Thursday 21 February 2013 08:49:09 AM
हृदयनारायण दीक्षित
भारत का धर्म कर्तव्यों की सूची है। संविधान में मौलिक अधिकारों की महत्ता है और धर्म में कर्तव्यों की। राजनीति के धुवांधार ‘धर्मनिरपेक्षी’ प्रचार के बावजूद धर्म, भारत के करोड़ों लोगों की आशा है। भारत का धर्म अंधविश्वास नहीं है। यह भारत के लोगों की जीवनशैली है, लेकिन राजनीति धर्मनिरपेक्ष होने की बाते करती है। राजनेताओं के कहने भर से कोई वृहत्तर समाज अपनी हजारों वर्ष प्राचीन जीवनशैली नहीं बदल सकता, फिर धर्मनिरपेक्ष शब्द प्रयोग भी ग़लत है। संविधान के प्रामाणिक अनुवाद में पंथनिरपेक्ष शब्द आया है। सेकुलर दृष्टिकोण भारतीय अवधारणा है ही नहीं। यह विचार यूरोप से भारत आया। यूरोप में चर्च और राज्यसत्ता का संघर्ष था। भौतिक कार्यों में चर्च का हस्तक्षेप वर्जित हुआ। यही सेकुलर अवधारणा है। भारत में ऐसा कोई विवाद नहीं था। भारत का धर्म प्राचीनकाल से ही पंथनिरपेक्ष है, यहां सभी आस्थाओं का आदर है। अथर्ववेद के ऋषि अथर्वा ने भूमि सूक्त में पृथ्वी की स्तुति की और पृथ्वी को अनेक धर्मों को आश्रय देने वाली बताया। भारत की सामाजिक बुराइयों को दूर करने का उपाय धर्म ही है। धर्म का दर्शन भाग एकात्म मानववादी है। भारतीय दर्शन समूची पृथ्वी और ब्रह्मांड को ‘एक’ मानता है। यही वेदांत का अंतिम तत्व अद्वैत है। यही भारतीय अध्यात्म है।
धर्म और रिलीजन एक नहीं हैं। धर्म और मजहब भी एक नहीं। रिलीजन और मजहब एक जैसे हैं। रिलीजन का प्रयोग बहुधा इसाईयत के लिए होता है। इसी तरह मजहब का अर्थ इस्लाम मजहब है। मजहब और रिलीजन में एक ईश्वर, एक देवदूत या पैगंबर और एक पवित्र आस्था ग्रंथ हैं। डॉ संपूर्णानंद ने बताया है-“प्रत्येक मजहब का अर्थ संप्रदाय से कुछ-कुछ निकलता है। अपने उपास्य और अपनी पूजा विधि पर अनन्य श्रद्धा है। उसको विश्वास है कि जो हमसे सहमत नहीं हैं, वह पतित हैं और पतितों का उद्धार शास्त्र से, समझाने-बुझाने से, न हो सके तो शस्त्र से, डंडे के जोर से भी किया जा सकता है। यहीं पर धर्म और मजहब का भेद स्पष्ट हो जाता है।”(समिधा, पृष्ठ 2, सूचना विभाग उप्र) उन्होंने आगे धर्म और रिलीजन, मजहब के बारे में बताया है-“ब्रह्मवादी वेदांती कर्मवादी मीमांसक, ईश्वरवादी, नैयायिक और अनीवश्वरवादी कपिल एक धर्म के भीतर रह सकते हैं, पर ख़ुदा या मुहम्मद से इंकार करने वाला व्यक्ति इस्लाम में जगह नहीं पा सकता और न ईश्वर, ईसा और दिव्यात्मा रूपी त्रिक को अस्वीकृत करने वाला व्यक्ति अपने को इसाई कह सकता है।” धर्म के अर्थ और सरोकार व्यापक हैं।
भारत में इस्लाम और इसाईयत के आगमन के बाद धर्म की तुलना इसाई रिलीजन या इस्लाम मजहब से होने लगी। दुनिया की किसी अन्य संस्कृति में ‘धर्म’ जैसा व्यापक आचार शास्त्र, बहुकोषीय आस्था आकाश और ईश्वर को भी खोजने जैसा दर्शन नहीं था। भारतीय संस्कृति की भाषा संस्कृत में रिलीजन या मजहब के लिए कोई शब्द नहीं था और न है। इसलिए हिंदू धर्म की तरह इस्लाम धर्म या इसाई धर्म शब्द चलन में आए। मजहब और रिलीजन ने अपने उद्भव काल से ही संगठित तंत्र बनाए थे। हिंदू धर्म के संचालन का कोई संगठित तंत्र नहीं था और न है। हिंदू धर्म लागू कराने की कोई आदेशात्मक सत्ता भी नहीं बनी। यहां कर्तव्य पालन के साथ-साथ परमतत्व की खोज और मुक्ति के स्वतंत्र प्रयासों की मुक्त छूट थी और है। धर्म के तत्वभाग वैज्ञानिक सत्य हैं और अपरिवर्तनीय हैं। कर्तव्य भाग परिवर्तनीय है। सामाजिक परिवर्तन के साथ कर्तव्य बदलते ही हैं।
धर्म अभ्युदय देता है। समाज को विराट लक्ष्य देता है। जीवन को सुखमय और मधुमय बनाता है। सोच विचार और अध्ययन को ऊर्ध्वमुखी बनाता है। पतन से रोकता है। इसलिए वह धर्मपालक और धर्मकारक को ही शक्ति नहीं देता, समाज को भी शक्ति संपंन बनाता है। यह आकाशचारी उड़ान के लिए पंख देता है। आंतरिक ‘शक्ति’ देता है। राष्ट्र अपने नागरिकों की शक्ति स्फूर्ति और तेजस्विता में ही उन्नति करते हैं। गीता, उपनिषद् और वेदांत शक्ति संपंन बनाते हैं। गीता आतताईयों के विरूद्ध युद्ध का आह्वान करती है। उपनिषदों में सभी अंगों को शक्तिशाली बनाने की स्तुतियां हैं। राष्ट्र का शक्ति संवर्द्धन ही धर्म का लक्ष्य है। धर्म उसका साधन। धर्म शक्ति का पवित्र स्रोत है, लेकिन धर्म के नाम पर होने वाले आडंबर नहीं। धर्म सत्य है। सत्य शक्तिशाली होता है, तभी तो हर लड़ाई में अंततः वही जीतता है। सत्य ऊर्जा का असली पावर हाउस है। निराला की विख्यात कविता है-राम की शक्तिपूजा। श्रीराम मर्यादा पुरूषोत्तम थे। धर्म पालक थे, लेकिन रावण से युद्ध था। रामकथा के अनुसार रावण ने शिव उपासना से तमाम शक्तियां अर्जित की थीं। निराला की अनुभूति में श्रीराम ने भी शक्ति उपासना की। शक्ति का उत्तर भक्ति नहीं होता। शक्ति का सामना शक्ति से ही होता है। विराट और आदर्श लक्ष्य के लिए शक्ति संचय धार्मिक कृत्य है। रोजमर्रा के कीर्तन या भजन से श्रद्धालुओं का मन भले ही प्रसन्न होता हो, लेकिन राष्ट्र को अजेय बनाने वाली शक्ति का संवर्द्धन नहीं होता।
भारत का बहुप्रचलित शब्द है-अध्यात्म। गीता में श्रीकृष्ण ने अध्यात्म की खूबसूरत सरल और सुबोध परिभाषा की, “स्वभावों अध्यात्म उच्यते-स्वभाव को अध्यात्म कहते हैं। हिंदू धर्म अपने सामाजिक सरोकारों में कर्तव्य पालन की आचार संहिता है, लेकिन साथ ही अपने अंतःकरण या स्वभाव के बोध का मार्ग भी है। अंतःकरण के बोध का ही दूसरा नाम अध्यात्म है। अंतःकरण का सम्यक और समग्र बोध ही वेदांत है। हमारा अंतःकरण समूची सृष्टि से जुड़ा हुआ है। इसका बोध होते ही हम व्यक्तिगत से समृष्टिगत हो जाते हैं। धर्म का मूल तत्व अनुभूतिजन्य है। अध्यात्म अंतर्यात्रा है और धर्म है-आदर्श सामाजिक आचार संहिता का बर्हिमुखी कर्म। यहूदी शाखा से विकसित सभी पंथ इस्लाम, इसाईयत बर्हिमुखी हैं। उनका जोर सामाजिक सरोकारों पर है। ईश्वर, गॉड या अल्लाह आस्था हैं। उन्हें खोजना नहीं है। उन्हें मानना ही सच्चा यहूदी, इसाई या मुसलमान होना है। भारत के धर्म में अंतर्यात्रा पर जोर है, वैदिक धर्म ब्रह्म/परमसत्ता की खोज का समर्थक है। ब्रह्म या परमसत्ता का बोध भीतर होता है। उपनिषद् कहते हैं कि एक बार बोध हो गया तो सब तरफ ब्रह्म ही सत्य दिखाई पड़ता है। सृष्टि का कण-कण ब्रह्ममय हो जाता है। ईर्ष्या, राग, द्वैष, क्रोध करें तो किस पर करें? कोई दूसरा है नहीं। सारे रूप और नाम एक ही अनाम, अरूप का विस्तार प्रतीत होते हैं। हिंदू धर्म शोधपूर्ण, बोधपूर्ण जीवनशैली है।
धर्म भारत की आत्मा है। धर्म आधारित कर्म में ही भारत का सर्वांगीण वैभव है। धार्मिकता भारत के राष्ट्रजीवन की मधुमयता है, लेकिन आधुनिकता प्रिय हिंदू स्वयं को धार्मिक बताने में संकोच करते हैं। राजनीति में हिंदू धर्म को साम्प्रदायिक बताने का फैशन है। सुशिक्षित हिंदू सांप्रदायिक कहे जाने से डरते हैं। हिंदू धर्म विश्व की एक मात्र पंथनिरपेक्ष जीवनशैली है। हिंदू को कुरान, बाइबिल सहित सभी आस्था ग्रन्थों का आदर करने की छूट है। हिंदू धर्म में परम विचार स्वातंत्रय है। इस धर्म का अंतिम लक्ष्य ही “सर्वधर्म परित्यजन्” है। गीता की समाप्ति पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था-“अब बोध गया तो सब धर्म छोड़ो।” धर्म उच्च्तम ऊर्ध्वमुखी होने का सोपान है। सीढ़ी है वह। जो उच्चतम तत्व तक पहुंच गए, उनके लिए धर्म का उपयोग नहीं रहा। तो भी वे धर्म का ही आचरण करते हैं। मानवता का विकास धर्म में ही संभव है। आमजन श्रेष्ठजनों के आचरण का अनुसरण करते हैं। हिंदू सभी पंथो, आस्थाओं, विचारों और मतो का आदर करते हैं। यही धार्मिकता है। यही हिंदुत्व विश्व को परिवार जानने वाली सत्य अनुभूति है। हिंदुत्व की अनुभूति हो जाना परम सौभाग्य है। सारी दुनिया को इसी अनुभूति की प्यास है।