दिनेश शर्मा
Wednesday 13 November 2013 07:08:23 AM
लखनऊ की ऐतिहासिक धरोहरों और बैठकों ने दुनिया में बड़ा ही नाम कमाया है। लखनवी तहज़ीब, इमामबाड़ा, भूलभुलैया, लखनऊ विश्वविद्यालय और यहां के नवाबों के विख्यात किस्से तो खूब ही सात समंदर पार तक सुने-सुनाए जाते हैं, उनपर किताबें लिखी जाती हैं, शेर-औ-शायरी होती है, मगर इनके उद्गमों की जगह का उल्लेख किए बिना इन धरोहरों का इतिहास अधूरा कहा जाएगा, क्योंकि इनको इतिहास बनाने वालों और इतिहास लिखने वालों का लखनऊ के काफी हाउस नाम के इस महा उद्गम से बड़ा करीब का रिश्ता है।
क्यों, यह बात आपके भी गले उतरी कि नहीं? लखनऊ के काफी हाउस का जिक्र आते ही बड़े-बड़े राजनेताओं, लेखकों, कहानीकारों, साहित्यकारों, शायरों, कवियों, नवाबों, पत्रकारों, वकीलों, कलाकारों, विख्यात फक्कड़ों और गप्पबाजों के चेहरे मस्तिष्क की तरंगों में दिखाई पड़ने लगते हैं। यह एक ऐसा पनघट है, जहां सबने बिना छुआ-छूत के दोस्ती का पानी पिया है। जहां खास-औ-आम और उसकी जीवन शैली एवं राजनीति पर दिनभर बहस चली है, जहां से अनेक लोगों ने अपने सपनों की दुनिया के रास्ते तय किए हैं। यकीनन लखनऊ का काफी हाउस इन सबका एक जीवंत गवाह और इन सब में समय-समय पर हुए बदलावों का एक मुकम्मल इतिहास है। आइए लखनऊ के काफी हाऊस पर उस किताब के पन्ने पलटते हैं और देखते हैं कि लखनऊ के जाने-माने पत्रकार प्रदीप कपूर ने इसके इतिहास में कितने रंग शामिल किए हैं और किस तरह से अपनी किताब ‘लखनऊ का काफी हाउस’ में गागर में सागर भरा है।
प्रदीप कपूर ने लिखा है कि लखनऊ में हज़रतगंज चौराहे और लखनऊ के काफी हाउस का कैसा बड़ा नज़दीकी रिश्ता है। लखनऊ में सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है, मगर यहां की ऐतिहासिक धरोहर में जो नहीं बदला है, वह लखनऊ का काफी हाउस भी है। बड़े-बड़े बैठकबाजों ने यहां काफी और उसके कद्रदानों के संग बैठ इतिहास रचे हैं और प्रदेश एवं देश के रंगमंच पर अपनी शख्सियत के जल्वे बिखेरे हैं। प्रदीप कपूर ने लखनऊ के काफी हाउस पर कुल अड़तीस पेज की किताब में इतना कुछ लिख दिया है कि जिसे पढ़कर इतनी सारी जानकारी मिल जाती है कि शायद ही कहीं और से मिले। काफी के बारे में रोचक जानकारी, दुनिया की घटनाओं से काफी और काफी हाउस का संबंध, बैठकबाजों के बीच में काफी की चुस्की को प्रदीप कपूर ने बड़ी समृद्ध जानकारी के साथ किताब के प्याले में सजाया है। किताब के बहुत से उद्धरण यहां प्रस्तुत करने का मन था, लेकिन सब कुछ यहीं पर परोस दिया गया तो किताब की गरिमा का हनन होगा, मतलब जो ज्ञान इस किताब में मिलेगा वह यहां प्रस्तुत करके नहीं मिल सकता।वास्तव में यह किताब आपको लखनऊ के काफी हाउस ले जाकर बैठा देती है, जिसमें वह आपकी यहां के दर-औ-दीवार से मुलाकात करा देती है।
किताब का संपादन राम किशोर वाजपेयी ने किया है और वांड्मय निधि खुर्शेदबाग लखनऊ ने इसका प्रकाशन किया है। लखनऊ की जागृति पर श्रंखलाबद्ध प्रकाश डाल रहे हिंदी वांड्मय निधि के अध्यक्ष शैलनाथ चतुर्वेदी की हमारा लखनऊ पुस्तकमाला की यह 32वीं किताब है। हिंदी वांड्मय निधि के सचिव और लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष रहे प्रोफेसर शैलेंद्र नाथ कपूर ने पुस्तक में टिप्पणी लिखी है। बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान लखनऊ के पूर्व चित्रकार प्रमोद वाजपेई ने पुस्तक के कवर को सजाया है। पुस्तक का आवरण चित्र हज़रतगंज लखनऊ के मुख्य चौराहे पर खड़ा जहांगीराबाद हाउस का है-इसी में लखनऊ का काफी हाउस आज भी आबाद है और लखनऊ के परंपरागत बैठकबाज़ आज भी यहां देश-दुनिया और लोगों के बारे में उनकी जमीन नापते हुए और ठहाके लगाते हुए काफी के प्याले के साथ बैठे मिलेंगे।
प्रदीप कपूर ने यह किताब देश के जाने-माने पत्रकार और अपने पिताश्री बिशन कपूर और मातोश्री कमला कपूर को समर्पित की है। इसकी एक खास वजह यह भी है कि उनके पिताश्री का लखनऊ के काफी हाउस से दिन-रात का रिश्ता रहा है और स्वयं प्रदीप कपूर का भी लखनऊ काफी हाउस से वैसा ही रिश्ता कायम है। प्रदीप कपूर इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं, पत्रकार हैं, देश के कई बड़े हिंदी अंग्रेज़ी के समाचार पत्र पत्रिकाओं से जुड़े हैं और इनमें उनके आलेख एवं समाचार विश्लेषण प्रमुखता से छपते आ रहे हैं। रंगमंच में भी बड़ी दिलचस्पी रखने वाले प्रदीप कपूर अपने पिताश्री की भांति लखनऊ काफी हाउस से जुड़े इतिहास को कम से कम अपने हाथ की रेखाओं की तरह जानते हैं, इसीलिए वे इस काफी हाउस पर एक तथ्यात्मक और महत्वपूर्ण जानकारियों से समृद्धशाली पुस्तक लिख पाए हैं, जो उन सभी के लिए अत्यंत उपयोगी और संग्रहणीय है, जो ऐसी ऐतिहासिक धरोहरों की तथ्यात्मक जानकारियों की खोज में रहते हैं। मालूम है किताब का मूल्य कितना है? केवल पंद्रह रुपए !