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Friday 6 December 2013 07:36:44 AM
नई दिल्ली। राजधानी दिल्ली में एचटी लीडरशिप समिट में सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि यह बिल वोट हासिल करने का तिकड़म नहीं है, मेरा मानना है कि पिछले पांच से छह वर्ष में हम देश के किसी न किसी हिस्से में सांप्रदायिक हिंसा का सामना कर रहे हैं और हमारा प्रयास यह रहा है कि ऐसा वातावरण तैयार किया जाए, जिसमें जहां तक संभव हो सके कानून-व्यवस्था से जुड़े मानवीय तरीके से काम कर सकें। उन्होंने कहा कि अगर दंगों की रोकथाम नहीं की जा सकती है तो दंगा पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा दिया जाना चाहिए, यहां दो बड़े सिद्धांत हैं, जो इस बात पर जोर देते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक का क्या उद्देश्य है। उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि यह ऐसा विधेयक है जिसका समय आ चुका है, मुजफ्फरनगर और देश के अन्य हिस्सों में जो कुछ हुआ, वह इस बात की याद दिलाता है कि एक देश होने के नाते हम देश के सभी नागरिकों की रक्षा करने में अपनी क्षमता पर गर्व कर सकते हैं, लेकिन फिर भी कई बार ऐसा समय आया है, जहां त्रुटियां हुई हैं, अगर यह विधेयक संसद में पारित हो जाता है तो इन त्रुटियों को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी।
हिन्दुस्तान टाइम्स समिट 2013 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि हिन्दुस्तान टाइम्स की पिछली दस समिट्स में से प्रत्येक के विषय पर गौर करने पर मैंने पाया है कि उसमें लगातार भारत के भविष्य, अवसरों और चुनौतियों दोनों पर ध्यान केंद्रित किया है, व्यावसायिक तौर पर भी मीडिया का यह दायित्व बनता है कि वह वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करे। उन्होंने कहा कि मेरा नाता ऐसी पीढ़ी से है, जिसने हमारे स्वाधीनता संग्राम और राष्ट्र निर्माण के प्रयासों से आकार लिया, स्वाधीनता ने हमें आशा प्रदान की और स्वाधीनता ने हमें साहस प्रदान किया, लोकतंत्र ने हमें अधिकार और उत्तरदायित्व प्रदान किये तथा राष्ट्र निर्माण ने हमारे संविधान को परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि हमारी पीढ़ी ने तकरीबन आधी सदी धीमी वृद्धि, धीमे औद्योगिक विकास, बार-बार पड़ते अकाल और बहुत कम सामाजिक गतिशीलता देखी, वह भारत आज भी हमारे बहुत से भाइयों और बहनों के लिए विद्यमान है, लेकिन बहुत कम लोगों के लिए।
प्रधानमंत्री ने कहा कि बिल्कुल अलग माहौल में जीवन बिताने के बाद, मेरी पीढ़ी लगातार उसकी तुलना हमारे वर्तमान से करती है और वास्तविकता यह है कि एक पीढ़ी के रूप में हमने अपने जीवन में ऐसे बदलाव का दौर देखा है, जिसकी कल्पना भी हमारी युवावस्था के दौरान संभव नहीं थी, मेरे जैसे लाखों भारतवासी हैं, जिन्होंने अपना बचपन बहुत कम उम्मीद के वातावरण में बिताया है और उसके बाद बिल्कुल अलग किस्म का जीवन जिया है, यह सिर्फ समय के बदलाव मात्र से नहीं हुआ, बल्कि भारत की जनता के प्रयास, साहस और महत्वाकांक्षाओं के मिश्रण तथा केंद्र और राज्यों की विभिन्न सरकारों की ओर से प्रदत्त नेतृत्व और मार्गदर्शन से हुआ। शून्य वृद्धि दर वाली 1900 और 1950 के बीच की आधी सदी के बाद हमने 3.5 प्रतिशत की दर से सालाना वृद्धि होते देखी, जब हमें महसूस हुआ कि दूसरे विकासशील देश हमें पछाड़ रहे हैं और उन्होंने विकास के नये रास्ते तलाश लिए हैं, तो हमने भी 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में अपना रास्ता बदल लिया, पिछले दो दशकों से औसत सालाना वृद्धि दर दोगुने से ज्यादा बढ़कर 7.0 प्रतिशत हो गई और भारतीय अर्थव्यवस्था वृद्धि के मार्ग पर बढ़ती गई।
मनमोहन सिंह ने कहा कि अर्थव्यवस्था का चक्र हमारे समक्ष अच्छे प्रदर्शन के वर्ष और साधारण प्रदर्शन के वर्ष प्रस्तुत करता है, लेकिन सबसे ज्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा ग़रीब और ग़रीब होता जा रहा है, आज बहुत से लोग 5 प्रतिशत सालाना वृद्धि दर से संतुष्ट नहीं है, जबकि हमारी आजादी के दो दशकों से ज्यादा अर्से बाद तक हमारी पंचवर्षीय योजनाओं की वृद्धि दर का लक्ष्य पांच प्रतिशत था। वैश्विक चुनौतियों की दिशा में तमाम उतार-चढ़ावों और अतीत में की गई नीतिगत भूलों के बोझ के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्था वृद्धि के रास्ते पर है, यह पहला सबक है, जो मैंने थोड़ा रुक कर और उभरते बड़े परिदृश्य पर गौर करते समय सीखा है। हालांकि आर्थिक वृद्धि, सामाजिक बदलाव और राजनीतिक सशक्तिकरण ने भारतीयों की बिल्कुल नई पीढ़ी में नई महत्वाकांक्षाओं को जन्म दिया है, इसने वृद्धि की तेज रफ्तार और बेहतर जीवन के प्रति बेचैनी बढ़ाने में योगदान दिया है, ये आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं सरकारों पर बेहतर प्रदर्शन करने, ज्यादा पारदर्शी बनने और ज्यादा प्रभावशाली बनने का दबाव बना रही हैं।
उन्होंने कहा कि कभी-कभार जनाक्रोश सड़कों पर और मीडिया के माध्यम से दिखाई दे सकता है, लेकिन भारत का 'शांत बहुसंख्यक वर्ग' सुरक्षा और बदलाव के लिए अपने मताधिकार का इस्तेमाल वैध लोकतांत्रिक तरीकों से करता है, पिछले दो वर्षों से कुछ बेहद महत्वपूर्ण और चिंतित नागरिकों ने पूरे राजनैतिक वर्ग पर भ्रष्ट और जनविरोधी होने का आरोप लगाते हुए निराशावाद फैलाने की कोशिश की है, बहुत से लोगों ने यह सुझाव देना शुरू कर दिया है कि भारत में लोकतंत्र ने सही योगदान नहीं दिया, उन्होंने संसद के फैसलों का सम्मान करने से इनकार करते हुए संसद पर हमला बोला, क्या इससे हमारी जनता लोकतंत्र के खिलाफ हो गई? क्या इससे वह निर्वाचन प्रणाली के प्रति हताश हो गई? नहीं। पिछले दो वर्षों में हुए प्रत्येक चुनाव तथा हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की संख्या पर नजर डालिए। महत्वाकांक्षाओं और बढ़ती अपेक्षाओं का मंथन करते हुए भी हमारे देश की जनता ने मतदान करने और लोकतांत्रिक माध्यमों के जरिए बदलाव लाने का रास्ता चुना। यह दूसरा सबक है, जो मैंने थोड़ा रुक कर और उभरते बड़े परिदृश्य पर गौर करते समय सीखा है।