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Thursday 31 January 2013 08:00:29 AM
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरूवार को दिल्ली टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित किया। इस शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए समूचे विश्व से अनेक विदेशी गणमान्य व्यक्ति आए हैं। सन् 2001 से दिल्ली टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन ने वैश्विक टिकाऊ विकास केलेंडर में एक अद्वितीय रूप धारण किया है, जिसने समूचे विश्व से कुछ सर्वोत्तम मस्तिष्क वाले नेताओं को आकर्षित किया है, उन्होंने हमारे ग्रह की दुर्बल पर्यावरण प्रणाली को सुरक्षित रखने को गंभीरता से लिया है।
रियो में 1992 में हुए शिखर सम्मेलन की 20वीं वर्षगांठ के अवसर पर पिछले वर्ष विश्व समुदाय एकत्र हुआ था। रियो+20 इस बात का मार्मिक तकाजा है कि रियो भू-शिखर सम्मेलन में जो आदर्श लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, वे पूरे नहीं हुए। ये यह बात स्मरण भी कराते हैं कि पर्यावरणीय और वातावरणीय मुद्दों पर सार्थक सर्वसम्मति पैदा करना कोई 20 साल पहले की तुलना में आज संभवत: दुश्कर प्रतीत होता है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देश ने इस अवधि के दौरान कुछ प्राप्त ही नहीं किया। भारत ने विश्व में पर्यावरण के प्रति सजगता की आसाधरण और स्वागत योग्य वृद्धि देखी है और यह तथ्य बड़ा संतोषप्रद है, कि टिकाऊ विकास आज अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का स्वीकार्य और अभिन्न अंग बन गया है। वैश्विक पर्यावरणीय एजेंडा और वैश्विक विकास एजेंडा अब अत्यधिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं और टिकाऊ विकास के आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक स्तंभ उसे सुदृढ़ ढांचा उपलब्ध करा रहे हैं। वर्ष 1992 के रियो सिद्धांत अब भी प्रासंगिक और मूल के रूप में देखे जा रहे हैं और इसे रियो+20 में सुदृढ़ किया गया था।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कोई 40 वर्ष पहले स्टॉकहोम सम्मेलन में शरीक होने वाले विकासशील जगत के चंद नेताओं में से एक थीं। उन्होंने पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति भारत की वचनबद्धता को स्पष्ट किया था, लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि हमारी चुनौती सभी के लिए विकास सुनिश्चित करना है। टिकाऊ शिखर सम्मेलन के इस वर्ष का विषय-संसाधन की वैश्विक चुनौती-कुशल वृद्धि और विकास की एक विशेष प्रतिध्वनी है। मानवता ने संसाधनों की किल्लत की समस्याओं का निदान करने के लिए प्रौद्योगिकी के विकास में अपना परंपरागत विश्वास व्यक्त किया है, तथापि अब यह महसूस किया जा रहा है कि कुछ संसाधनों, खासकर पर्यावरणीय संसाधनों के लिए कोई आसान विकल्प नहीं है, इसलिए संसाधन-कुशलता टिकाऊ विकास की आवश्यक शर्त हैं और निरंतरता के आर्थिक स्तंभ का मुख्य तत्व है। इसके अलावा, इस बात की वास्तविक चिंता है कि एक असमान जगत में संसाधनों की किल्लत ग़रीबों को अधिक बुरी तरह प्रभावित करेगी और मुख्य संसाधन इस ग्रह के चंद चुने हुए लोगों की पहुंच में रहेंगे। परिणाम स्वरूप बड़ी संख्या में लोग ग़रीबी और निरंतर वंचना में रहेंगे। टिकाऊ विकास के प्रयास में जलवायु परिवर्तन मुख्य चुनौती बन गई है। यह समस्या समन्वित वैश्विक प्रयास से ही हल की जा सकती है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि टिकाऊ विकास को मात्र राष्ट्रीय परिप्रेक्षय में देखने की बजाए वैश्विक परिप्रेक्षय में देखा जाए, फिर भी विश्व में विकास के विविध स्तरों को देखते हुए यह महत्वपूर्ण है कि हमारे प्रयास इक्वीटी और सामान्य, पर, विविध दायित्व के सिद्धांत पर आधारित होने चाहिए। औद्योगिक जगत की उत्सर्जन में कमी के क्योतो समझौते के अधीन सन् 2020 तक प्रतिबद्धता की दूसरी अवधि को स्वीकार करना एक स्वागत योग्य घटना है, लेकिन वास्तविक प्रगति तब तक प्राप्त नहीं की जा सकती, जब तक कि विकसित देश अपने आदर्श के स्तर को बढ़ाने के इच्छुक न हों। भारत देश उत्सर्जन की मात्रा को 2025 के स्तर की तुलना में वर्ष 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद के 20-25 प्रतिशत कम करने के लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। भारत ने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए पहले ही कई कदम उठाए हैं। अब समय है अमीर औद्योगिक देश इस राह पर चलने की इच्छाशक्ति दिखाएं। अगर वे क्योटो प्रोटोकॉल और अन्य समझौतों के अंतर्गत होने वाली प्रतिबद्धताओं में उत्तीर्ण नहीं होते हैं तो भारत और अन्य विकासशील देशों की सरकारों, उद्योग तथा आम जनता को इस संबंध में मनाना मुश्किल हो जाएगा।
विकासशील देशों के लिए जैव विविधता एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संसाधन है, जो आम लोगों के जीवन से जुड़ा है। पिछले साल भारत ने हैदराबाद में जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र के 11 वें सम्मेलन की मेज़बानी की थी। इसके एक महत्वपूर्ण परिणाम में जैव विविधता को सतत विकास और पर्यावरणीय सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका दी गई तथा संस्थागत प्रणाली बनाने पर एक समझौता हुआ, जो जैव विविधता को संरक्षित रखने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय और तकनीकी सहयोग आसान करेगा। भारत में अपने संसाधनों के सही ढंग से इस्तेमाल करने के जरिए उन्हें संरक्षित रखने की ज़रूरत के लिए पूरी तरह सचेत है। जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर विकासात्मक रणनीति अब एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके आठ मिशनों में से एक है-अगले 10 वर्ष के अंदर सौर ऊर्जा के इस्तेमाल से 20,000 मेगा वॉट की बिजली पैदा करने की क्षमता हासिल करना। निजी क्षेत्र के शामिल होने से बाज़ार आधारित सौर लांटेन प्रसार तथा फोटोवोल्टिक प्रौद्योगिकी पर आधारित विकेंद्रीकृत तरीके से प्रकाश व्यवस्था के अन्य रूपों के ज़रिए इस दृष्टिकोण को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
भारत और कई अन्य विकासशील देशों में एक संसाधन जिसकी विशेष चिंता है वो है-स्वच्छ जल। भूजल का ह्वास भी देश के कई जिलों में एक बढ़ी समस्या बन चुका है। शहरों में स्वच्छ जल की बढ़ती मांग को पूरा करने का तात्पर्य बढ़ती कीमत है, क्योंकि जल की आपूर्ति काफी दूर-दूर से होती है। पानी की मांग के अनुमान और उसकी उपलब्धता बढ़ती कमी की संकेतक तस्वीर पेश करते हैं। कमज़ोर और गरीब तथा हाशिए पर आए समुदायों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए विकासात्मक रणनीतियों और नीतियों में पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की महत्ता और आर्थिक मूल्य पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। ग्रीन नेशनल अकाउंटिंग जैसे विषय उपयोगी हैं, जो यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि वस्तुएं और सेवाओं के उत्पादन से पारिस्थितिक और समाज पर न्यूनतम असर हो।
बढ़ती जनसंख्या, सेवन करने के पैटर्न में बदलाव तथा मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों पर बोझ भी आर्थिक वृद्धि और गरीबी उन्मूलन की कोशिश में वास्तविक चुनौतियां हैं। वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में बनी वर्तमान वैश्विक असामना स्पष्ट रूप से स्थायी नहीं है, साथ ही हमें एक पृथ्वी की पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था को साझा करना होगा। इससे हमारी अर्थव्यवस्थाओं को दोबारा से ऐसा बनाना होगा जो किफायती हो तथा अपने अपर्याप्त संसाधनों के इस्तेमाल में अभिनव हो। ये ऐसा क्षेत्र है जिसका हमें भविष्य के हल तलाशने की ज़रूरत है।