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सुप्रीम कोर्ट ने दूर की जनमानस की निराशा

न्याय से यह कैसी दहशत?

फैसला आखिर 30 सितंबर को

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

supreme court-सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली। क्या न्याय भी दहशत पैदा करता है? अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मालिकाना विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्याय की तारीख 24 सितंबर मुकर्रर हुई तो फैसले की संभावित प्रतिक्रिया को ऐसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया कि पूरे देश में दहशत फैल गई। सुप्रीम कोर्ट की रोक से तो देश में भारी असमंजस की स्थिति बन गई थी और लगभग सभी क्षेत्रों में इसे हैरत की नजर से देखा जा रहा था। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाने पर लगी रोक हटा ली लेकिन एक संशय ने जन्म ले लिया कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि देश में राज्य सरकारों ने भी फैसले को ध्यान में रखते हुए अपने यहां संवेदनशील स्थानों पर सुरक्षा के कड़े प्रबन्ध कर लिए थे। देश में आंतरिक सुरक्षा को व्यवस्थित रखने के लिए अब तक लगभग करोड़ों रूपये सुरक्षाबलों की विशेष तैनाती पर खर्च हो चुका है और इसी प्रकार उद्योग-व्यापार का भी दहशत की अफरा-तफरी में अरबों रूपये का नुकसान हो गया है। सवाल चल निकला है कि यदि अदालत के संभावित न्याय को भी कुछ प्रमुख वर्गों में दहशत मान लिया गया है तो फिर न्याय का वास्तविक अहसास क्या है?
देश की मौजूदा पीढ़ी के दिमाग में अयोध्या न्याय के लिए तारीख मात्र तय कर दिए जाने से जन सामान्य में जो वातावरण बना उसे देखते हुए फैसले के अमल पर क्या गुल खिलेंगे, यह बात संशयात्मक रूप से हर जुबान पर है। इसका सबसे तीखा और पहला प्रमाण तो यही है कि इस दहशत की चपेट में सभी आए हुए हैं यानी न्यायी भी और अन्यायी भी। कदाचित किसी भी लोकापवाद से बचने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत को उस व्यक्ति की भी याचिका का संज्ञान लेना पड़ा जो उस मामले में एक निष्क्रिय पक्षकार था। मगर इसका संदेश एक अबूझ पहेली बन गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने रमेश चन्द्र त्रिपाठी की फैसला टालने के लिए दायर इस याचिका को एक शरारत और न्याय में बाधा पहुंचाने की कोशिश माना था। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी बोल दिया था कि वे फैसला टाले जाने पर अचंभित हैं। कहा जाने लगा कि इतना आगे जाकर फिर पीछे हटने का आखिर क्या कारण है? एक मामला जो 60 साल में बातचीत के जरिए हल न हो सका हो तो वह अब किस आधार पर हल हो सकता है? कोर्ट में इस मामले के सभी पहलुओं पर कोई एक बार नहीं बल्कि हजारों बार कई-कई घंटे बहस हुई है। यदि ऐसे मामलों में इसी प्रकार की प्रवृत्तियां बढ़ने लगीं तो किसी भी फैसले को परिणाम तक पहुंचने में भी भारी दिक्कतें आ जाएंगी। यह तर्क भी घातक है कि यदि मामले से संबंधित कोई जज रिटायर हो रहे हों तो फैसला आने तक उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाए। इससे मामलों को टालने की प्रवृति को प्रोत्साहन मिल सकता है। सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति ही क्यों आए?
इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला टालने के लिये दायर याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्य पीठ ने दो घंटे तक विभिन्न पक्षों की दलील सुनी और पाया कि यह याचिका खारिज किए जाने योग्य है इसके बाद दोपहर दो बजे पीठ ने फैसला सुनाया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेन्च फैसला 30 सितम्बर को अयोध्या मालिकाना हक विवाद पर अपना सुरक्षित फैसला सुना दे लिहाजा अब साठ साल पुराने इस विवाद पर कोर्ट का फैसला आ जाएगा। भारत के अटार्नी जनरल जीई वाहनवती ने प्रधान न्यायाधीश एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष पेश होकर कहा था कि सबसे वांछित हल तो यही होता कि फैसला हो जाता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है, जो अनिश्चितता चल रही है उसे जारी नहीं रहने देना चाहिये। उन्होंने कहा कि समाधान अगर संभव है तो हम उसका स्वागत करते हैं, लेकिन इसकी प्रत्याशा में हम और अनिश्चितता नहीं चाहते।
मामले पर फैसला टालने का आग्रह करने वाले पक्ष के वकील का फिर भी तर्क था कि अदालत और सरकार इस मामले को अदालत के बाहर हल करने के लिये नयी पहल कर सकती है। निर्मोही अखाड़े को छोड़कर सभी पक्षों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ फैसले को टाले जाने का विरोध किया। याचिकाकर्ता रमेश चन्द्र त्रिपाठी के वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत में कहा कि यह भावनाओं से जुड़ा मामला है और अदालत और सरकार को इस मामले का बातचीत के जरिये हल करने के लिये सक्रिय पहल करनी चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीशों में से एक के सेवानिवृत्त होने पर नये सिरे से सुनवाई की आशंका का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे उपाय हैं कि जिनके जरिये सरकार इस समस्या से निपट सकती है। सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीश की पुनः नियुक्ति की जा सकती है या उनके उत्तराधिकारी भी इस मामले पर फैसला सुना सकते हैं। सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ने कहा कि यह याचिका निहित उद्देश्य से दाखिल की गयी है जिस पर सुनवाई नहीं की जानी चाहिए। कोई तो ऐसा आधार होना चाहिये कि सभी पक्षों को स्वीकार्य हल निकाला जा सके, लेकिन यह दुखद है कि यहां ऐसा कुछ भी नहीं है।
वकील रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि त्रिपाठी एक गैर संजीदा पक्ष हैं जो इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के समक्ष हुई लंबी सुनवाई के दौरान नियमित रूप से पहुंचे भी नहीं थे। अगर परिणाम के बारे में दी गयी इस दलील को स्वीकार किया जाता है तो याचिका के नकारात्मक परिणाम हो भी तो हो सकते हैं, इसलिए अदालत से बाहर बातचीत के जरिये हल करने के लिये और समय देने की जरूरत नहीं है। पूर्व अटार्नी जनरल सोली सोराबजी ने रविशंकर प्रसाद की दलील से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि न्यायिक प्रक्रिया परिणाम की बंधक बन कर नहीं रह सकती। पूर्व प्रधानमंत्री ने भी मामले को बातचीत से हल करवाने के प्रयास किये थे लेकिन वह भी विफल रहे। सोराबजी ने कहा कि हम पूरी तरह मामले का समाधान निकाले जाने के पक्ष में हैं लेकिन साथ ही इस आग्रह के पूरी तरह खिलाफ हैं कि फैसला टाल दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का लगभग सभी दलों ने स्वागत किया है। भाजपा ने कहा कि उसका शुरू से मानना रहा है कि इस मुद्दे पर और कानूनी विलंब नहीं होना चाहिए। भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा कि हम शीर्ष अदालत के फैसले का निश्चित तौर पर स्वागत करते हैं, पार्टी यह रुख पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि वह नहीं चाहती कि इस विवाद का निर्णय आने में और कानूनी विलंब हो। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने पिछले सप्ताह इस मुद्दे पर विचार करने के बाद जारी बयान में कहा था कि 61 साल से चले आ रहे न्याययिक विलंब के चलते अयोध्या में राम मंदिर नहीं बन पाया है। बयान में यह उम्मीद भी जाहिर की गई थी इस विषय पर अब और विलंब नहीं होगा। अखिल भारत हिन्दू महासभा ने हिन्दू समुदाय से धैर्य और संयम रखने की अपील की है। महासभा के प्रदेश अध्यक्ष कमलेश तिवारी ने कहा कि निर्णय आने के बाद महासभा अगला निर्णय लेगी।

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