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दुर्लभ और बेमिसाल है रामपुर का रज़ा पुस्‍तकालय

एक से बढ़कर एक कला संग्रह के शौकीन‌ रहे हैं रामपुर के शासक

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Tuesday 02 July 2013 08:04:06 AM

rampur raza library

रामपुर। वाकई में दुर्लभ और बेमिसाल है रामपुर का रज़ा पुस्‍तकालय और एक से बढ़कर एक कला संग्रह के शौकीन‌ रहे हैं रामपुर के शासक। रामपुर रज़ा पुस्‍तकालय का निर्माण तत्‍कालीन रामपुर रियासत में नवाब फैज़ुल्‍लाह खान ने 1774 में किया था। यह पुस्‍तकालय भारत और इस्‍लामी शिक्षा तथा कला का खज़ाना है। नवाब फैज़ुल्‍लाह खान ने 1794 तक यहां पर शासन किया था और वंशागत बहुमूल्‍य पांडुलिपियां, ऐतिहासिक दस्‍तावेज़, मुगलों के लघु चित्र, किताबें और नवाबों के तोशखाने में पड़े कला संबंधी अन्‍य कार्य इसमें संग्रहित किए। उन्‍होंने खुद वस्‍तुएं खरीदकर इसमें संग्रहित कीं। नवाब मुहम्‍मद युसुफ अली खान 'नज़ीम' एक साहित्यिक व्‍यक्ति और उर्दू के मशहूर शायर थे तथा शायर मिर्जा गालिब के अनुयायी थे। उन्‍होंने पुस्‍तकालय का अलग विभाग बनाया और कोठी जनराली के नवनिर्मित कक्षों में उसे स्‍थानां‍तरित कर दिया। नवाब ने जाने-माने कश्‍मीर और भारत के अन्‍य हिस्‍सों ने सुलेखक, प्रकाश‍क और जिल्‍दसाज़ों को आमंत्रित किया। उनके बाद के नवाबों ने भी इस संग्रह को समृद्ध बनाया।
नवाब काल्‍बे अली खान (1865-87) एक प्रतिष्ठित विद्वान थे तथा अनूठी पांडुलिपियां, चित्र इक्‍ट्ठा करने में रूचि रखते थे और अनूठी पांडुलिपियों, चित्रों तथा अन्‍य कला सबंधी वस्‍तुओं को प्राप्‍त करने के लिए पारखियों को बुलाते थे। उन्‍होंने भी पुस्‍तकालय के संग्रहण में काफी योगदान दिया। नवाब हामिद अली खान (1889-1930) ने 1892 में किले में तोशखाना के निकट नए भवन में पुस्‍तकालय को स्‍थानां‍तरित कर दिया और वहां दुर्लभ पांडुलिपियां तथा अन्‍य पुरानी मुद्रित पुस्‍तकें रखी। आखिरी नवाब रज़ा अली खान (1930-1966) ने पुस्‍तकालय में अभूतपूर्व रूचि ली तथा भारतीय शास्‍त्रीय संगीत पर विभिन्‍न अनूठी पांडुलिपियां और पुस्‍तकें खरीदीं।
पुस्‍तकालय में अरबी, फारसी, संस्‍कृत, हिंदी, तमिल, पश्‍तों, उर्दू, तुर्की तथा अन्‍य भाषाओं की पांडुलिपियों का विशिष्‍ट संग्रहण है। इसमें मुगल, फारसी, राजपूत, अवध से संबंधित चित्र भी हैं। पुस्‍तकालय में 17,000 पांडुलिपियां, 60,000 मुद्रित पुस्‍तकें करीब 5,000 छोटे चित्र, इस्‍लामिक हस्‍तलिपि के 3000 असाधारण प्रतिरूप, नवाबों के समय की वस्‍तुओं के अतिरिक्‍त सदियों पुराने खगोलीय उपकरण और 5वीं शताब्‍दी ईसापूर्व से 19वीं शताब्‍दी ईस्‍वी के करीब 1500 बहुमूल्‍य सोने, चांदी और तांबे के सिक्‍के संरक्षित हैं। पुस्‍तकालय में मुगलों की तथा पुरानी असाधारण वस्‍तुएं भी मौजूद हैं। पुस्‍तकालय में ताड़ के पत्‍ते पर तमिल, तेलगु, कन्‍नड़ और मलयालम भाषाओं में लिखी पांडुलिपियां भी संग्रहित हैं।
पुस्तकालय का व्यवहारिक तौर पर 12 सदस्यों वाला रामपुर रज़ा पुस्तकालय बोर्ड प्रबंधित करता है, जिसके अध्यक्ष उत्तरप्रदेश के राज्यपाल हैं। रामपुर रज़ा पुस्तकालय में दुर्लभ पांडुलिपियां और 14वीं से 19वीं शताब्दी के बीच की तुर्क-मंगोली, फारसी, मुगल, राजपूत, राजस्थानी, किशनगढ़, पहाड़ी, कांगड़ी, दक्कनी, अवधी और ब्रिटिश शैली की 5000 लघु कलाकृतियों का संकलन मौजूद है। यहां मौजूद दुर्लभ सचित्र पांडुलिपियों में से रशीद्दुदीन-फजुल्लाह कृत जमिउत-त्वारिख की पांडुलिपि वृहत आकार की है, जो कि अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान, वैज्ञानिक और चिकित्सक तथा मध्य एशिया के गज़ा खान के प्रधानमंत्री थे। यह पुस्तक 710 हिजरी (1310 ईस्वी) में संकलित की गई। इसमें मंगोल जनजाति की जिंदगी और समय को दर्शाते 84 चित्र हैं।
इसके अलावा 1430 ईस्वी में फिरदौसी रचित शाहनामा भी महत्वपूर्ण सचित्र पांडुलिपि है, जिसमें 52 चित्र हैं। इसके अलावा निजामी गांजवी रचित मनस्वी लैला मजनू भी दुर्लभ सचित्र पांडुलिपि का उदाहरण है, जिसे 949 हिजरी (1542-43 ईस्वी) में खूबसूरत नस्तालिक लिपि में उकेरा गया है। इसके अलावा हिजरी 977 (1569-70 ईस्वी) में नस्तालिक शब्दों में जमालुद्दीन-कतिब शिराजी रचित अबदुर रहमान जामी की सचित्रपांडुलिपि भी उल्लेखनीय है। दुर्लभ और बहुमूल्य सचित्र पांडुलिपियों में दीवान-ए-हफीज विशेष उल्लेखनीय है, जिसे अकबर के दौर में 1570-8- ईस्वी में उकेरा गया होगा, दरबार के प्रसिद्ध चित्रकारों ने इसमें चित्रकारी की है। इसे खूबसूरत नस्तालिक लिपि में गढ़ा गया है और इसमें ग्यारह लघु चित्र हैं, जो ये दृश्य प्रतिबिंबित करते हैं-(1) कान्हा द्वारा चित्रित बादशाह का चित्र, जिसमें उन्होंने दीवान-ए-हफीज में दरबार लगा रखा है (2) दैवीय संगीत में मग्न कखानका में दरविशेश समा (3) सानवाला द्वारा चित्रित पहाड़ी घाटी में एक राजकुमार का दृश्य, फरूख चेला द्वारा चित्रित एक युवक की तस्वीर, जिसमें वह उद्यान में संगीतज्ञ से संगीत सुन रहा है। (5) फारूख बेग द्वारा चित्रित एक राजकुमार, जिसमें वह विद्वानों से बातचीत कर रहा है और एक वृद्ध व्यक्ति जो जानवरों का झुंड देख रहा है, नरसिंग द्वारा चित्रित एक रोचक दृश्य में तुर्की के हमम और एक राजकुमार को मदिरापान करते हुए दिखाया गया है, जिससे सोलहवीं ईस्वी के जीवन के बारे में पता चलता है।
प्रारंभिक 16वीं शताब्दी ईस्वी में सुल्तान मुहम्मद-बिन-नुरूल्लाह फारसी नास्तालिक लिपि में उकेरी अबुल माली नसरुल्लाह द्वारा कलिला-वा-दिमना की सचित्र पांडुलिपि भी महत्वपूर्ण है। यह पांडुलिपि भारतीय लोकमानस में प्रचलित पंचतंत्र का फारसी अनुवाद है, जिसमें कहानी बताने के लिए खूबसूरत चित्रों का इस्तेमाल किया गया है। इसे भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने विश्व विरासत पांडुलिपियों में से एक के रूप में चुना है। इसके अलावा तिलिस्म के नाम से लोकप्रिय बादशाह अकबर (1575-1580 ईस्वी) के 157 चित्रों का दुर्लभ संग्रह भी मौजूद है, जिसे फतेहपुर में अकबर के समय में विख्यात चित्रकारों ने तैयार किया है। ये चित्र 16वीं शताब्दी ईस्वी में भारतीयों के विश्वासों और मान्यताओं को प्रदर्शित करते हैं। रामपुर रज़ा पुस्तकालय में संजोई गई यह चित्राकृतियां किसान से लेकर व्यापारी, विद्वानों, संगीतज्ञों और लोगों के ऊपर जादू-टोने जैसे विश्वासों के प्रभाव तक को प्रतिबिंबित करती हैं। चित्रकारों ने इन चित्राकियों में जादुई अथवा वशीकरण तथा अलौकिक वस्तुओं संबंधी मान्यताओं को बेहद ध्यान से रेखांकित किया है। हालांकि इन चित्रकारों ने इन चित्राकृतियों पर अपना नाम नहीं लिखा है, लेकिन उनकी शैली से उनके काम की पहचान की जा सकती है। समझा जाता है कि यह चित्रकारी ज्‍यादातर हिंदू चित्रकारों की है, जिन्‍हें मुस्‍लिम शासकों के यहां अपना नाम और पहचान बताने की आज़ादी नहीं थी। आज केवल उनकी ‌चित्रकारी को उनकी शैली से पहचाना जा सकता है।
अकबर के शक्तिशाली व्यक्तित्व को एक विशाल चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है जिसमें उसके जन्म के राशि चिन्ह (बुर्ज-ए-असद) अथवा सिंह को दिखाया गया है, इस चित्र में बादशाह को शेरों, बाघों, चीतों और इस प्रजाति के अन्य जानवरों में सबसे ऊपर दिखाया गया है। सूर्य (ऊर्जा का स्रोत) उसके सिर के ऊपर चमकता हुआ दिखाया गया है। अकबर के एलबम की यह सबसे प्रभावशाली चित्राकृति हैं। इसके अलावा कुल सात राशि चिन्हों और छोटे कीटों, सांपों, मानव ढांचें के बड़े चित्रों को दर्शाती चित्राकृतियां भी हैं, जिनमें उस समय की शैली और वनस्पति तथा जीव जंतुओं के विभिन्न समूहों को प्रदर्शित किया गया है। जादू, वशीकरण या अलौकिक शक्तियां कोई नई चीज नहीं हैं, लेकिन मानवता के विकास से ही इनकी मौजूदगी अनुभव की जाती रही है। न केवल आम आदमी बल्कि सम्राट, उमरा और वज़ीरों आदि ने भी इनमें विश्‍वास किया है। धार्मिक आवेग लोगों के सामाजिक जीवन को प्रेरित करने वाले कारक नहीं थे। शासकों ने हमेशा शुभ-संकेतों और अच्‍छे-बुरे शगुनों में विश्‍वास व्यक्त किया है। मध्‍य-युगीन लोग छींकने को शुभ संकेत मानते थे। लोगों ने शुभ और अशुभ दिनों में भी विश्वास जाहिर किया है।
ज्योतिष की न केवल हिंदुओं पर बल्कि मुसलमानों पर भी महत्वपूर्ण पकड़ रही है। वास्तव में एशिया और यूरोप के सभी वर्गों के लोगों पर भी इसका गहरा प्रभाव रहा है। शहर के हर भाग में ज्योतिष मौजूद थे, जो लोगों की जन्मकुंडली बनाते थे। लोग चोरी हो गई वस्तुओं को वापस पाने के लिए जादूगरों की सहायता लेते थे। वे अपने विरोधियों को नुकसान पहुंचाने के लिए भी जादुई और सम्मोहक शक्तियों का प्रयोग करते थे। चित्रकारों ने दिलचस्प विषयों का प्रयोग करते हुए पुरुषों, महिलाओं और जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के चित्र बनाए हैं और उनमें उनके व्यक्तित्व, वेशभूषा, आभूषण, चेहरे के हाव-भावों और नयन-नक्श आदि का जीवंत चित्रण है। चित्रों में सुंदर पृष्ठभूमि, विशेष रूप से प्राकृतिक पृष्ठभूमियों का बहुत आकर्षक चित्रण किया गया है। फर्नीचर, कालीन, दरवाज़ों, खिड़कियों आदि के जटिल डिज़ाइनों और सजावटी शैली का शानदार ढंग से चित्रण किया गया है। विभिन्न राशि चिन्हों को भी बुद्धिमानी से चित्रित किया गया है।
अकबर को भारत में उदारवाद का प्रतीक माना गया है। वह बहुत जिज्ञासु थे। उन्होंने समाज में हिंदू, मुसलिम मान्यताओं और रीति-रिवाजों से संबंधित नवीन प्रयोगों को जन्म दिया। उनकी ज्योतिष, राशियों तथा जादुई, सम्मोहक और अलौकिक शक्तियों में गहरी आस्था थी। इससे उनके समय के कलाकारों को इन विषयों का चित्रण करने के लिए प्रोत्साहन मिला। उपलब्ध अनेक सचित्र पांडुलिपियों में मुगल-काल की संख्या अच्छी खासी है, जिनका गहन अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए गुलशन-इ-सादी, दीवान-इ-उर्फी शिराजी और मजलिसुल-उश्शाक-जिनमें खानकाह और सूफियों की वास्तुकला को दर्शाया गया है। मुगल चित्रों के 32 एलबम हैं, जिनमें 16वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान भारतीय जीवन के सामाजिक, आर्थिक पहलुओं पर बहुमूल्य सामग्री मौजूद है। सुमेर चंद द्वारा 1715 ईस्‍वीं में मुगल शासक फर्रुखसियर के शासनकाल में संस्कृत से फारसी में अनूदित वाल्मीकि रामायण की सचित्र पांडुलिपि बहुत दिलचस्प है। इसमें 258 चित्र हैं और इसे संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार ने विश्व विरासत पांडुलिपि के रूप में चुना है।
अभी तक पुस्तकालय ने इस संग्रह की अनेक पांडुलिपियों का संपादन, अनुवाद और प्रकाशन किया है। वाल्मीकि रामायण की 1715 ईस्‍वीं की फारसी में पांडुलिपि है। इस पुस्तकालय के वर्तमान निदेशक प्रोफेसर एसएन अजीजुद्दीन हुसैन ने वाल्मीकि रामायण को हर किसी के लिए सुलभ और पहुंच योग्य बनाने के लिए इसके अनुवाद को जारी करने के लिए गंभीर प्रयास किए हैं। भारत की संस्कृति मंत्री चंद्रेश कुमारी कटोच ने 26 जून 2013 को इस पुस्तकालय का भ्रमण किया और उसमें पांडुलिपियों का संपादन, अनुवाद और प्रकाशन देखकर भारी प्रसन्‍नता व्‍यक्‍त की।

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