामने आते हैं जो मस्तिष्क को झिंझोड़ने लगते हैं और उसके बाद ऐसा महसूस होता है कि इस कमीशन को निर्माण करने वाले ने अपने चतुर मस्तिष्क से जस्टिस लिब्राहन को यह सुझाव दिया कि मैं इसकी रिपोर्ट के लिए तीन माह का समय दे रहा हूं लेकिन तुम इसको लंबा खींचना, ताकि तुम्हारा भी लाभ हो जाए और इसके साथ ही मुसलमानों की भावनाएं भी ठंडी हो जाएं। तभी जस्टिस लिब्राहन ने तीन माह के बजाये रिपोर्ट तैयार करने में 204 महीने यानी सत्रह वर्ष लगाए। इस रिपोर्ट को पूर्ण करने के लिए कमीशन पर लगभग दस करोड़ रूपये खर्च हुए। इतना रूपया खर्च करने के बाद भी लिब्राहन कमीशन एक बार भी अयोध्या में जाकर बाबरी मस्ज़िद के स्थान पर निरीक्षण नहीं कर सका। लिब्राहन कमीशन ने एक ऐसी रिपोर्ट तैयार करके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सम्मुख पेश कर दी जिसकी हक़ीकत 6 दिसंबर 1992 से ही प्रकट थी, सिर्फ एक नाम भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयीजी का भी सामने आ गया जो आम लोगों की दृष्टि से छिपा हुआ था लेकिन इस नाम को हिंदुस्तान के बुद्धिजीवी जानते थे।
लिब्राहन कमीशन ने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को क्लीन चिट देकर मुसलमानों के ज़ख्मों पर नमक छिड़का है। अगर जस्टिस लिब्राहन यह कहना चाहते हैं कि केंद्र सरकार मजबूर थी तो ऐसी बातों को कोई भी बुद्धिजीवी मानने को तैयार न होगा। इसी केंद्र सरकार में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उस समय एलटीटीई (लिट्टे) ने श्रीलंका में युद्ध आरंभ कर दिया था, जिसको दबाने के लिए केवल 4 घंटे में ही केंद्र सरकार ने श्रीलंका में भारतीय सेना उतार दी थी। श्रीलंका की दूरी देहली से लगभग दो हजार किलोमीटर थी जबकि देहली से अयोध्या की दूरी केवल 625 किलोमीटर है। इसके साथ ही बाबरी मस्ज़िद के स्थान से केवल पांच किलोमीटर की दूरी पर केंद्रीय बल पड़ाव डाले था, जिसका उपयोग भी नहीं किया गया। उस समय भी जबकि उत्तर प्रदेश 6 दिसंबर 1992 को सायंकाल गवर्नर राज में बदल गया था। इसके बावजूद भी बाबरी मस्ज़िद के मलबे को एकत्रित करके एक बहुत बड़ा चबूतरा निर्माण कराकर, उस पर मूर्तियां स्थापित करके पूजा पाठ आरंभ कराई गई, जिसके निर्माण में लगभग चालीस घंटे का समय लगा। इसके बाद आठ दिसंबर प्रातः दस बजे कारसेवकों को स्पेशल ट्रेनों से रेल मंत्री जाफर शरीफ़ ने अयोध्या से वापस भेजने का काम शुरू किया।
जस्टिस लिब्राहन ने इन चालीस घंटों का अपनी रिपोर्ट में कोई वर्णन नहीं किया, आखिर ऐसा क्यों? मैं 7 दिसंबर 1992 की शाम को लगभग 5 बजे (स्वर्गीय) मौलाना मुज़फ्फर हुसैन कछौछवी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश के गवर्नर से मिलने गए एक डेलीगेशन में शामिल था। यह डेलीगेशन गवर्नर हाउस गया था। लंबे अंतराल के बाद गवर्नर महोदय से वार्ता हुई। मौलाना कछौछवी ने गवर्नर साहब से तीव्रता पूर्वक यह कहा कि जब उत्तर प्रदेश में 6 दिसंबर की सायं से ही आपका राज चल रहा है तो वह चबूतरा जो बाबरी मस्ज़िद के स्थान पर निर्माण किया जा रहा है, क्यों बन रहा है? आप इसे क्यों नहीं रोकते हैं? गवर्नर साहब यह सुनकर मौन रहे। इसके बाद मौलाना ने फिर यह बात दोहराई, इससे गर्वनर साहब क्रोधित हो गए और थोड़ी देर तू-तू-मैं-मैं होने के बाद गवर्नर महोदय उठकर अपने कक्ष में वापस चले गये, डेलीगेशन भी वापस आ गया।
लिब्राहन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लगभग उन 29 टेलीफोन काल का वर्णन क्यों नहीं किया? जिनमें पीएम हाउस से 3 दिसंबर 1992 से 6 दिसंबर 1992 की प्रातःकाल तक अयोध्या में बजरंगदल, भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के सदस्यों से वार्ता हुई थी। आखिर पीएम हाउस से ऐसी क्या बातें हुई थीं जिनका वर्णन लिब्राहन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में करना उचित नहीं समझा, आखिर क्यों? इसी प्रकार अयोध्या में 3 दिसंबर 1992 से 7 दिसंबर 1992 तक उस वक्त के रक्षा मंत्री शरद पवार ने अपने विभाग से वीडियो फिल्म निर्माण कराई थी, जिसको शरद पवार ने आठ दिसंबर 1992 को देहली में लगभग चालीस पत्रकारों को दिखाया था जिसमें बहुत सी अंदर की बातें सामने आईं थीं, लेकिन कमीशन ने रक्षा मंत्री शरद पवार से न तो जानकारी ही ली और ना ही उस वीडियो फिल्म को अपने पास मंगवाया, आखिर ऐसा क्यों?
लिब्राहन कमीशन ने बाबरी मस्ज़िद की शहादत के बाद देश में फूट पड़ने वाले सांप्रदायिक दंगों के बारे में भी मौन धारण रखा है, जिसमें लगभग सरकारी तौर पर दो हजार और गैर सरकारी तौर पर पांच हजार लोगों की जानें गईं। अगर यह घटना न हुई होती तो इतनी जानों को बचाया जा सकता था। कमीशन ने अन्यों को दोषी ही नहीं समझा? तभी तो वह अपनी रिपोर्ट में इस मामले पर मौन हैं, आखिर ऐसा क्यों? लिब्राहन कमीशन ने जहां तक अपने सुझाव दिये हैं, उन पर अमल होगा भी या नहीं यह तो समय ही बतायेगा।
हिंदुस्तान में 60 साल से न जाने कितने हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के बाद कमीशन बनते रहे हैं, किंतु आज तक किसी एक भी कमीशन के सुझाव पर अमल नहीं हुआ है। मैं यहां पर केवल चंद सांप्रदायिक झगड़ों का वर्णन कर रहा हूं। सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में भिवंडी में सांप्रदायिक दंगा हुआ, जो कई दिनों तक चला। इस दंगे में मुसलमानों का बहुत जानी नुकसान हुआ। भिवंडी में कई तलों की अंसारी बिल्डिंग में बाहर से ताला लगाकर आग लगा दी गयी, जिसमें हर तल पर सिर्फ मुस्लिम परिवार ही रहते थे, जिनको जान-माल, दोनों तरह का नुकसान उठाना पड़ा। इन दंगों की जांच के लिए जस्टिस मदान के नेतृत्व में एक कमीशन बनाया गया। जस्टिस मदान कमीशन ने अपनी रिपोर्ट के आखिरी पैरे में लिखा था-'इस दंगे के मुज़रिम वही लोग हैं जो खाकी वर्दी पहने थे, जिन्होंने खाकी वर्दी की बेइज्ज़ती की है।' इसी तरह सन् 1986 में बाबरी मस्ज़िद का ताला खोलने के बाद मेरठ में दंगा हुआ जो कई दिनों तक चला। इसी बीच में उत्तर प्रदेश की पीएसी ने हाशिमपुरा और मलियाना इलाकों से लगभग 42 मुस्लिम कड़ियल नौजवानों को गिरफ्तार करके अपने ट्रकों में ले जाकर उसी रात नहर के पुल पर खड़ा करके गोलियां मारकर हलाक कर दिया। इनमें एक नौजवान, जो गोली लगने के बावजूद भी बच गया था, वह तैरता हुआ गाज़ियाबाद पहुंच गया। उस वक्त गाज़ियाबाद के डीएम नसीम ज़ैदी थे। उन्होंने उस नौजवान को हास्पिटल में भर्ती कराया और उन्हीं के द्वारा यह बात समाचार पत्रों में आई कि पीएसी ने क्या किया है।
इस मामले की जांच के लिए कमीशन बनाया गया। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लगभग 28 पीएसी के कांस्टेबिलों को दोषी पाया, इनके ऊपर मुकदमात चलाने की सिफारिश की, लेकिन आज तक वह पीएसी वाले आजाद घूम रहे हैं। इसी तरह बाबरी मस्ज़िद की शहादत के बाद मुंबई में भी सांप्रदायिक दंगा हुआ, जो एक माह से भी ज्यादा चला। इस दंगे में मुसलमानों का जान-माल का नुकसान हुआ। दंगे के सिलसिले में श्रीकृष्ण कमीशन बना। इसने भी अपनी रिपोर्ट में शिवसेना, बीजेपी, पुलिस और कई और पार्टियों के लोगों को नामज़द किया, लेकिन आज तक किसी भी कमीशन की रिपोर्ट पर किसी एक को भी सज़ा नहीं मिली। लगभग हर कमीशन ने पुलिस और हिंदुत्ववादी दंगाइयों को ही दोषी ठहराया है।
इसको देखते हुए हमारे लिए कमीशन की सिफारिशात कोई मायने नहीं रखतीं। सिफारिशात भी तभी कारगर होंगी जब सरकार की नीयत ठीक हो। अगर नीयत ठीक हो तो बगैर सिफारिश के ही काम हो जाते हैं। अगर भूतपूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की नीयत ठीक होती तो वे बाबरी मस्ज़िद को उसी जगह बनाने का अपना वचन अवश्य पूरा करते जिसका उन्होंने 6 दिसंबर 1992 की सायं को जनता को संबोधित करते हुए वादा किया था। पिछले दिनों संसद के सत्र में लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट तभी संसद में पेश की गयी, जब दो समाचार पत्रों ने इन रिपोर्टों को छाप दिया। सरकार की नीयत इन रिपोर्टों को पेश करने की नहीं थी।
लोकसभा और राज्य सभा में इस पर इतना हंगामा हुआ कि सरकार मजबूर हो गयी। ऐसी सरकार जो कमीशनों की रिपोर्ट संसद की टेबिल पर रखने को तैयार न हो वह उनकी सिफारिशात को क्यों मानने लगी? सरकार उन्हीं कमीशनो की रिपोर्ट पर मुस्तैदी से कार्रवाई करती है जिसमें मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय को दोषी दिखाया जाता है, आखिर ऐसा क्यों?
लगभग बीस वर्ष से मुसलमानों को आतंकवादी के नाम से मशहूर किया जा रहा है, मुसलमान सब्र के साथ यह सब झेल रहा है। पिछले दिनों संसद के इजलास में देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने अपने भाषण में जब यह कह दिया कि हिंदुस्तान में हिंदू आतंकवादी भी पनप रहे हैं, इस पर भाजपा, बजरंग दल, शिवसेना और राज ठाकरे की पार्टी ने संसद में हंगामा मचा दिया। अपने को सिर्फ एक बार हिंदू आतंकवादी कहने को भी बर्दाश्त न कर सके, आखिर ऐसा क्यों? अगर पांच लाख मुसलमान किसी एक मंदिर को ध्वस्त कर देते तो लगभग पंद्रह लाख मुसलमान हिंदुस्तान की जेलों में कैद होते, लेकिन पांच लाख हिंदुत्व के ठेकेदारों ने बाबरी मस्जिद को शहीद कर दिया, वह भी दिन के उजाले में, लेकिन वह सब आज भी आजाद घूम रहे हैं, आखिर ऐसा क्यों? मैं अपनी बात को नेपोलियन के इस कौल पर समाप्त करता हूं कि कानून मकड़ी का एक जाल है जिसमें कमजोर फंस जाता है और ताकतवर तोड़कर निकल जाता है।
(लेखक मोहम्मद असलम अंसारी सक्रिय रूप से बाबरी मस्ज़िद आंदोलन से जुड़े हैं और अखिल भारतीय डा अब्दुल ज़लील फरीदी मेमोरियल सोसाइटी लखनऊ के संयोजक हैं।)