आचार्य रामचंद्र शुक्ल
मेरे पिताजी फारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिन्दी-कविता के बड़े प्रेमी थे। आधुनिक हिन्दी-साहित्य में भारतेन्दुजी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। उन्हें वे कभी-कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली हमीरपुर जिले के राठ तहसील से मिरजापुर हुई तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी। उसके पहले ही से भारतेन्दु के सम्बन्ध में एक अपूर्व मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती थी। सत्य हरिश्चन्द्र नाटक के नायक राजा हरिश्चन्द्र और कवि हरिश्चन्द्र में मेरी बाल-बुद्धि कोई भेद नहीं कर पाती थी। मिरजापुर आने पर कुछ दिनों में सुनाई पड़ने लगा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के एक मित्र यहाँ रहते हैं, जो हिन्दी के प्रसिद्ध कवि हैं और जिनका नाम है उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी।
भारतेन्दु-मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी, यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की मंडली जोड़ी गई, जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे। वे अगुवा हुए। मील-डेढ़-मील का सफर तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत्त था। बीच-बीच में खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर बाद एक लड़के ने उंगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते-ही-देखते वह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झांकी थी।
ज्यों-ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिन्दी के नूतन साहित्य की ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। एक बार एक आदमी साथ करके मेरे पिताजी ने मुझे एक बारात में काशी भेजा। मैं उसी के साथ घूमता-फिरता चौखंभे की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से पं केदारनाथ पाठक निकलते दिखाई पड़े। पुस्तकालय में वे मुझे प्रायः देखा करते थे। इससे मुझे देखते ही वे वड़ीं खड़े हो गये। बात-ही-बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे, वह भारतेन्दुजी का घर था। मैं बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर, न जाने किन भावनाओं में लीन होकर देखता रहा।
सोलह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिन्दी-प्रेमियों की एक खासी मंडली मुझे मिल गई, जिनमें काशीप्रसाद जायसवाल, बाबू भगवानदास हालना, पं बदरीनाथ गौड़, पं उमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिन्दी के नये-पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। मैं भी अब अपने को लेखक मानने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिन्दी में हुआ करती, जिसमें ‘निःसंदेह’ इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील-मुख्तारों तथा कचहरी के अफसरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू-कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों का नाम ‘निःसंदेह लोग’ रख छोड़ा था।
चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज समझा करते थे। इस पुरातत्त्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब खासे हिन्दुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाच रंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कन्धों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा लड़का पान तश्तरी लिये पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की कांट-छांट का क्या कहना है! जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका ‘संवाद’ सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा. तो उनके मुँह से यही निकलता कि ‘कारे बचा त नाहीं।’ उनके प्रश्नों के पहले ‘क्यों साहब’ अक्सर लगा रहता था।
वे लोगों को प्रायः मज़ाक बनाया करते थे, इससे उनसे मिलने वाले लोग भी उन्हें मज़ाक बनाने की फिक्र में रहा करते थे। मीरजापुर में पुरानी परिपाटी के बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था—वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कवित्त जोड़ते चले जा रहे थे। अन्तिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाये खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, अन्तिम अंश था—‘खम्भा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाते की।’
एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे, कि इतने में एक पंडितजी आ पहुँचे। चौधरी साहब ने पूछा—‘कहिये, क्या हाल है?’ पण्डितजी बोले—‘कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।’ प्रश्न हुआ—‘जल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है।’
एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ—‘क्यों साहब, एक लफ्ज मैं अक्सर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आखिर घनचक्कर के क्या मानी है, उसके क्या लक्षण हैं?’ पड़ोसी महाशय बोले—‘वाह, यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले कागज-कलम लेकर सबेरे से रात तक जो-जो काम किये हों, सब लिख जाइये और पढ़ जाइये।’
[विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी के सद्यः प्रकाशित कथाशिल्पी प्रेमचंद द्वारा सम्पादित ‘हंस-आत्मकथा अंक (1932)’ से]