अवधेश कुमार
मुंबई के पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक की प्रोन्नति एवं तबादला देशव्यापी सुर्खियां बना है तो इसके कारण वाजिब हैं। आजाद मैदान की रैली के बाद से ही पुलिस प्रशासन के रवैये पर प्रश्न उठ रहे थे और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना यानी मनसे के नेता राज ठाकरे ने अपनी बहुप्रचारित रैली में पुलिस आयुक्त एवं गृहमंत्री आरआर पाटिल के इस्तीफे की जोरदार मांग की थी। सरकार जैसा दावा कर रही है, संभव है कि काफी समय पूर्व अरूप पटनायक को महाराष्ट्र राज्य सुरक्षा परिषद (एमएसएससी) का महानिदेशक बनाने का निर्णय किया गया होगा, पर रैली के बाद इस घटनाक्रम को उससे जोड़कर देखा जाना तथा मनसे का इसका श्रेय लेना स्वाभाविक है। राज ठाकरे ऐसा नाम हो गया है, जिसके प्रति पूरे उत्तर भारत के लोगों में कभी स्नेह और सद्भावना पैदा नहीं हो सकती। वे कोई अच्छा काम भी करेंगे तो उसे समर्थन देना इसलिए कठिन हो जाएगा, क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की शुरुआत जिस नफरत और हिंसा से की है, वह आम मानवीय गरिमा के तहत तो नहीं ही आता, भारत की एकता अखंडता के लिए भी खतरनाक है। किंतु मानना होगा कि मुंबई के आजाद मैदान में 21 अगस्त को उनकी रैली तथा बिना पुलिस की पूर्व अनुमति के गिरगांव चौपाटी से उनके मार्च को प्रकट-अप्रकट रूप से व्यापक जनसमर्थन मिला। समर्थन देने वालों में आज वे भी शामिल हैं, जो कभी राज ठाकरे के आम राजनीतिक व्यवहार से सहमत नहीं हो सकते। किसी पार्टी के नेता से निजी बात करिए, आपको इसका एहसास हो जाएगा। पुलिस और पत्रकारों के अंदर भी ऐसा ही मनोविज्ञान है। आजाद मैदान में आई भीड़ केवल मनसे के कार्यकर्ताओं की नहीं थी, उसमें दूसरे विचार और संगठनों से जुड़े तथा आम लोग भी थे। यह यूं ही नहीं होगा।
राज ठाकरे के नेतृत्व में मनसे का मोर्चा, सीधे-सीधे 11 अगस्त को रज़ा अकादमी और कुछ मुस्लिम संगठनों की रैली में हुई हिंसा के विरोध में था। उस दिन जिस तरह पांच दर्जन सरकारी बसें आगजनी में झोकीं गईं, 50 से ज्यादा पुलिस वाले घायल हुए, कुछ पुलिस वालों के हाथों से हथियार छीना गया, मीडिया के वाहन जलाए गए, उन्हें पीटा गया, आम आदमी की पिटाई हुई, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया, शहीद स्मारक को क्षति पहुंचाई गई, शांति और अहिंसा के प्रतीक महात्मा बुद्ध की प्रतिमा को अपमानित किया गया, उन सबके खिलाफ पूरे देश और महाराष्ट्र में गुस्सा है। हर वर्ग और श्रेणी के लोगों में उबाल है, जिसमें पुलिस और स्थानीय पत्रकारों का बड़ा वर्ग भी शामिल है। चारों ओर यह महसूस किया जा रहा है कि देश के राजनीतिक सामाजिक संगठनों को इसके विरुद्ध मान्य लोकतांत्रिक तरीकों से प्रतिरोध में सामने आना चाहिए। ऐसी शक्तियों को हतोत्साहित करने के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों का सड़क पर आना, सत्याग्रह करना समय की मांग है। आप देख लीजिए, कोई संगठन अभी तक आगे नहीं आया। वे सोशियलाइट भी नहीं जो अन्य कई घटनाओं पर मोमबत्ती जलाकर निकल पड़ते हैं। राज ठाकरे ने इस खालीपन को भरा है और इसलिए उनके विरोधियों का भी मौन समर्थन उन्हें मिला।
बेशक, महाराष्ट्र सरकार और पुलिस विभाग दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कर रहे हैं और कुछ लोग पकड़े भी गए हैं, पर शांतिपूर्ण रैली के लोकतांत्रिक अधिकार का जिस तरह का हिसंक दुरुपयोग हुआ, आम नागरिकों में भय व दहशत पैदा की गई, उसकी तुलना में अब तक की पूरी कार्रवाई औपचारिक खानापूर्ति भर नजर आती है। वैसे भी ऐसी घटनाओं के खिलाफ प्रशासनिक और पुलिस की कार्रवाई की सीमाएं हैं। पुलिस सबूतों के आधार पर कुछ लोगों को गिरफ्तार कर सकती है, उनके खिलाफ मुकदमा चलाएगी, जिसका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि सबूत कितने पुख्ता हैं। ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेवार सभी दोषियों को सजा मिलना और जितने दोषी हैं, उसी के अनुरुप सजा मिलना संभव नहीं है। सजा मिल जाए तो भी लोकतंत्र में यही एकमात्र रास्ता पर्याप्त नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक तरीके से ऐसी घटनाओं के विरोध का सामूहिक असर पड़ता है। महसूस होता है कि दूसरे लोग साथ हैं, हिंसा करने वाले असामाजिक तत्वों को लगता है कि अगर आगे उन्होंने ऐसा किया तो समाज का बड़ा तबका उनके खिलाफ हो जाएगा। इससे सरकार तथा प्रशासन पर भी आवश्यक सख्त कार्रवाई का दबाव बढ़ता है। इसका असर समाज के हित में हैं।
आप लोकतांत्रिक विरोध किस तरह करें, इस पर कुछ मतभेद हो सकते हैं। जैसे कुछ लोग कह सकते हैं कि सामाजिक शांति और सद्भाव के लिए काम किया जाना चाहिए। ऐसा कोई काम न करें, जिससे माहौल और बिगड़े-आदि आदि। लेकिन राजनीतिक दल रैलियां निकालें, ऐसी घटनाओं की आलोचना करें, चेतावनियां दें, सरकार पर दबाव डालें, कुछ मांगें करें, इसमें बुराई नहीं हैं। कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां अगर सड़क पर उतरती, रैली करती तो दृश्य ज्यादा बेहतर होता और वह ज्यादा प्रभावकारी भी होता। देशव्यापी राजनीतिक दल वैसी आक्रामक क्षेत्रीयता या संकीर्ण सांप्रदायिकता की बात नहीं कर सकते, लेकिन भाजपा ने शिवसेना के साथ मिलकर केवल खानापूर्ति की और कांग्रेस ने तो कुछ किया ही नहीं। उस खालीपन को कोई तो भरेगा। राज ठाकरे की भले आलोचना की जाए, लेकिन ऐसी अवस्था में उनका रैली और मोर्चा निकालना गलत नहीं था। राज ठाकरे का अपना तरीका है। उनकी राजनीतिक आक्रामकता मराठा क्षेत्रीयतावाद पर टिकी है और उनकी हर राजनीतिक गतिविधियों में यह शामिल है।
हालांकि कुछ लोगों की मान्यता है कि राज ठाकरे ने इस रैली के माध्यम से मराठावाद से हिंदूवाद की राजनीति की ओर कदम बढ़ा दिया है। यह संभव है कि उन्हें संकुचित मराठावाद की सीमाएं समझ में आई हों और अपना विस्तार करने के लिए वे आक्रामक हिंदूवाद की ओर अग्रसर हों। वे अपने चाचा बाला साहब ठाकरे के पद चिन्हों पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। बाला साहब का राजनीतिक उद्भव भी ऐसी ही उग्र मराठावाद से हुआ था, जो धीरे-धीरे आक्रामक हिंदूवाद के रुप में विस्तारित हुआ। उसके बाद ही शिवसेना का समर्थन आधार व्यापक हुआ और वह चुनावी राजनीति में भी एक प्रमुख शक्ति बन सका, किंतु आजाद मैदान के उनके भाषण से अभी इसका स्पष्ट संकेत नहीं हैं। उन्होंने कहा था कि कहा जा रहा है कि वे हिंदूवाद की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन वे तो एक ही वाद जानते हैं-महाराष्ट्रवाद। किसी मराठा को चोट पहुंचाई जाएगी तो उसे वे सहन नहीं करेंगे। उनके भाषण में यह बात शामिल थी कि हिंसा करने वाले महाराष्ट्रीय नहीं हो सकते। वे बाहर से आए हुए लोग हैं।
राज ठाकरे यदि स्वयं को रुपांतरित करते हैं, तो उसकी भी लंबी प्रक्रिया होगी और उससे महाराष्ट्र की राजनीति प्रभावित होगी। इन दिनों अपने चचेरे भाई और शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के साथ उनके रिश्ते जिस तरह सुधरे हैं, उसके आलोक में आने वाले दिनों में शिवसेना के साथ फिर से उनके रिश्ते जुड़ सकते हैं, किंतु इस प्रकरण का मूल विषय राज ठाकरे का संकीर्ण मराठावाद से हिंदूवाद की ओर प्रयाण या शिवसेना से उनका भावी संबंध नहीं है। जो यह आरोप लगा रहे हैं कि राज ठाकरे ने राजनीतिक लाभ के लिए मार्चा एवं रैली आयोजित की, वे यह क्यों भूल रहे हैं कि अन्य पार्टियां भी राजनीतिक लाभ के लिए घटनाओं का उपयोग-दुरुपयोग करती रही हैं और करती हैं। यह वोट आधारित राजनीति का स्वाभाविक लक्षण है। इस मामले में तो अन्य पार्टियों ने कोई सद्भावना गतिविधि भी न चलाकर राज ठाकरे को ऐसा करने का अवसर दे दिया।
भारतीय राजनीति की यह बहुत बड़ी त्रासदी है कि मुसलमानों से जुड़ीं हुईं घटनाओं के बारे में ज्यादातर प्रमुख राजनीतिक पार्टियां स्पष्ट रुख अपनाने से कतरातीं हैं। भले उनका विरोध मुसलमानों का बड़ा वर्ग भी करता है, लेकिन राजनीतिक दल मुसलमानों के कभी ऐसे गलत कार्यों के खिलाफ खड़े नहीं होते। गलत कार्यों के प्रति इस घातक निरपेक्षता के कारण मुसलमानों एवं हिंदुओं में भी कट्टरवादी तत्वों को प्रश्रय मिला है। इसी से बाला साहब ठाकरे या अब राज ठाकरे जैसे नेताओं को राजनीतिक लाभ पाने का अवसर मिला है। आखिर वे सफल तभी न होते हैं, जब जनता का समर्थन उन्हें मिलता है। एक पुलिस के जवान को राज ठाकरे से हाथ मिलाने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया एवं बिना अनुमति मोर्चा निकालने के लिए कुछ नेताओं के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ है, पर महाराष्ट्र के आम पुलिस वालों से बातें करिए तो राज ठाकरे के मोर्चे एवं रैली दोनों के समर्थन की आंतरिक व्यापकता का आपको आभास हो जाएगा। ऐसा क्यों है? इसका सही आकलन करें तभी हमारे सामने सच्ची तस्वीर आ पाएगी।