Saturday 16 February 2013 06:28:03 AM
अवधेश कुमार
नई दिल्ली। दुनिया में भारत के अलावा शायद ही कोई देश होगा, जहां आतंकवाद के अपराध सिद्ध खूंखार व्यक्ति को फांसी देने की इस रुप में प्रतिक्रिया होगी। मृत्युदंड से असहमत लोगों की प्रतिक्रियाएं तो एक हद तक समझ में आ सकती हैं, मगर इसके बहाने कुछ समूहों की ओर से जो कुछ कहा जा रहा है उसके पीछे के दुर्भाव भी स्पष्ट रूप से प्रकट हो रहे हैं। अफजल गुरु की पत्नी या परिवार की पीड़ा कोई भी महसूस कर सकता है। चाहे कोई कितना घृणित अपराध करे, पत्नी के लिए वही पति, बच्चों के लिए वही पिता, माता-पिता के लिए वही पुत्र तथा भाइयों के लिए वही भाई होता है। मृत्यु की सूचना पर उनका शोक संतप्त होना एवं धार्मिक रस्म पूरी करने के लिए अफजल के शव की मांग भी स्वाभाविक है, किंतु जरा सोचिए, क्या एक आतंकवादी के समर्थन में छाती पीटने, बंद व प्रदर्शन करने का दृश्य हमें विचलित नहीं करता? अगर हम इन प्रतिक्रियाओं का वास्तविक निष्कर्ष निकालें तो निस्संदेह वह गहरी चिंता में डालने वाला ही होगा।
पहले कुछ प्रतिक्रियाएं देखिए, मानवाधिकार संगठन दो बातें कह रहे हैं, एक यह कि अफजल गुरू को न्यायालय में अपना बचाव करने का पूरा अवसर नहीं मिला, यानी वे उसे निर्दोष मानते हैं और दूसरा यह कि एक लोकतांत्रिक देश के रुप में भारत को ज्यादा उदार व्यवहार करना चाहिए था। अफजल गुरू से उसके परिवार को मिलने देना चाहिए था तथा उसका शव उन्हें सौंप देना चाहिए था। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी कह रहे हैं कि कम से कम उसके परिवार को अंतिम बार उससे मिलने देना चाहिए था। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक अपनी ससुराल इस्लामाबाद में थे और वहीं भूख हड़ताल पर बैठे, जिसमें जमात-उद-दावा का सरगना हाफिज सईद तक शामिल हुआ। हुर्रियत कांफ्रेंस ने कश्मीर में चार दिन का बंद घोषित किया हालॉकि सरकार ने हुर्रियत की बंद की घोषणा के पहले ही वहां शांति व्यवस्था के दृष्टि से एहतियातन कर्फ्यू लगा दिया था। अफजल गुरू को फांसी देने के विरोधियों की सुरक्षा बलों से झड़पें भी होती रहीं, तीन-चार लोगों के मरने की भी खबर है। दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी कुछ लोग बाजाब्ता पोस्टर लेकर फांसी पर विरोध जताने पहुंचे, जिनमें कुछ कश्मीरी युवक भी शामिल थे। कश्मीर में प्रतिक्रियाएं ऐसे हो रही हैं, मानो अफजल का कार्य पुरस्कार के लायक हो।
यह असाधारण स्थिति है। कश्मीर में विपक्षी दल पीडीपी यद्यपि खुलकर विरोध नहीं कर रही, पर उसके प्रवक्ता का यह कहना कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की पार्टी केंद्र सरकार की सहयोगी है, इसलिए फांसी की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते, पीडीपी की मंशा को स्पष्ट कर देता है। अंततः उमर अब्दुल्ला को भी फांसी पर निराशा प्रकट करने के लिए सामने आना पड़ा। उनका कहना है कि अफजल की फांसी कश्मीरियों के मनोविज्ञान पर असर डालेगी और लोग उससे अपने को जोड़ेंगे, यह अलग बात है कि भारत के बाकी हिस्सो में इन प्रतिक्रियाओं को राष्ट्र के साथ द्रोह के रूप में देखा जा रहा है। मानवाधिकार संगठनों के पहले आरोप का जवाब तो उच्चतम न्यायालय अपने फैसले में दे चुका है। न्यायालय ने 4 अगस्त 2005 को अफजल की अपील खारिज करते हुए कहा था कि संसद हमले की आपराधिक साजिश में उसकी संलिप्तता को लेकर किंचित भी संदेह की गुंजाइश नहीं है। वास्तव में संसद पर भीषण हमले में अफजल गुरू के खिलाफ पर्याप्त सबूत देखते हुए ही उच्चतम न्यायालय ने उसकी फांसी की सजा बरकरार रखी थी।
न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा था कि संसद पर हमले के दिन 10.43 बजे 11 बजे और 11.25 बजे आतंकवादी मोहम्मद ने अफजल से बातचीत में उसे बताया था कि वह अन्यों के साथ हमला करने जा रहा है। आतंकवादियों को दिल्ली के गांधी विहार व इंदिरा विहार में रहने का स्थान उपलब्ध कराने से लेकर विस्फोटक तैयार करने के लिए अफजल ने सामग्रियों का बंदोबस्त किया था। इसके अलावा और भी सबूत उसके खिलाफ थे जो इस हमले में उसकी संलिप्तता की पुष्टि करते हैं। राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए के 7 सितंबर 2001 को दिल्ली उच्च न्यायालय में विस्फोट के आरोप पत्र के अनुसार पकड़े गए 24 वर्षीय वसीम अकरम ने उसे बताया कि अफजल गुरु की फांसी को निरस्त कराने के लिए ये हमला किया गया था। उस समय राष्ट्रपति के पास गुरू की दया याचिका लंबित थी और ये मानता था कि इससे सरकार एवं न्यायालय दोनों दबाव में आ जाएंगे। वसीम अकरम के अनुसार वह अफजल गुरू के जेहादी विचारों से प्रभावित था, क्योंकि अफजल भी मेडिकल का छात्र था और वह भी। वस्तुतः अफजल गुरू के आतंकवादी गतिविधियों के पूरे नेटवर्क में संलिप्त होने को लेकर संदेह की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है।
वास्तव में मानवाधिकार संगठनों के बयान न्यायालय को ही कठघरे में खड़ा करने वाले हैं। वे यह क्यों भूल जाते हैं कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने ही प्रोफेसर एसएआर गिलानी को आरोप से मुक्त कर दिया, जबकि विशेष न्यायालय उन्हें फांसी की सजा दे चुका था? इसी तरह फांसी की सजा पाए अन्य दो अभियुक्तों शौकत हुसैन गुरु तथा उसकी पत्नी अफशान गुरु को भी राहत दी गई। अगर उनको अपनी सफाई का अवसर ही नहीं मिला तो वे कैसे फांसी से बच गए? जहां तक उदार व्यवहार का प्रश्न है तो माना जा सकता है कि फांसी देने के पूर्व सामान्यतःपरिवार को सूचना देनी चाहिए और अंतिम क्रिया के लिए शव भी सौंप दिया जाना चाहिए, लेकिन जब उसकी फांसी को ही ग़लत मानकर आक्रामक विरोध किया जा रहा हो तो इस प्रकार के मामलो में कोई सरकार और क्या करेगी? क्या ये मानवाधिकारवादी नहीं मानते कि कश्मीर में अलगाववादी और भारत विरोधी तत्वों के लिए अफजल का शव ही वहां हिंसा को और ज्यादा भड़काने का आधार बन जाएगा? उसमें फिर और कौन सी ताकतें शामिल होंगी? उसके बाद जिस तरह हालात बिगड़ते उसके लिए कौन जिम्मेदार होता?
किंतु ये प्रतिक्रियाएं आज नहीं हो रही हैं। अभियुक्तों-आरोपियों की गिरफ्तारी और मुकदमा आरंभ होने के साथ ही ऐसी प्रतिक्रियांए आने लगी थीं। सन् 2005 में उच्चतम न्यायालय के अफजल को फांसी की सजा बरकार रखने के बाद कश्मीर में इसे बड़ा मुद्दा बनाने की साजिश आरंभ हो गई थी। बीस अक्टूबर 2006 की तिथि फांसी के लिए निश्चित किए जाने की सूचना के बाद ही वहां विरोध प्रदर्शन चला। यासीन मलिक ने ऐलान कर दिया कि जिस तरह 1984 में मकबूल बट को तिहाड़ में फांसी देने के बाद जम्मू कश्मीर में आतंकवाद भड़का था, अफजल को फांसी देने के बाद फिर से वैसा ही हो जाएगा। मलिक कहते हैं कि वे किसी को मृत्युदंड दिए जाने के विरुद्ध हैं। मृत्युदंड किसी को दिया जाए या नहीं इस पर यकीनन बहस हो सकती है, लेकिन इस तरह की धमकी तो सीधे-सीधे देशद्रोह की श्रेणी में आएगी। केवल हमारे देश के कानून में ही नहीं, विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के पारित प्रस्ताव की ध्वनि भी यही है कि आतंकवाद, आतंकवादी गतिविधि या आतंकवादी की किसी तरह की मदद या उसका समर्थन भी उतना ही बड़ा अपराध है। इस नाते संसद पर हमले के अभियुक्त का समर्थन इन सबको आतंकवाद और आतंकवादी के समर्थन की श्रेणी में ले आता है। जब संसद पर हमला हुआ तो उसके खिलाफ इनके मुख से एक शब्द नहीं निकले। इसका अर्थ क्या है? इस समय जो मानवाधिकारी संगठन छाती पीट रहे हैं, उनमें संसद हमले की न आलोचना की न वहां मारे गए सुरक्षाकर्मियों को कभी श्रद्धांजलि दी।
इस प्रकार के आचरण पर देश की सुरक्षा को लेकर चिंतित किसी भी व्यक्ति का खून खौल जाएगा। ये क्या चाहते हैं कि आतंकवादी हमला करें और देश उनके साथ मेहमान की तरह व्यवहार करें? किसी आतंकवादी को कठोर सजा नहीं दिए जाने का परिणाम क्या होगा इसकी कल्पना ये करते हैं या नहीं? आतंकवादी हमला करते समय ये नहीं देखते कि कौन मानवाधिकारवादी है और कौन नहीं? आखिर 13 दिसंबर 2001 भारत के लिए उन भयावह शर्मनाक क्षणों में शामिल हो चुका है, जब आतंकवादी देश सारी सुरक्षा व्यवस्था को कुचलते हुए संसद का परिसर तक में घुस आए। कायदे से अफजल को सजा काफी पहले या कम से कम 20 अक्टूबर 2006 को तो मिल ही जानी चाहिए थी, लेकिन हमारी न्याय प्रणाली का तकाजा है कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। यह तो हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीतिक प्रणाली ऐसी है जहां उच्चतम न्यायालय की सजा तक के क्रियांवयन में इतना विलंब होता है। इससे आतंकवादियों का हौंसला बढ़ता है। वे मानने लगते हैं कि हमला करके भी वे बच सकते हैं। पहले आमिर अजमल कसाब और अब अफजल को फांसी पर चढ़ाए जाने से भारत की आतंकवाद के समक्ष एक नरम राज्य की छवि टूट रही है। विरोधी आतंकवाद व सुरक्षा को लेकर इस बदलती छवि को फिर से धक्का पहुंचा रहे हैं। ऐसे लोगों के साथ प्रशासन कानून की सीमाओं में तो कड़ाई से पेश आए, पर इनका समुचित जवाब आम नागरिक ही दे सकते हैं। आम नागरिक इनके समानांतर इनका प्रचंड विरोध करने के लिए खड़े हो जाएं तो इनका मुंह अपने-आप बंद हो जाएगा।