हेम पंत
उत्तराखंड में ढहते मकान और जंङ लगे ताले।जी हां! सदियों से पहाड़ की यही कहानी और यही सच्चाई भी है। ये कहानी है-पलायन की। अपने विकास और खूबसूरत दुनियां को देखने की चाहत के ये विभिन्न अनचाहे रूप हैं। एक मकान केवल इसलिए खंडहर में बदला क्योंकि उसे संवारने के लिए घर में पैसा नहीं था और एक मकान में ताले पर इसलिए जंङ लगा है कि वहां से अपनी प्रगति की इच्छा लिए पलायन हो चुका है। इनमें कोई इसलिए अपने पुश्तैनी घर नहीं लौटे क्योंकि वे बहुत आगे निकल चुके हैं और सब कुछ तो यहां खंडहरों में बदल चुका है। इनमें कई तालों और खंडहरों का संबंध तो राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिकों, सेनापति, नौकरशाहों, लेखकों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और लोक कलाकारों का इतिहास बयान करता है जबकि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखंड की गरीबी-भुखमरी, बेरोजगारी-लाचारी और प्राकृतिक आपदाओं की कहानी कहते हैं।
पलायन और पहाड़ का संबंध कोई नया नही है। सदियों से लोग देश के विभन्न भागों से बूर शासकों के दमन सेबचने अथवा तीर्थयात्रा के उद्देश्य से पहाड़ों की तरफ आये, और यहीं के होकर रह गये। इनमें मुख्यतः दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के ब्राह्मण और राजस्थान के ठाकुर थे जिन्होने तत्कालीन राजाओं ने योग्यतानुसार उचित सम्मान दिया और अपनी राज व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बनाया।
वतर्मान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढते बोझ, कमरतोड़ मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन और कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ा। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में पहाड़ों में अंग्रेजों के आने के बाद इस क्षेत्र के युवाओं का सैन्य सेवाओं के लिए पहाड़ से बाहर निकलना प्रारंभ हुआ। पहाड़ों का जटिल जीवन, कठिन भौगोलिक परिस्थितयों में रहने का अभ्यास, मजबूत कद-काठी, सीधे सरल, ईमानदार व शौर्यवीर पहाड़ी पुरुष अपनी कायर्कुशलता व अदम्य साहस के कारण देश-विदेश में युद्धक्षेत्र में अपना लोहा मनवाने लगे।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में शिक्षा के प्रति जागरुकता के फलस्वरूप युवाओं का उच्च शिक्षा के लिए मैदानी क्षेत्रों की तरफ आना प्रारंभ हुआ। यही समय था जब पहाड़ से बाहर सैन्य सेवाओं के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी रोजगार करने लगे. कई लोगों ने साहित्य, कला व राजनीति में अच्छा नाम कमाया। स्वतन्त्रता के बाद पहाड़ों में धीरे-धीरे कुछ विकास हुआ। शहरों-कस्बों में धीरे-धीरे उच्च शिक्षा के केन्द्र विकसित हुए। ग्रामीण, इलाकों में शिक्षा के प्रति लोगों का रूझान बढने लगा। पिछले कुछ सालों में तकनीकी शिक्षा शिक्षण के भी कुछ संस्थान खुले। उद्योगो की शून्यता और सरकारी नौकरियों की घटती संख्या के कारण वतर्मान समय में भी पहाड़ में शिक्षित युवाओं के पास मैदानों की तरफ आने के अलावा कोई विकल्प नही है।
पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन। मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं।स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है। जो गांव शहरों से 4-5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं। सांकल और कुंडों पर पड़े हुए ताले जंङ खा रहे हैं और अपने बाशिन्दों के इंतजार में खंडहर बनते जा रहे दर्जनों घरों वाले सैकडों मकान, पहाड़ के हर इलाके में हैं। द्वार-किवाड, चाख और आंगन के पटाल जर्जर हो चुके हैं। काली पाथरों (स्लेटों) से बनी पाख (छत) धराशायी हो चुकी हैं।
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकिसत करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गयी है। जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिलेगा। क्या उत्तराखंड की सरकार पहाड़ों के पारंपरिक उद्योगों के पुनरुत्थान के लिए भी प्रयास करेगी? पयर्टन उद्योग और गैरसरकारी संस्थानों के द्वारा सरकार पहाड़ों के विकास के लिए योजनाएं चला रही है, उससे पहाडी लोगों को कम मैदान के पूंजीपतियों को ही ज्यादा लाभ मिल रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर जिस "ब्रैन ड्रैन" को रोकने के लिए सरकार हाथ पांव मार रही है, जरूरत है कि उत्तराखंड की सरकार भी देश और विदेशों में काम कर रहे प्रतिभावान लोगों को उत्तराखंड के विकास से जोडने की पहल करे. लेकिन हम लोग जो वातानुकूलित कमरों में बैठ कर लैपटॉप-कंप्यूटर में इंटरनेट पर ये लेख पढ़ रहे हैं, क्या पहाड़ वापस जाने की सोच सकते हैं? या केवल सरकार को कोस कर और इस मुद्दे पर बयानबाजी करके ही इस समस्या का पुख्ता समाधान मिल जायेगा?