Saturday 16 February 2013 06:37:00 AM
हृदयनारायण दीक्षित
ऋतुराज आ गए हैं। वे हर बरस आते हैं। दिग्दिगिंत महकाते हुए। उनका सुस्वागतम् है। प्रकृति यौवन उमंग में है, ऋतुराज की अगवानी में। प्रकृति सदाबहार अल्हड़ नायिका है। नदियां हंसती नृत्य करती बहती हैं, मनुष्य आनंदित होता है, सो नदियों के तट पर उत्सव नृत्य और संकीर्तन। प्रकृति जहां-जहां, जब-जब आनंदित करती है तब-तब, वहां-वहां उत्सव, लेकिन समय की भी अपनी महत्ता है। काल सबका नियंता है। अथर्ववेद के ऋषि भृगु ने गाया है कि काल में ही सुख-दुख और आनंद है। काल में ही ऋक् यजुष और सामगान हैं। भारतीय उत्सवों में प्रकृति और काल-मुहूर्त की जुगुलबंदी है। वसंत ऐसी ही मनभावन उपस्थिति है। वसंत में प्रकृति और काल की गलमिलौवल है। तब धरती आकाश तक मदनरस छलकता है। आनंदरस और प्रीतिरस का वातायन है वसंत।
प्रकृति मनमौजी है, तमाम रूपों में सजती है, खिलती है। बड़ी मस्त-मस्त और बिंदास है यह, लेकिन यह नायिका परम स्वतंत्र नहीं है, प्रकृति में नियमबद्धता है। वैदिक ऋषियों ने सृष्टि के इस संविधान को ऋत कहा, ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमंत, पतझड़ और वसंत इसी अदृश्य ऋत के दृश्य ऋतु-रूप हैं। वसंत परिपूर्ण प्राकृतिक तरूणाई है। प्रकृति की अंग-अंग उमंग का नाम है वसंत, वसंत समूची प्रकृति का चरम परम उल्लास है। हम सब प्रकृति के अंश हैं, प्रकृति के गुणों के प्रभाव में है। प्रकृति गीत गाए, नाचे, महके और मनुष्य चुप रहे ऐसा हो ही नहीं सकता। प्रकृति के रूप मनुष्य ही नहीं अन्य प्राणियों को भी संवेदित करते हैं। वर्षा ऋतु में मोर नाचते हैं, मेढक गीत गाते हैं। शरद् ऋतु जानकर खंजन पक्षी पुलक में होते हैं, पर वसंत के संवेदन की बात ही दूसरी है। वसंत सुख केवल आंख से देखने का ही मजा नहीं। तब गंध सुनाई पड़ती है, ध्वनियां भी दिखाई पड़ती हैं। वसंत जैसी अनुभूति विश्व की किसी संस्कृति में नहीं मिलती।
कालिदास महाकवि थे, उनका वसंत मोहक है, मन उद्दीपन की महा ऋतु है। तुलसीदास ने भी समूची प्रकृति को वसंत संवेदन के प्रभाव में बताया है, “जागे मनोभव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही, सीतल सुगंध सुमंद मारूत मदन अनल सखा सही।” यहां ‘मुएंहु मन’ ध्यान देने योग्य है, मुर्दों के मनोभाव भी जाग उठते हैं वसंत में, तुलसी की कवितावली में राम भी वसंत खेलते हैं। “खेलत वसंत राजाधिराज, देखत नभ कौतुक समाज, सोहें सखा अनुज रघुनाथ साथ, झोलिंह अबीर पिकारि साथ।” महाकवि निराला ठेठ अवध (उत्तर प्रदेश) के। वसंत ने उनको भी नहीं छोड़ा “वर्ण गंध धर मधु मरंद भर, तरू उर की अरूणिमा तरूणतर, खुली रूप-कलियों में पर भर, स्तर सुपरिसरा।” वसंत आता है तो आम्र कुंज ही नहीं महकते, केवल वन-उपवन ही गंध मादन नहीं बनते, वायु भी गीत गाते सनसनाते नाचते हुए बहती है। वसंती पवन भारतीय काव्य का उत्प्रेरण रही है। आखिरकार क्या हो जाता है? वायु देव को वसंत में, वे जिसे छूकर आगे बढ़ते हैं, वही मदमस्त हो जाता है। वे कलियों की चोली उड़ा ले जाते हैं, तरूणों को सहलाते हैं, तरूणियों को तब तक गुदगुदाते हैं, जब तक वे खिलखिलाकर पूरी खिल नहीं जाती। तरूण तो तरूण हैं, मनतरंग में झूमना उनकी स्वाभाविकता है, लेकिन बूढ़े बुजुर्ग भी वसंती पवन में मदमस्त हो जाते हैं। नदी, तालाब और खेत-ऊसर भी वसंत की मौज में होते हैं। हमारे गांव के पड़ोस से बहने वाली सई नदी भी आनंदमगन हो जाती है। उसके तट पर खड़े बनबबूल के पेड़ों पर गीत उगते हैं, पक्षी प्रेमगीत गाते हैं, गांए उछलती हैं, न शीत की जकड़न और न गर्मी की उमस और बेचैनी। वसंत का प्रभाव सब पर एक जैसा। बूढ़े मनुष्य ही नहीं बूढ़े वृक्ष भी फूलों से लद जाते हैं। वसंत सबको लहालोट कर रहा है। इसीलिए ऋतुराज है वह।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया ऋतुओं में मैं वसंत हूं, वसंत परिपूर्णता है प्रकृति की तरूणाई है। प्रकृति में तीन गुण हैं-सत्व, रज और तम। श्रीकृष्ण ने कहा कि “गुण ही गुणों के साथ खेल करते हैं। इस खेल में तटस्थ रहना चाहिए”, लेकिन वसंत तटस्थ नहीं रहने देता। तीनों गुण खुलकर खेलते हैं। योग, तप और ध्यान धरा रह जाता है। चार्ल्स डारविन प्रख्यात वैज्ञानिक थे, उन्होंने सभी जीवों पर प्रकृति के रूपों को देखकर उत्पन्न संवेदनों के प्रभाव का उल्लेख किया है “मैं यहां उस आनंद की बात कर रहा हूं जो कुछ रंगों, आकारों और ध्वनियों से पैदा होता है।” लिखा है कि “प्राणियों को भावोत्तेजन में आनंद आता है”, प्रकृति के रूप रंग सब पर प्रभाव डालते ही हैं, प्रकृति के संवेदन भारतीय ऋषियों ने ही सबसे पहले अनुभव किए थे। प्रकृति रूपवती है, रूप के संवेदन स्वाभाविक हैं, लेकिन ध्वनि का रूप नहीं होता, ध्वनि भी शास्त्रीय होकर रूपबिंब गढ़ती है। जान पड़ता है कि रूप अपने प्रभाव में अरूप होता हुआ भावों में उतरता है और ध्वनि अपने प्रभाव में रूपवती होकर प्रकृति बिंब गढ़ती है। भारतीय संगीत परंपरा में एक राग का नाम ‘वसंत’ है। वसंत राग मज़ेदार ध्वनि संयोजन है। वसंत राग का सृजन प्रकृति के प्रभाव में हुआ। सो इस राग-ध्वनि का प्रभाव हम सबको आनंद देता है। ध्वनि ही क्यों गंध के भी अपने प्रभाव हैं।
पृथ्वी सुगंध है, सो फूलों से सुगंध उड़ती है, मरूद्गण इस सुगंध को दशों दिशाओं तक पहुंचाते हैं, धरती आकाश गंध आपूरित होते हैं। तिक्त नीम अशोक हो जाती है और बेहया की पौध हो जाती है मौलश्री। तब गुलाब रातरानी जैसी सुगंध देने लगता है और रातरानी कमलगंध में हहराती प्रीति। महुआ से मदन रस झरता है। रस और गंध की वर्षा वह भी वसंत में। तब प्रकृति के सभी रूप रसवंत हो जाते हैं। नदियां नर्तन करती हैं, झीलें गीत गाती हैं, वनस्पतियां झूम उठती हैं, शरद् और ग्रीष्म गलबहियां डालकर मिलते हैं। पक्षी मस्त-मस्त गीत गाते हैं। वे ऋत बंधन में रहते हैं, लेकिन वसंत में शास्त्रीयता का कोई बंधन नहीं। यह वसंत दो दिन के लिए नहीं आता। पूरे तीन-चार माह तक विहंसता है, समूची प्रकृति को रस आपूरित करता है। प्रकृति का हरेक अंश उत्सव मनाता है। हरेक वृक्ष, हरेक फूल, कीट, पतिंग, पशु, पक्षी और मनुष्य मधु उत्सव में होता है। होली इन्हीं मधु उत्सवों का महोत्सव है।
वैदिक ऋषि प्रकृति और काल की हरेक युति में आनंद अनुभूति पाते थे। वैदिक पूर्वज सृजनशील थे। सृजनशीलता ही वैदिक ऋचांए कविताएं हैं। यहां मंत्रों के साथ संगीत और नृत्य भी है। रूप, रस, गंध, स्पर्श की अनुभूति से आनंद रस का अतिरेक छलकता है। ऋषि कवि अपने खेल में देवताओं को भी साझीदार बनाते हैं। वे मरूतों को उत्सव ‘क्रीडंति’ बताते हैं। सोम को घोड़े के समान खेलने वाला बताते हैं। सूर्य वैदिक देवता हैं, वे ऋतुएं विभाजित करते हैं। प्राचीनता और आधुनिकता अलग-अलग नहीं होती, वे पृथक दो इकाइयां नहीं हैं। प्रकृति सृष्टि का प्रवाह अविच्छिन्न है, जिसे हम प्राचीनता कहते हैं, वह और भी प्राचीन परंपरा का विकास है। इसी तरह आधुनिकता भी है। सौ बरस पहले जिसे आधुनिकता कहते थे, वह भी प्राचीन होती जा रही है। परंपरा एक सतत् प्रवाह है। परंपरा और उत्सव व्यक्तिगत नहीं होते, उन्हें काल विभाजन के अनुसार नहीं बांटा जा सकता।
सामूहिकता हरेक कालखंड में आनंददाई रही है। सामूहिक आनंद और उत्सव पर्यायवाची हैं। प्राचीन भारत का समाज सामूहिकता में आनंदित है इसलिए वसंत मधुउत्सव है, तब प्रतिपल मंगल गीत हैं, प्रतिपल मधुवर्षा है, लेकिन विदेशी सत्ता के प्रभाव में हम भारत के लोग सामूहिकता खोते गए। व्यक्तिगत के भीतर और भी व्यक्तिगत होते गए, सो वसंत जैसे आनंद उत्सव भी व्यक्तिगत हो रहे हैं। समाज की सामूहिकता पर बाज़ार का हमला है, अब बाज़ार तय करता है हमारे उत्सव की रूपरेखा। सो भारतीय समाज में विषाद है। वसंत आया है, खिला है, खिलखिला भी रहा है लेकिन हम सब प्रकृति और संस्कृति से अलग-थलग हैं।