मु. अफसर खां सागर
हम फकीरों से जो चाहे दुआ ले जाए,
फिर खुदा जाने किधर हमको हवा ले जाए,
हम सरे राह लिए बैठे हैं चिंगारी,
जो भी चाहे चिरागों को जला ले जाए,
हम तो कुछ देने के काबिल ही कहां हैं लेकिन,
हां, कोई चाहे तो जीने की अदा ले जाए।
उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद का चकिया तहसील विंध्य पर्वत श्रृंखला से आच्छादित है। इसी तहसील में पहाड़ियों की गोद में बसा है भीषमपुर गांव, जहां रहते हैं भोजपुरी के तुलसीदास राम जियावन दास उर्फ बावला। भोजपुरी में काव्यन रचना करने वाले बावला पिछले साठ वर्षों से भोजपुरी में रचनारत हैं। रामजियावन दास बावला का जन्म 01 जून, 1922 ई. को चंदौली जनपद तब वाराणसी के चकिया तहसील के भीष्मतपुर गांव के एक अति सामान्य लौहकार परिवार में हुआ। पिता रामदेव विश्वशकर्मा जातीय व्यवसाय से जुड़े थे। माता सुदेश्वरी देवी घर का काम संभालती थीं। रामदेव के चार पुत्रों और दो पुत्रियों में बावला जी सबसे बड़े थे। परिवार में शिक्षा की कोई परंपरा नहीं थी, फिर भी बावला जी का नामांकन गांव के ही प्राथमिक पाठशाला में हुआ। इन्होंने दर्जा तीन तो पास कर लिया, मगर चार में फेल हो गए। कक्षा चार में फिर नाम लिखाया गया। नकल के सहारे इन्होंने दर्जा चार तो पास कर लिया, मगर इसके बाद पढ़ाई-लिखाई को सदा के लिए अलविदा करते हुए कहा कि संतन को कहां सीकरी सो काम। प्राथमिक शिक्षा के समय से ही इनका झुकाव कविता व संगीत की तरफ था। कहते हैं कि सोहबत का असर व्यक्ति पर पड़ता है। बावला जी के बड़े पिता रामस्वमरूप विश्वंकर्मा संगीत व रामायण के मर्मज्ञ थे। बावला जी ने पुश्तैंनी पेशे को भी बड़ी आसानी से अपनाया। वह स्वयं कहते हैं, हम बंसुला लेके बाबू जी के साथ चल देहीं आउर रंदा भी खूब मरले हुईं।
इसी बीच रामजियावन दास का विवाह मात्र 16 वर्ष की उम्र में मनराजी देवी के साथ संपन्न हुआ। अभी तक तो यह अकेले थे, मगर शादी के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियां भी लद गईं। घर की माली हालत ठीक न थी, सो भैंस पालने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। युवक रामजियावन सुबह भैंस लेकर जंगल की ओर मुखातिब हो जाते और घूमते-घूमते काफी दूर निकल जाते। यहीं धुसूरिय नामक स्थान पर बावला जी की मुलाकात स्थानीय कोल-भीलों और मुसहरों से हुई। रामभक्त रामजियावन का वनवासी राम से यही साक्षात्कार हुआ। खुद को कोल-भीलों की भूमिका में अनुभव करते हुए एक दिन अनायास ही मुख से बोल फूट पड़े-
बबुआ बोलता ना, के हो देहलस तोहके बनवास,
इ विधना जरठ मति अटपट कइलन रे,
किया कौनो भूल तीनों मूरती से भइल रे।
किया रे अभागा कौनो लागा बाधी कइलन,
बबुआ बोलता ना।
हम बनवासी बबुआ माना हमरी बतिया,
बावला समाज में बिताइला एक रतिया।
कंद, मूल, फल, जल सेवा में जुटैइबे,
बबुआ बोलता ना।
सेवा करिबै माना हमार बिसवास,
बबुआ बोलना ना।।
यहीं से राम पर आधारित गीतों की रचना शुरू हुई। बावला उपनाम के पीछे भी एक रोचक किस्सा है। शुरू में उन्होंने कुछ भजनों की रचना की थी, जिसके प्रकाशन के लिए वे गांव के ही एक मित्र के साथ वाराणसी आए। छह वर्णों का रामजियावन नाम बैठता ही नहीं था। प्रकाशक ने कोई छोटा नाम रखने की सलाह दी। वह रात भर मानसिक उहापोह में रहे। सुबह होने पर दशाश्वमेघ घाट पर स्नान करने गए। वहीं पर एक व्यक्ति से टकरा गए। उसने झल्ला कर रामजियावन को कुछ कहा। उसकी बुदबुदाहट में उन्हेंप बावला शब्द सुनाई दिया। तुरंत ही बावला उपनाम अपना लिया।
प्रथम बार रामजियावन बावला को सन् 1957-58 ई में कवि के रूप में आकाशवाणी वाराणसी में काव्य पाठ का अवसर प्राप्त हुआ। वहीं पर आकाशवाणी के हरिराम द्विवेदी ने इनके नाम के साथ दास शब्द जोड़ दिया, तब से यह रामजियावन दास बावला हो गए। इसी समय इन्हें भोजपुरी गौरव सम्मान से नवाजा गया।
बावला जी की रचनाओं में ग्रामीण समाज व किसान जीवन का अत्यंत जीवंत चित्रण मिलता है। गांव, समाज की दीन-दशा तथा सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी समस्याओं का इन्होंनने बड़ी सहता से चित्रण किया है। वे किसानों को दर्शाते हुए कहते हैं-
नाही भेद-भाव, न त केहु से दुराव बा,
सबसे लगाव बा, मनवा के चंगा।
खेत में किनई, सधुअई समान बा,
सपना के सोध में उधार बा नंगा।।
समाज के अंदर उत्पसन्नस बुराइयों का चित्रण करते हुए कहते हैं-
हाय रे समाज, आज लाज बा न लेहाज बा,
चोर, घुसखोर कुल बन जालन बांका।
घोर अन्याय बा कोर्ट में कचहरी में,
डहरी में लूट-पाट बम का धमाका।
गांधी जी का सपना कलपना बुझात बा,
खात बाये मेवा केहू करे फाका।।
बावला जी शिव उपासक हैं। अतः आपकी प्रारंभिक रचनाएं भक्तिपरक ही है। आप शिवजी की आराधना प्रतिदिन गीतों के माध्याम से करते हैं-
गांव का गंवार बस माटी का अधार बा,
सगरी अन्हार नाही पाई उजियारे के।
कलही समाज दगाबाज का दखल बा,
कल नाही बा बोझ भरत कपारे के।
छोट-छोट बात उतपात का
न कह जात न सह जात सुसुक-सुसुक बेसहारे के।
बाबा शिव शंकर भयंकर हो भूज देता
आवे जे उधार करे बावला बेचारे के।।
बावला जी भारतीय संस्कृपति व सभ्यकता के मूल्यों में आई गिरावट से काफी चिंतित हैं। राजनैतिक मूल्यों का गिरना और जातिगत राजनीति के ये प्रबल विरोधी है। परंपरागत सामाजिक संबंधों में आई कमी और ग्रामीण समाज की कमियों को दर्शाते हुए कहते हैं-
मानवता मरि रहल जहां पर, फिर भी देश महान।
वाह रे हिंदु।।
घूस लेत अधिकारी देखा। हर विभाग सरकारी देखा।
टोपी सूट सफारी देखा। जरै आग में नारी देखा।
साधु संत व्यापारी देखा। उल्टा बेट कुदारी देखा।
कहां ज्ञान विज्ञान। वाह रे हिंदुस्तान।।
बावला जी को तो वैसे अनेक सम्मासन मिले, मगर ग्रामीण परिवेश के लोगों द्वारा गाए जाने वाले इनके गीत सबसे बड़े सम्मान हैं। भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र में बावला जी का नाम अति आदरणीय है। भोजपुरी का सबसे बड़ा सम्मान सेतु सम्मारन से इन्हें सन् 2002 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल वीरेन्द्र शाह ने प्रदान किया।
इसके अलावा काशी रत्न्, जनकवि गौरव समेत अनेकों सम्मान मिले हैं। गीतलोक एकमात्र प्रकाशित पुस्तक है। आधुनिक चकाचौंध से बिल्कुल अछूते बावला जी उम्र के 86वें पड़ाव पार करने के बाद भी गांव की प्राकृतिक वादियों में भोजपुरी साहित्य को समृद्घ करते हुए हिंदी साहित्य को भी एक नया आयाम देने में प्रयासरत हैं।
प्रशासन से परेशान हैं भोजपुरी के तुलसीदास
भैंस चरवाहे से बावला... ये सब कैसे हुआ?
बचपन से ही गाने-बजाने का शौक था। बड़े पिताजी की अपनी मंडली थी और वे कीर्तन वगैरह गाते थे, कुछ उसका भी असर पड़ा। तुकबंदी तो मैं शुरू से ही करता था। बस यूं ही सिलसिला चल पड़ा।
आपकी पहली मुकम्मल रचना कब हुई?
बात सन् 1952 की है। मैं राजदरी की पहाड़ियों पर भैंस चरा रहा था, तो मेरी मुलाकात वहां के कोल-भीलों से हुई। उनमें मुझे राम, सीता और लक्ष्मंण के दर्शन हुए और अनायास ही मेरे मुख से बोल निकल पड़े कि कहवां से आवेला कवने ठहयां जइबा, बबुआ बोलता ना के हो देहलेस तोहके बनवास। कब गीत स्वेयं पूरा हुआ, मुझको इस बात का अहसास भी नहीं हुआ। तब से रोज ऐसा लगता कि कोई शक्तिर आती और मैं गीतों की रचना करता।
आप भोजपुरी समाज के लिए शेक्सापीयर के समान हैं और आपको भोजपुरी जगत का तुलसीदास कहा जाता है। फिर भी आप चमक-दमक से अछूते हैं। कैसा महसूस करते हैं?
बाबू गांव के निवासी हुई। गवईं समाज में मन रमेला। लोग तुलसीदास कहेलन अच्छार लगेला, मगर जवन सकून गांव में बा आउर कहां। चमक-दमक तो देखावा बा आउर हम देखावा ना पसंद करी ला।
ग्रामीण समाज में आई रिश्तों में खटास पर क्या सोचते हैं?
ग्रामीण समाज में जबसे अंग्रेजियत का पहनावा और दिखावा आया है, तब से परंपराओं में टूटन आई है। टी.वी. के जरिए परोसी जाने वाली अश्लीलता इसको चौपट कर रही है। संयुक्त परिवार का विखंडन भी हमारी भारतीय पंरपरा को चौपट कर रहा है।
समाज में नैतिक पतन के लिए कौन दोषी है?
ज्यों-ज्यों प्राचीन भारतीय संस्कृति का क्षरण हुआ है, त्यों-त्यों भारतीय समाज के मूल्यों और प्रतिमानों में गिरावट आई है।
भोजपुरी में परोसे जाने वाले अश्लीयल गीतों के बारे में आप की राय?
भोजपुरी जन-जन की भाषा है। गांव का किसान, मजदूर इसको बोलता है और इसमें अश्लीलता परोस कर ग्रामीण समाज के साथ घोर अन्याय किया जा रहा है। इससे भोजपुरी के साथ-साथ ग्रामीण भारत के नैतिक मूल्यों पर भी हमला हुआ है। अगर इसे रोका नहीं गया, तो भोजपुरी का नाश होते देर नहीं लगेगी।
भोजपुरी चैनलों के आ जाने से भोजपुरी का विकास संभव है?
भोजपुरी चैनलों का आना इस भाषा के लिए शुभ है, मगर यह देखना होगा कि भोजपुरी के नाम पर कहीं फूहड़पन तो नहीं परोसा जा रहा है। अगर ऐसा हुआ, तो इससे विकास के स्थान पर भोजपुरी भाषा का पतन हो जाएगा।
आपके लिखने का क्या उद्देश्य है और अभी क्याक लिख रहे हैं?
मेरे लिखने का केवल एक उद्देश्यो है कि समाज का कल्याण हो तथा भोजपुंरी का विकास हो और जन-जन की भाषा भोजपुरी सेतु का काम करे। अभी मैं आधा रामायण भोजपुरी में लिख चुका हूं, मगर कुछ पारिवारिक समस्याओं से इसे पूरा करने में कठिनाई हो रही है।
आप राष्ट्रीय सम्मान पाने के बावजूद उपेक्षित हैं इसकी क्या वजह है?
मैंने धन की चाह कभी नहीं की। ईश्वर ने जिस हालत में रखा है, उससे मैं संतुष्ट हूं। हां, कभी तकलीफ होती है, जब प्रशासनिक असहयोग होता है। अभी मैं भूमि संबंधित मामलों में परेशान हूं, जिसमें प्रशासन मेरा सहयोग न करके परेशान कर रहा है।
भोजपुरी के रचनाकारों को कुछ संदेश देना चाहेंगे?
मेरा भोजपुरी के लोगों से केवल एक ही निवेदन है कि वे कुछ ऐसा न करें, जिससे भोजपुरी भाषा की छवि धूमिल हो तथा समाज में गलत संदेश जाए।