Friday 13 December 2013 05:57:36 AM
हृदयनारायण दीक्षित
स्त्री सम्मान भारत की प्राचीन परंपरा है, लेकिन परंपरा विरोधी विमर्शकार प्राचीन समाज को रूढ़िवादी बताते हैं। ऐसे लोगों के अनुसार प्राचीनकाल में स्त्री परतंत्र थी और परदे के भीतर थी। ऋग्वेद दुनिया का प्राचीनतम काव्य साक्ष्य है। इसमें (ऋ0 10.85) विवाह का रसपूर्ण वर्णन है। ऋषि कहते हैं-सुमंगलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत्-इस सुमंगल वधू को सब देखें। सौभाग्यशाली होने का आशीष दें। फिर अपने घर जाएं। 'तब नववधू भी घूंघट या परदे में नहीं है। सब देखते हैं, लेकिन सबके मन में आशीष आकांक्षा है। वैदिक काल की स्त्रियां मंत्रद्रष्टा भी थीं। वेदों में ऐसी अनेक स्त्रियों द्वारा रचे मंत्र हैं। सूत्र बाद में रचे गए। आश्वलायन सूत्र में एक मजेदार निर्देश है कि वर नवविवाहिता पत्नी को लेकर घर जाने के रास्ते में पड़ने वाले मुख्य स्थान पर ऋग्वेद के उसी मंत्र को दोहराते हुए वधू दिखाए'' और आशीर्वाद ले। ऋग्वेद और वाल्मीकि के बीच समय का लंबा फासला है। भारत में चिंतन दर्शन के अनेक दृष्टिकोण थे। स्त्रियों को अकारण भ्रमण से रोकने की भी एक दृष्टि रही होगी। वाल्मीकि ने रामायण में टिप्पणी की युद्धों में, स्वयंवर समारोह में, यज्ञ में और मंगल कार्यो में स्त्रियों का जाना अनुचित नहीं है।'' यज्ञ, मंगलकार्य आदि सार्वजनिक समारोहों में स्त्रियां जाती थीं। युद्ध में भी वे भाग लेती थी। ऋग्वेद की विपश्ला और रामायण की कैकेई युद्ध में थी ही।
स्त्री उपभोक्ता सामग्री नहीं थी। मध्यकाल में यूरोप में लाखों स्त्रियों को डायन बताकर मार दिया गया था। यह इतिहास है, कोई काव्य कल्पना नहीं थी। भारत की परंपरा में स्त्रियां अपने पतियों से बहस करती दिखाई पड़ती हैं। ऋग्वेद में लोपामुद्रा और ऋषि अगस्त्य का संवाद है। शिव, पार्वती के संवादों से पूरा प्राचीन साहित्य ही रससिक्त है। परंपरा में स्त्री सुप्रतिष्ठित अस्मिता है। अस्मिता के प्रति आस्तिक भाव चाहिए। आस्तिकता का अर्थ है आस्तित्व के प्रति अनुगृहपूर्ण स्वीकार भाव। हमारी आधुनिक जीवन शैली में स्त्री अस्मिता के प्रति आस्तिकता नहीं है। आस्तिकता की भावभूमि में ही वह मां, बहिन पुत्री और अंतत: देवी जानी गई है। यह समझ पुरातन पंथ नहीं सनातन प्रज्ञा है। स्त्री पुरूष का मिलन प्रकृति की सृजन शक्ति का विस्तार है। सृजन कर्म भोग या उपभोग नहीं होता, प्रीतिपूर्ण समर्पण में ही सृजन खिलता है। सृजन कभी अराजक नहीं होता। सृजन स्वतंत्रता में खिलता है और अराजकता में नष्ट हो जाता है। इसलिए स्त्री पुरूष संबंधों को अराजक नहीं बनाया जा सकता। स्त्री या पुरूष को उपभोक्ता सामग्री समझने की दृष्टि के कारण ही अराजकता है।
स्त्री परतंत्र नहीं। स्वयंपूर्ण अस्मिता है। अथर्ववेद के एक प्रीतिपूर्ण संवाद में पति पत्नी से कहता है, मैं साम (गान) हूं, तू ऋक् है। मैं द्यौ हूं, तू पृथ्वी है। मैं ज्ञानी और तू भी ज्ञानी।'' अथर्व की ध्वनि में स्त्री स्वतंत्र इकाई है। ऋग्वेद के ऋषि ने पति पत्नी दोनो की ही अस्मिता को स्वीकार किया है अग्नि दोनो का मन मिलाते हैं।'' वैदिक साहित्य में कहा गया है कि परमतत्व अकेला था, उसने स्वयं को समविभाजित किया, आधा स्त्री हुआ और आधा पुरूष।'' दोनो पहले एक थे। अलग हुए, एक से दो हुए। मन, प्राण, आत्म मिले, फिर से एक हो गये। ऋग्वेद (10.27) के ऋषि की घोषणा है कि जो स्त्री स्वयं अपने मित्र का चयन करती है वह भद्र वधू है।'' जो भद्र है वह अभद्र मित्र का चयन नहीं कर सकती। इस 'भद्र मित्र' का अर्थ 'ब्वाय फ्रेंड' नहीं हो सकता। भद्र वधू का मतलब गर्लफ्रेंड नहीं है। ब्वाय और गर्ल बच्चों के पर्यायवाची हैं। उनमें वयस्क अनुभूति नहीं होती। फिर उम्र से वयस्क हो जाना समझदारी की गारंटी भी नहीं। बलात्कार जैसे कृत्य आधुनिक समझदारों द्वारा ही किए जा रहे हैं। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता से जुड़े महानुभावों के साथ ही समाज सुधारक कथावाचक भी लपेटे में हैं।
'गहन समझ' के लिए परंपरा से जुड़ना जरूरी है। परंपरा 'अनुभव सागर' है। इस सागर में तमाम रत्न हैं, कुछ अति उपयोगी और अपरिहार्य। अनेक कम उपयोगी भी हो सकते हैं तो कुछेक कालवाह्य भी। समूची परंपरा को कालवाह्य या बेकार नहीं कहा जा सकता। जान पड़ता है कि पुरूष अपनी मूल संरचना के कारण स्त्री की देह देखता है। स्त्री अपनी विशिष्ट अस्मिता के कारण हृदय देखती है। देह नहीं। हृदय केंद्र है और देह परिधि। पुरूष दृष्टि दैहिक है। स्त्री अस्मिता हृदय प्रधान है। सृष्टि सृजन का भार ढोना आसान नहीं। प्रकृति के सभी जीव अपने विस्तार में स्त्री गर्भ पर ही निर्भर है। परमसत्ता भी अपने अवतरण के लिए किसी स्त्री के हृदयगर्भ से ही होकर प्रकृति में आ सकती है। स्त्री गर्भ के अलावा सृष्टि का भाग बनने का और कोई उपाय नहीं। स्त्री दृष्टि हृदय प्रधान है। देहवादी पुरूष सहज हृदय प्रधान वार्ता से भी गलत संकेत संदेश लेते हैं। कानून कहता है कि दोनो वयस्क सहमति के आधार पर मिल सकते हैं। 'सहमति' बड़ा औचित्यपूर्ण शब्द है, लेकिन इसके भीतर असहमति की अनेक परते हैं। कामकाजी महिला अपने से ऊपर के वरिष्ठ अधिकारी की तमाम बातों पर जी सर!'' कहती हैं। आधुनिकता आप बहुत सुदर हैं'' का वाक्य प्रयोग लाई है। शिष्ट महिलाएं इसके उत्तर में प्राय: धन्यवाद कहती हैं। देहवादी पुरूष इसे सहमति की शुरूवात मानते हैं। सामान्य शिष्ट मुस्कराहट भी जब कब सहमति की श्रेणी में मान ली जाती है। आधुनिक समाज की वार्ता में ऐसे अनेक शब्द आते हैं। जैसे क्या आप अकेले रहते हैं? या आप अकेली रहती हैं? आप कैसी फिल्में देखती हैं? या देखते हैं। देह को उपभोक्ता समझने वाली दृष्टि ऐसे सारे प्रश्नों को 'सहमति' की दिशा में बढ़े कदम मानती है।
देह को वस्तु समझने की दृष्टि खतरनाक है। मध्यकाल को सारी दुनिया में अंधकार युग कहा जाता है। इतिहास और समाज के विवेचक काल को संपूर्ण इकाई मानते हैं, भूखंड विशेष की प्रकृति, संस्कृति और सभ्यता को विवेचन का विषय नहीं बनाते। मध्यकाल में समूचे विश्व में एक जैसी स्थिति नहीं है। स्त्री की स्थिति भी मध्यकाल में समूचे विश्व में एक जैसी नहीं है। यूरोप में मध्यकाल के बाद पुनर्जागरण रिनेसा है। रिनेसा के दौर में भी स्त्री सम्मान नहीं है। भारत के मध्यकाल में भी स्त्री सम्मान और स्वातंन्न्य की वैदिक परंपरा है। रामचरित मानस मध्यकाल की ही रचना है। इसमें स्त्री के प्रति कुदृष्टि पर भी मृत्यु दंड की सजा है। बीते बीसेक वर्ष में बाजार की सत्ता बढ़ी है। बाजार स्वभाव से ही उपभोक्तावादी होता है। इस विचारधारा में उपभोक्ता को सम्राट कहा जाता है। बाजार आवश्यक वस्तुओं की मांग और पूर्ति के अनुसार नहीं चलता। वह गैर जरूरी वस्तुओं को जरूरी बताने के अभियान चलाता है। टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं से बाजार को लाभ नहीं होता। इसलिए नित नए माडल बदलते हैं।
बाजार स्त्री को भी माडल कहता है। लड़कियों को 'माडल' कहना उचित नहीं। यह करामात बाजार की ही है। बाजार 'बिग बास' हो गया है। 'बिग बास' का घर देह अराजकता का उपभोक्ता क्षेत्र है। इसके सहभागी बाजार की दृष्टि में बड़भागी है। उन्हें हम दागी नहीं कहते, वे वयस्क हैं। वयस्कों के अपने अधिकार हैं। बाजार इन कार्यक्रमों को देखने के अनुरागी बढ़ा रहा है। इस घर की करतूतें मनोरंजन की दृष्टि से बिकाऊ माल हैं। बाजार पूरे देश को 'बिग बास' का घर बनाना चाहता है। भारत का मन बलात्कारों को लेकर दुखी है। बलात्कार जघन्य अपराध है। कानून सख्त हुए हैं और भी सख्त हों तो भी ठीक होगा, लेकिन स्त्री अस्मिता का सम्मान कानून से नहीं सांस्कृतिक प्रवाह में ही बढ़ेगा। सरकारें अपराधी को सजा दिला सकती हैं, लेकिन मां, बेटी, बहन और समूचे स्त्री समाज का सम्मान सांस्कृतिक चेतना से विकसित हो सकता है। बाजार इस सांस्कृतिक चेतना का शत्रु है। टक्कर बाजार से है। वे देह को उपभोक्ता माल बना रहे हैं। क्या हम सब स्त्री अस्मिता को पूरे हृदय से सम्मान देने का अभियान चला सकते हैं?