डॉ एमएल गुप्ता 'आदित्य'
Tuesday 22 October 2013 08:26:05 AM
शायद हिंदी के विद्वानों, लेखकों व साहित्यकारों को मेरी बात गले न उतरे, लेकिन मुझे लगता है कि इस दौर में हिंदी भाषा के प्रसार और उसके विकास में विश्वविद्यालयों, अकादमियों, हिंदी साहित्य, हिंदी पत्रकारिता और यहां तक कि हिंदी सिनेमा से भी ज्यादा योगदान छोटे पर्दे का है। यहां भी मै विशेषकर दो व्यक्तियों की उल्लेखनीय और अहम् भूमिका की चर्चा करना चाहूंगा। इनमें एक हैं ‘सदी के महानायक’ अमिताभ बच्चन, जो दशकों से अपनी आवाज़ और अंदाज से हिंदी को आगे बढ़ाते आए हैं, हालांकि फिल्मों में उनकी भाषा अदायगी तक सीमित थी, भाषा उनकी नहीं संवाद लेखकों की थी, लेकिन ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के जरिए उन्होंने अपने दम पर हिंदी को एक नई शक्ति दी है। उसे लोकप्रिय बनाया है और बना रहे हैं। उनकी हिंदी की ही शक्ति थी कि ’करोड़पति’ की कुर्सी पर उनकी जगह जो कोई आया, टिक नहीं पाया। महानायक अमिताभ बच्चन जिस तरह की हिंदी का प्रयोग करते हैं, वह प्रभावी होने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व व कार्यक्रम के अनुकूल गरिमामय है।
हिंदी के प्रसार, विकास और उसे लोकप्रिय बनाने का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कार्य जाने-अनजाने अगर आज कोई व्यक्ति कर रहा है तो वह है एक खिलाड़ी, जो एक सांसद भी है, और एक ऐसा कलाकार, जो कलाकार तो नहीं पर किसी कलाकार से कम भी नहीं है, ऐसा जिंदा-दिल कि जिसे कोई ग़म नहीं और ये हैं-‘जनाब नवजोत सिंह सिद्धू’। इनकी मातृभाषा है-पंजाबी। अंग्रेजी के भी अच्छे जानकार हैं, लेकिन इनका हिंदी-प्रेम लाजवाब है, हालांकि हिंदी के साहित्यकारों और विद्वानों से तुलना करके उनके योगदान को महत्व देने के अपने खतरे भी हैं। इसकी स्वीकार्यता भी थोड़ी कठिन है, चूंकि जिन्हें स्वीकार करना है, तुलना तो उन्हीं से है पर जोखिम तो लेना ही पड़ेगा। हालांकि यहां बात साहित्यिक या परिष्कृत हिंदी की नहीं, जनमानस की हिंदी की है और बात जब जनमानस की हिंदी की करनी है तो यह भी उचित होगा कि मेरी भाषा भी कुछ वैसी ही सरल हो।
एक मनोरंजनकर्ता के रुप में एक कमेंट्रेटर के रुप में और एक राजनेता के रूप में अपने भाषणों से नवजोत सिंह सिद्धू हिंदी के विकास की एक नई कहानी गढ़ते दिखते हैं। अपनी हिंदी में वे न केवल हिंदी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं की लोकोक्तियों व नए-पुराने मुहावरों का प्रयोग करते हैं, बल्कि कई नए मुहावरे गढ़ कर भी भाषा में गतिशीलता लाते हैं। वे हिंदी का परंपरागत ही नहीं, बल्कि नए धरातलों पर भी बेहतरीन प्रयोग करते हैं। परंपरागत शैली से हटकर वे अपनी विशेष शैली में नए रोचक प्रयोग करते दिखाई पड़ते हैं। उनकी हिंदी में हिंदी के तत्सम और तद्भव शब्दों के साथ-साथ उर्दू और क्षेत्रीय भाषाओं के और कहीं-कहीं, हिंदी में रच-बस चुके अंग्रेजी शब्दों का अनूठा समागम है, जो भाषा को निरंतर संपन्नता प्रदान करता है। किसी भाषा का प्रवाह, उसकी रवानगी और अभिव्यक्ति-क्षमता ही उसे संपन्न बनाती है और सिद्धू की हिंदी में ये तमाम खूबियां हैं, जो उनकी हिंदी को अलग एक नई पहचान देती हैं, शायद यही है जनमानस की हिंदी।
हिंदी में कमेंट्री के माध्यम से हिंदी को लोकप्रिय बनाने का जो काम एक समय एक सरदार जसदेव सिंह ने किया था, कुछ वैसा ही काम आज की पीढ़ी के दूसरे सरदार यानि नवजोत सिंह सिद्धू कर रहे हैं और वह भी प्रतिकूल वातावरण में। अनेक कार्यक्रमों में उनके जुमले पहले से ही खासे लोकप्रिय रहे हैं और अब क्रिकेट की उनकी कमेंट्री हिंदी के विकास को एक नई दिशा देने के साथ-साथ लोकप्रियता भी प्रदान कर रही है। दो नमूने पेश हैं-‘बनी तो बनी, नहीं तो अब्दुल गनी’, ‘बॉल को इतना ऊंचा मारा है कि एयर होस्टस छू सकती है।’ यहां परंपरागत ‘गगनचुंबी’ या ‘आसमान छूती हुई बॉल’ का प्रयोग नहीं है। उनकी भाषा में ऐसे न जाने कितने ही प्रयोग हैं, जो परंपरागत प्रयोगों से हटकर और एकदम भिन्न हैं। हर पल उनकी वाणी से निकलकर नए-नए शब्द व प्रयोग हिंदी के विकास को एक नई दिशा दे रहे हैं। इनमें कुछ नयापन है, कुछ ताज़गी है।
नवजोत सिंह सिद्धू की हिंदी उबाऊ नहीं रंगजमाऊ है और सबसे बड़ी बात यह कि मनभाऊ है। पिछले कुछ समय से ज्यादातर चैनल क्रिकेट की कमेंट्री हिंदी के बजाए अंग्रेजी में देने लगे थे, ऐसे में स्टार क्रिकेट ने देश की नब्ज़ को पकड़ा और समझा और हिंदी में कमेंट्री देनी शुरू की तो हिंदी की नवजोत जल उठी। सिद्धू की क्रिकेट की हिंदी कमेंट्री छोड़कर अब कौन अंग्रेजी की कमेंट्री सुनना चाहेगा?
हिंदी के अख़बार और चैनल, जिन पर यह जिम्मेदारी है कि वे हिंदी की शैली-शब्दावली और प्रयोग में नवीनता का ईंधन डालकर इसे आगे लेकर जाएं, आज उनमें से ज्यादातर अंग्रेजी से आक्रांत दिखाई दे रहे हैं। कुछ तो उसके बोझ से दबे और नतमस्तक दिखाई देते हैं। ऐसे में यदि एक सिद्धस्थ और सशक्त प्रयोक्ता की शक्ति से हिंदी नव जोत जलाते हुए कुलाचें भर रही है तो आलोचकों व समीक्षकों को उस पर ध्यान क्यों नहीं देना चाहिए? यह जनमानस की हिंदी है। यह हिंदी युवा-मन से और जन-जन से जुड़कर प्रयोग व प्रसार की नित नई सीढ़ियां चढ़ रही है। आलोचना और भाषा-समीक्षा के पंडितों को भाषा के विकास के इन आयामों पर भी ध्यान देना चाहिए।