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मीडिया, कुएं में घुली भांग

नरेश कुमार

नई दिल्ली। एक भारतीय टीवी चैनल पर एक दिन सवेरे-सवेरे ब्रेकिंग न्‍यूज प्रसारित हुई, जिसमें एड़ी से चोटी तक का जोर लगाते हुए एक एंकर कह रही है कि मुंबई हमले में जिंदा पकड़े गए आतंकवादी कसाब ने एफबीआई की पूछताछ में खुलासा किया है कि अमरीका की नीतियां गलत हैं, अफगानिस्‍तान और इराक में उसने ठीक नहीं किया है और अमरीका इस्‍लाम विरोधी है, जिस कारण वह बहुत उत्‍तेजित था। बमुश्‍किल चार जमात तक पढ़ पाया और उसके बाद चोरियां करने के अपराध में बार-बार जेल की हवा खाने वाले कसाब के इस कथन को एंकर ने ब्रेकिंग न्‍यूज़ बनाते हुए उसे कसाब का रहस्‍योद्घाटन बताया।

इस कथित रहस्‍योद्घाटन पर उसी वक्‍त और उसी चैनल पर किसी वक्‍ता की साधारण सी टिप्‍पणी के बावजूद, वह एंकर उसे चैनल की एक्‍सक्‍लूसिव रिपोर्ट बताने पर तुली हुई थी। उसने टिप्‍पणीकर्ता से पूछा कि कसाब के इस रहस्‍योद्घाटन का अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर क्‍या असर पड़ेगा तो टिप्‍पणीकर्ता ने बहुत समझदारी से एंकर के फूहड़ से सवाल पर कहा कि एक चोर, जो केवल ‌हथियारों से लैस होकर चोरियां करने के लिए, किसी हथियार के चलाने का प्रशिक्षण लेने चला गया हो और उसने हथियार का प्रशिक्षण लेने के साथ-साथ कट्टरपंथी विचारों को भी ग्रहण किया हो तो उसे तब भी एक चोर से अधिक सोचने का कोई मतलब नहीं है। चार जमात भी ठीक से पास न करने वाले इस चोर को अमरीकी नीतियों और उसके असर का क्‍या पता?

उसने तो पाकिस्‍तान में आतंकवादी शिविर में जो देखा समझा और सीखा था, वह यहां आकर केवल वही कर रहा था। वह यहां मारने और मरने के लिए आया था, मगर पकड़ लिया गया और जो ‌दिमाग में आ रहा है, या उससे जिस तरह के सवाल किए जा रहे हैं वैसा वह बोल रहा है। इसीलिए अमरीका की संघीय जांच एजेंसी को पूछताछ में दिए गए उसके ऐसे बयान का कोई महत्‍व नहीं है। मगर न्‍यूज़ चैनल की एंकर ने तो कसाब के इस बयान को ऐसे पेश किया कि जैसे उसने रहस्‍योद्घाटन किया है और वह उसकी सबसे बड़ी खबर दे रही है।

ऐसे ही एक दिन एक चैनल में हॉट शीट पर बैठे संवाददाता ने कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह से जबरदस्ती ये कहलवाने की कोशि की कि वे यह कह दें कि लोकसभा चुनाव बाद कांग्रेस सरकार बनाने के लिए बसपा से समर्थन ले सकती है। संवाददाता का सवाल था कि क्या चुनाव बाद क्या कांग्रस बसपा से समर्थन लेगी? संवाददाता के इस सवाल पर सामान्य रूप से कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह जवाब देते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। इस जवाब से अतिउत्साहित संवाददाता खुद ही बोल रहा है कि तो इसका मतलब चुनाव बाद ऐसा हो सकता है। दिग्विजय कहते हैं कि मैने कहा न कि राजनीति संभावनाओं का खेल है, बस इतना ही कहूंगा। इससे यह नही कहा जा सकता कि दिग्विजय सिंह ने बसपा का समर्थन लेने की बात कही है। मगर इस चैनल ने तुरंत बाद अपने यहां एक पट्टी चला दी कि 'मायावती से समर्थन लेगी कांग्रेस' दूसरी लाइन यह चलाई कि 'चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए बसपा से ले सकते हैं समर्थन'। इस चैनल ने अपनी बात को स्थापित करने के लिए अमर सिंह से भी प्रतिक्रिया ले ली और इसे सनसनीखेज बनाने की कोशिश की।
ऐसे अनगिनत दृष्‍टांत हैं। यह तो केवल एक गैर जिम्‍मेदार अनुभवहीन और विकृत पत्रकारिता का ज्‍वलंत उदाहरण है। गंभीर मामलों पर हल्‍कापन और ब्रेकिंग खबरों की मूर्ख बनाने वाली बेतुकी होड़। एंकर को शायद यह ध्‍यान नहीं रहा कि वह अपने घरवालों या दोस्‍तों के लिए लिए नहीं बल्‍कि कुछ और दर्शकों के लिए भी एंकरिंग कर रही है जो कि उस विषय पर उससे ज्‍यादा जानते हैं और जानकार हैं। इसलिए कसाब के रहस्‍योद्घाटन पर टिप्‍पणीकर्ता की समझदारी भरी प्रतिक्रिया से वह विषय ज्‍यादा तूल नहीं पकड़ पाया।

इसी प्रकार इसी चैनल पर एक कार्यक्रम में आए पूर्व क्रिकेटर और राजनेता नवजोत सिंह सिद्घू, कार्यक्रम के होस्‍ट के सवालों का उत्‍तर देते हुए समाचार की परिभाषा समझाते हुए कहते हैं कि यदि कुत्‍ता आदमी को काटे तो वह समाचार नहीं है और यदि आदमी कुत्‍ते को काट ले तो वह समाचार है। हालांकि समाचार की ऐसी घटिया परिभाषा अकेले सिद्घू साहब ही नहीं समझा रहे हैं, बल्‍कि पत्रकारिता जगत के स्‍वनाम धन्‍य भी पत्रकारिता के प्रशिक्षुओं को समाचार की यह परिभाषा बताया करते हैं। जहां समाचार की यह परिभाषा बताई जा रही हो तो वहां पत्रकारिता का भगवान भी मालिक नहीं होगा। इसलिए समाचार की इस परिभाषा पर अफसोस व्‍यक्‍त करने के अलावा कोई चारा नहीं है, क्‍योंकि सारे कुए में ही भांग मिली हुई है। क्‍या समाचार की परिभाषा आदमी के कुत्‍ते को काटने से निर्धारित होगी?

प्रश्‍न यह भी है कि सिद्घू जब समाचार की परिभाषा, आदमी के एक कुत्‍ते को काटने से जोड़ रहे थे तो होस्‍ट क्‍या कर रहे थे? जबकि उनसे उसी समय उम्‍मीद की जा रही थी कि वे सिद्घू साहब से कहें कि समाचार जैसे अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण और आग्‍नेयास्‍त्र जैसे प्रचंड विषय की परिभाषा को आदमी के कुत्‍ते को काटने से तो नहीं जोड़ना चाहिए। यह उसी प्रकार हुआ जैसे हिंदी वर्णमाला में काफी समय पहले तक बच्‍चों को ग से गधा पढ़ाया गया, मगर ग से गमला नहीं पढ़ाया गया। बहुत बाद में जाकर इसे प्राइमरी की पाठ्यपुस्‍तकों में सुधारा जा सका।
कहने का आशय यह है कि पत्रकारिता के प्रशिक्षण को बहुत ही हल्‍के में लिया जा रहा है। इसे ज्ञान, दक्षता और अनुभव से न जोड़कर ब्रेकिंग न्‍यूज़ से जोड़ दिया गया है, जबकि पत्रकारिता का पेशा और उसका प्रशिक्षण भी किसी अखिल भारतीय सेवाओं से कम नहीं माना जाना चाहिए। अब सब एक ही रास्‍ते पर चल पड़े हैं। इसे एक कहावत के रूप में कहते हैं कि कुएं में भांग मिल जाना। यानी यदि यह एक लोटे का पानी हुआ होता तो उसे फेंक दिया जाए मगर कुए का कितना पानी बदलेंगे क्‍योंकि भांग ही कुए में घुल गई है।

ये उदाहरण किसी को आहत करने के लिए नहीं हैं और ना ही केवल एक ही चैनल को कोई नसीहत दी जा रही है और ना ही केवल वही चैनल ऐसा करता आ रहा है जो उसके बारे में कुछ कहा जा रहा हो, बल्‍कि इसमें ज्‍यादातर शामिल हैं, वो भी जो प्रिंट मीडिया में काम कर रहे हैं। इनकी नजर में हर खबर ब्रेकिंग न्‍यूज बनती है और शाम तक वह खबर गायब भी हो जाती है।
पत्रकारिता में आई इस गिरावट का ही परिणाम है कि भारत सरकार, केबिल कानून में संशोधन करते हुए नया कानून लाने लगी जिसमें दो-तीन प्रावधान तो ऐसे हैं कि जिनमें पत्रकारिता के न केवल तेवर ही नष्‍ट हो जाते हैं, अपितु पत्रकारिता का मूल धर्म भी समाप्‍त हो जाता है। जानते हैं कि यह सब किसलिए हुआ? यह सब इसलिए हुआ और किसी एक के कारण नहीं बल्‍कि यह उनके कारण हो रहा है जो कि कसाब के बयान को ब्रेकिंग खबर के रूप में पेश कर रहे हैं और उसके बयान को कसाब का रहस्‍योद्घाटन बता रहे हैं।

कई उदाहरण ऐसे है जिनमें न्‍यूज चैनलों ने पत्रकारिता को तार-तार किया है और समाचारों के स्‍तर, उनके प्रस्‍तुतिकरण जैसे गंभीर विषयों पर गैर जिम्‍मेदाराना व्‍यवहार किया है। मुंबई हमले में सीधे प्रसारण का भारतीय सुरक्षा बलों को कितना नुकसान हुआ, क्‍या यह किसी टीवी चैनल ने आंकलन किया? एक समय जब कारगिल में पाकिस्‍तान से भारत का सशस्‍त्र संघर्ष हो रहा था तो वहां कवरेज के नाम पर गए कई टीवी पत्रकारों की फिल्‍में पाकिस्‍तानी खुफिया एजेंसियों के पास पहुंच रही थीं जिसके तुरंत बाद भारतीय सुरक्षा बलों पर पाकिस्‍तानी सशस्‍त्र बलों का सटीक हमला होता था जिसमें भारतीय सेना के जवानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे सामरिक ठिकानों के सीधे प्रसारण्‍ा का कोई मतलब नहीं है, क्‍योंकि मीडिया का काम नाहक ही दूसरों की जान जोखिम में डालने का नहीं है।
एक टीवी चैनल पर एक कार्यक्रम के प्रस्‍तोता तो इंटरव्‍यू देने वाले के पीछे ही पड़ जाते हैं और खुद ही सवाल कर खुद ही उसका जवाब भी तय कर लेते हैं। बाद में वक्‍ता से गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहते हैं कि अरे मान लीजिएगा यह बात सही है, और तुरंत ब्रेक पर जाकर उनका ऐड का टेप चालू हो जाता है। वक्‍ता ने क्‍या कहा या नहीं कहा इनके हिसाब से कहा मान लिया जाता है। यह उदाहरण एक वरिष्‍ठ पत्रकार से लिया गया है। इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि कुए में ही भांग मिली हुई है।
यदि निष्‍पक्ष राय ली जाए तो जनसामान्‍य, प्रेस की आजादी का पूरी तरह से पक्षधर तो है मगर वह ऐसी आजादी के खिलाफ है, जिसका मतलब कैमरे लेकर लोगों के घरों में घुस जाना हो। यह पत्रकारिता नहीं बल्‍कि यह सरासर जोर जबरदस्‍ती ही कही जाएगी, जिसे पत्रकारिता का दर्जा नहीं दिया जा सकता। जनसामान्‍य इसके बावजूद भी पत्रकारिता को किसी कानून से नियंत्रित करने के पक्ष में नहीं है, क्‍योंकि इससे सूचना के अधिकार एवं अभिव्‍यक्‍ति की आजादी ही बेमतलब हो जाएगी। यह केवल मीडिया जगत को तय करना है कि उसे किन सीमाओं तक जाना है। लेकिन ऐसी ब्रेकिंग खबरों से वह नाराज है, और उनसे भी जो निजता में दखल देकर या फर्जी ब्रेकिंग खबरों को परोसते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि उन्‍हें समाचारों की सत्‍यता के साथ-साथ उनके स्‍तर, प्रस्‍तुतिकरण और उस समाचार की उस वक्‍त जरूरत होने या न होने का भी ध्‍यान रखना है।

अगर इन बातों पर शुरू से ही ध्‍यान दिया गया होता तो कोई सरकार केवल कानून में संशोधन की बात कभी भी नहीं सोचती और ऐसे कानून को रोकने के लिए प्रधानमंत्री से मिलने न जाना पड़ता। यदि भविष्‍य में ऐसे कानून का विचार फिर से आता है तो निश्‍चित रूप में उसके पीछे मीडिया के ही गैर जिम्‍मेदार लोग होंगे। क्‍योंकि इनकी ब्रेकिंग खबरों का कोई स्‍तर नहीं रहा है, इनकी बे मौसम बरसात होती है और उसमें भी भेदभाव होता दिखाई देता है- जोर जबरदस्‍ती और मनमर्जी की बोलचाल प्रस्‍तुतिकरण एवं बेहूदे सवाल तो आम बात हो गई है।

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