Thursday 31 May 2018 06:20:54 PM
सुषमा गौतम
निशा गुप्ता। एक गृहणी के रूपमें अपने घर-गृहस्थी के रूपमें सफल होना हो या घर से बचे हुए वक्त से अपनी विधा को संभालना हो, अपने सामाजिक सरोकारों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेना हो या अपने वानप्रस्थी जीवन को आध्यात्मिक और भक्तिमय रूप प्रदान करना हो, निशा गुप्ता के अपनी दैनिक दिनचर्या को व्यवस्थित रखने के ये बड़े आदर्श पक्ष हैं। शास्त्रीय और भक्तिमय संगीत तो उनके प्राण हैं। उन्होंने अपने पति की आज्ञा और प्रेरणा से वह सब कार्य पूर्ण किए हैं, जो एक स्त्री अपने मान सम्मान ज्ञान और पसंद को पाने की इच्छा रखती है। निशा गुप्ता इसीलिए लखनऊ के चिड़ियाघर में प्रातः भ्रमण पर आने वाली नारियों की आध्यात्मिक प्रेरणास्रोत हैं। निशा गुप्ता से बातचीत हुई तो उनकी जीवनशैली दिनचर्या एवं बाद के जीवन के ऐसे कई पक्ष सामने आए, जो दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हैं। वह अपने परिवार को व्यवस्थित कर चुकी हैं, लेकिन उससे अलग ही अपने सिद्धांतों का जीवन जीती हैं। यह सुनना जरूर एक ठहराव सा महसूस करता है, लेकिन वे ढलती उम्र में बहुत खुश और खुश मिजाज हैं एवं एकाकी जीवन के तनाव की दुनिया से बेअसर और बहुत दूर नज़र आती हैं। निशा गुप्ता से यह बातचीत सदाबहार जीवन जीने की खुशी प्रदान करती है।
लखनऊ के बनारसी बाग में अवस्थित प्रिंस आफ वेल्स प्राणि उद्यान और अब नवाब वाजिद अली शाह प्राणि उद्यान लखनऊ के हज़रतगंज, नरही डालीबाग जियामऊ पार्करोड के आस-पास के लोगों के लिए प्रातःकाल भ्रमण का भी सबसे नज़दीकी और नाना प्रकार के वन्यजीवों, सुंदर दुर्लभ पक्षियों छायादार वृक्षों सजावटी फूलों से आच्छादित बड़ा ही रमणीक स्थान है। सुबह-सुबह यहां सभी उम्र के पासधारी लोग कहीं दौड़ते, योगा करते और टहलते दिखेंगे, कहीं बालक बालिकाएं झूलों और अन्य खेल साधनों पर उछलते-कूदते और मस्ती करते दिखाई देंगे तो कहीं भ्रमणशील लोग समूह में आध्यात्मिक एवं राजनीतिक चर्चाएं करते हुए अपडेट होते हैं। इन्हीं में मंद-मंद भक्ति संगीत की धारा भी बहती है, जिसमें कभी महिलाओं का अच्छा खासा समूह होता है और कभी कुछ ही महिलाएं होती हैं, जिनके लिए निशा गुप्ता का प्रातः व्यायाम और भक्तिभाव संगीत उनकी दिनचर्या को सुखद बनाता है। एक दौर वह भी था जब यहां निशा गुप्ता के भक्ति भजन में शामिल हुए बिना चिड़ियाघर आना अधूरा सा रहता था, मगर समय की विवशता से ऐसा वातावरण एक सा नहीं रहता है, तथापि निशा गुप्ता अपनी तिहेत्तर वर्ष की उम्र में भी यहां आज तक सदाबहार और प्रेरणाप्रद हैं।
लखनऊ चिड़ियाघर की भी थोड़ी कहानी यहां प्रासंगिक है। लखनऊ चिड़ियाघर का नाम प्रिंस आफ वेल्स प्राणिउद्यान हुआ करता था, लेकिन भारत में वोट की राजनीति ने इसे भी नहीं छोड़ा और अखिलेश यादव सरकार में इसमें भी वोट ढूंढते हुए इसका नाम बदलकर नवाब वाजिदअली शाह प्राणिउद्यान लखनऊ कर दिया गया। यह अलग बात है कि नवाब वाजिदअली शाह के और भी बहुत शौक रहे हैं, जिनमें उनका एक शौक चिड़ियों का शिकारकर उनके लजीज़ व्यंजन बनवाने का भी रहा है। यह प्राणिउद्यान आम बोलचाल की भाषा में लखनऊ का चिड़ियाघर कहा जाता है। यहां पर एक शानदार पुरातात्विक संग्रहालय है, जो अवध की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, अवध में स्वतंत्रता संग्राम और अवध के नवाबी शासनकर्ताओं के इतिहास से परिचित कराता है। ज़ू प्रशासन ने हाल ही में यहां एक खूबसूरत तितली पार्क भी विकसित किया है, जिसे देखने को लेकर आगंतुकों में बड़ी उत्सुकता रहती है। उत्तर प्रदेश की राजधानी होने के कारण लखनऊ सचिवालय आने वाले हितधारकों के लिए और होली दिवाली ईद क्रिसमस एवं छुट्टी पर लखनऊ और आस-पास के लोगों एवं बच्चों के लिए यह सबसे ज्यादा पसंदीदा एवं खुशियां मनाने का लोकप्रिय स्थान है।
निशा गुप्ता से बात शुरू हुई थी और चिड़ियाघर के इतिहास तक पहुंच गई। खैर काफी लंबे समय से निशा गुप्ता की यहां पर ऐसी ही संगीतमय दिनचर्या देखते-देखते उनसे इसी विषय पर बात-मुलाकात हुई। निशा गुप्ता इस प्राणिउद्यान में प्रातःकालीन भ्रमण को आने वाली नारियों के बीच बहुत सम्मानीय हैं। इसकी एक वजह जहां उनका सक्रिय बुज़ुर्ग होना है, वहीं उनमें एक विलक्षण संगीत की विधा है, जो उनकी भक्ति संगीत की देवी के रूपमें पहचान है। निशा गुप्ता ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा हांसिल की है। शास्त्रीय संगीत पर आज भी उनकी ग़ज़ब की पकड़ है, यह उनका बचपन का शौक हुआ करता था, जिसे उनके पति ने पूरा कराया। उनका यह शौक आगे तो बढ़ा, लेकिन पारिवारिक जीवन की विवशताओं और व्यस्तताओं ने उसे उतना परवान नहीं चढ़ने दिया, तथापि उनकी इस क्षेत्र में एक पहचान जरूर बनी। शास्त्रीय संगीत सीखने वाली प्रतिभाओं और लखनऊ चिड़ियाघर में प्रातः भ्रमणशील नारियों के बीच उनका सुमधुर भक्ति संगीत उन्हें उनमें बहुत लोकप्रिय बनाता है। वह बिना साज-सांजिदों के अपना भक्तिगीत सुनाती हैं और सभी का प्रातःकाल भक्तिमय हो जाता है। यहां उनका यह सिलसिला वर्षों से जारी है। निशा गुप्ता का भक्ति संगीत उनकी उम्र से आगे चलता है और यही आध्यात्मिक संगीत की सच्चाई भी है कि वह कभी बूढ़ा नहीं होता। एक दिन मेरी जिज्ञासा हुई कि मैं उनके भक्तिभाव भक्ति संगीत और उनकी जीवनशैली पर उनसे बात करुं। उनसे बातचीत स्त्री समुदाय के लिए बेहद जागरुक एवं उच्च सोच से समृद्धशाली है, जिसमें उनका जीवन एक सहधर्मिणी एक घरेलू महिला एक सामाजिक महिला एक संगीतमय महिला एवं वैसी ही एक सामाजिक शिक्षिका के रूपमें परिलक्षित होता है। प्रस्तुत है बातचीत।
निशाजी जब आप यहां स्त्रियों के बीच होती हैं तो कभी तो ऐसा लगता है कि न केवल आप वातावरण को भक्तिमय बना देती हैं, बल्कि ऐसा भी लगता है कि जैसे यहां का प्रातःकाल आपसे शुरू हुआ हो...
ज़ू प्रशासन का धन्यवाद!
जी सबसे पहले मैं ज़ू प्रशासन और उसके फील्ड स्टाफ को इस बात के लिए बधाई और धन्यवाद देना चाहती हूं कि उन्होंने इस प्राणि उद्यान को बहुत अच्छे से विकसित और सुसज्जित किया हुआ है, उन्होंने इसे रमणीक बना दिया है, जिसे यहां हर कोई देखने और अपनी खुशियां मनाने आना चाहता है, यहां वन्य प्राणी हैं, घने छायादार वृक्ष हैं, फूल हैं, पक्षियों की चहचहाहट है और यहां के गार्डों का आगंतुकों के प्रति व्यवहारपूर्ण सहयोग है, मै तो काफी समय ये यह वातावरण देखती आ रही हूं, इसी कारण यहां प्रातःभ्रमण पर आने वालों की संख्या कभी कम नहीं होती है, कदाचित मै प्रातःभ्रमण पर यहां आने वाली महिलाओं में सबसे पुरानी महिला हूं, जिसकी प्रातःकालीन दिनचर्या में यहां का बहुत योगदान है।
निशा गुप्ताजी आप स्वयं अपने बारे में कुछ बताएंगी?
भक्ति संगीत मेरी आध्यात्मिक शक्ति
देखिए! मैं तिहत्तरवें वर्ष में चल रही हूं, ये ज़िंदगी के दिन जैसे भी गुजरते हैं, वैसे गुजारने की कोशिश करती हूं, मुझे और तो ज्यादा कुछ आता नहीं है, क्योंकि शुरू से ही गृहणी रही हूं, बच्चों को पाला-पोसा बड़ा किया, मेरे दो बेटे हैं, इंजीनियर हैं, बेटी मेरी डॉक्टर है और दामाद भी सर्जन हैं, मैं इन सभी के साथ एडजस्ट करती हूं, लेकिन मैं आजकल एकदम अकेली रहती हूं, इसका कारण यह है कि प्रातःकाल भ्रमण के लिए मेरे लिए ज़ू सबसे अनुकूल एवं श्रेष्ठ स्थान है, जहां व्यायाम हो जाता है और सभी लोगों से मिलना-जुलना भी बना रहता है, मैं पहले यहां पर महिलाओं के बीच सत्संग में बहुत सक्रिय रहती थी, लेकिन वे महिलाएं भी अब नहीं रहीं या नहीं आ पाती हैं, लेकिन मेरी आध्यात्मिक रूपसे भगवान के प्रति गहरी आस्था है और कुछ भी हो मेरा शास्त्रीय आध्यात्मिक और भक्ति संगीत के प्रति अनुराग अनवरत है और जबतक हूं बना रहेगा। मैं दो सामाजिक क्लबों की सदस्य भी हूं, जिससे मुझे सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहने का अवसर मिलता है, अवध लेडीज़ क्लब एवं दूसरा वीमेंस एसोसिएशन लखनऊ, जब भी वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं तो मुझे उनमें शामिल होने का बहुत अच्छा मौका मिलता है, उम्र के लिहाज से अब शरीर साथ नहीं देता है तो तबला एवं सितार भी छूट गया है, अब मैं भगवान की भक्ति में लीन हूं और बस ज़िंदगी चल रही है।
हर स्त्री के जीवन में पति की भूमिका बड़ा महत्व रखती है, आपका क्या कहना है?
पति का हर कदम पर साथ जरुरी
जी हां, पति का हर कदम पर साथ जरुरी है, मेरे पति प्रोफेसर राजेंद्र कुमार गुप्ता एक प्रोफेसर होते हुए भी बहुत ही साधारण हंसमुख और उत्साही आदमी थे, वे उस्मानिया यूनीवर्सिटी में लाइब्रेरियन थे, लाइब्रेरी साइंस के प्रोफेसर भी थे, वे भी इसी प्रकार प्रातःकालीन भ्रमण पर यहां आया करते थे, अफसोस कि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं, 2009 में उनका हमारा साथ छूट गया, वे बहुत लर्नेड पर्सन थे, उनकी वजह से ही मैं संगीत के क्षेत्र में आई, मेरे पति की पोस्टिंग जब हिमाचल यूनिवर्सिटी में हुई तो मैने वहांसे शास्त्रीय संगीत में एमए किया, जब बच्चे छोटे थे तो घर का काम निपटाकर संगीत की क्लास करने जाया करती थी, मेरे पति का सागर विश्वविद्यालय में स्थानांतरण हुआ तो फिर वहां पर मैं शास्त्रीय संगीत सिखाती थी, मैंने राग सीखे, अभ्यास किया और फिर खैरागढ़ यूनिवर्सिटी से उसमें एमए भी किया, इसकी मेरे लिए बहुत वैल्यू थी, पति के रिटायरमेंट के बाद हम लखनऊ आए, बच्चों के साथ रहे, लेकिन माहौल कुछ ऐसा बना कि मेरा संगीत पहले जैसा चल नहीं सका, मेरे गले से संगीत निकलना ही बंद हो गया, एक दिन पति ने पूछा कि तुम्हें क्या हो गया है तो मैं रो पड़ी और उन्होंने कहा कि अब तुम रोज पास ही चिड़ियाघर में जाओगी और दो भजन रोजाना गाकर घर आओगी, इस प्रकार पति का हर कदम पर साथ रहा, उस प्रेरणा से मुझे बहुत बल मिला और मैंने यहां महिलाओं के बीच में भजन गाना शुरू किया, यह सिलसिला शुरू हो गया और तब से मैं रोज यहां आती हूं और भजन गाती एवं गुनगुनाती हूं, महिलाओं ने ही आग्रह किया कि वे उनके बीच भक्तिमय संगीत के साथ सत्संग किया करें, सो मैने किया, बाकी घूमने वालों को भी अच्छा लगता है और मेरी आध्यात्मिक चेतना भी जागृत रहती है, मै वाकिंग करती हूं, सूर्यदेव को नमस्कार हो जाता है, अपने को शारीरिक रूपसे फिट रखने की कोशिश करती हूं, एक घंटा यहां गुजर जाता है, मैं अपना काम स्वयं करती हूं, कभी किसी को संगीत सिखाने का अवसर मिल जाता है तो बहुत अच्छा लगता है।
आपकी संगीत की अभिरूचि को विस्तार देने में किसी और का भी साथ रहा है और दूसरा यह कि आपने लोकगीत एवं फिल्मी गीतों में क्या अंतर पाया?
प्रोफेसर कमला श्रीवास्तव को श्रेय
जीहां! आपने सही सवाल किया, भातखंडे समसंगीत विश्वविद्यालय लखनऊ की रिटायर्ड प्रोफेसर हैं-कमला श्रीवास्तव, उनका मुझे लोकगीतों और रागों में बड़ा सहयोग मिला, उनको इसका जरूर श्रेय दूंगी, मैंने 2008 तक उनके साथ बड़ी सफल कार्यशालाएं कीं एवं अनेक स्टेज प्रोग्राम किए, जिनसे हमें काफी लोकप्रियता मिली और आमंत्रण मिले, हमें होली चैती यह सब गाने के अवसर मिले, दरअसल मेरी शादी बाद ही मुझमें संगीत की कला को निखारने का अवसर मिला, क्योंकि मेरे पति को भी गाना सुनना बहुत अच्छा लगता था, कभी-कभी वो महफिल में भी गानों की प्रस्तुति पर सुझाव भी दिया करते थे, उनके फ्रेंडस कहा करते थे कि भाईसाहब आपने भाभीजी से तो गवा लिया, खुद क्यों नहीं गाते हो तो वे कहा करते थे कि मैं तो लिसनर हूं, ऑडियंस हूं, मैं गाना सुनने का शौकीन हूं, उन्हें मेरे सारे गाने याद थे, देखिए जहांतक लोकगीतों और फिल्मी गीतों में अंतर का प्रश्न है तो मेरा यह मानना है कि लोकगीतों ने ही फिल्मी गीतों को उनके विकास का रास्ता दिखाया है, क्योंकि पुराने लोकगीतों और उनकी धुनों में भारतीय शास्त्रीय संगीत है, जिन कारण खूब लोकगीत बने हैं, भारतीय संस्कृति ही लोकगीतों में बसती है, पापुलरटी फिल्मी गीतों में ज्यादा है, लेकिन लोकगीत ग्रामीण संगीत की आत्मा है और गावों में इनका बहुत चलन है।
आपकी पढ़ाई कैसी रही और आप संगीत विधा की धनी होने के नाते औरों की तरह ख्याति अर्जित क्यों नहीं कर पाईं?
कई संघर्ष और उतार-चढ़ाव आए
मैं इलाहाबाद की रहने वाली हूं, आनंद भवन के सामने हमारा घर होता था, मेरी शिक्षा भी इलाहाबाद से ही हुई है, लेकिन इंटरमीडियट तक उसके बाद ही मेरी शादी हो गई थी, मैं अपने सास-स्वसुर का बड़ा ही आभार प्रकट करती हूं, जिन्होंने मेरी इच्छा का समझकर मुझे आगे की पढ़ाई का अवसर अवसर दिया, मैंने अपने घर का काम भी किया और आगे की स्नातक की पढ़ाई भी सफलतापूर्वक पूरी की, मेरी मां कहती थी कि पढ़ाई तो करना, लेकिन ससुराल के घर का काम प्रभावित नहीं होना चाहिए, मेरे पास तुम्हारी कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए, सो मैंने वैसा ही किया, किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया और मैं एवं मेरी ननद ने जुबली कॉलेज लखनऊ से अपनी पढ़ाई पूरी की, मुझमें संगीत प्रतिभा को देखकर मेरी क्लास टीचर ने भी हमें बहुत सपोर्ट किया, आज भी मुझे उनकी बहुत याद आती है, लेकिन सबको सबकुछ नहीं मिल जाता, मैं कह सकती हूं कि आगे की घरेलू परिस्थितियों ने संगीत में उतना साथ नहीं दिया, कई संघर्ष आए और कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन फिर भी संतुष्ट हूं।
तो आपको अपने जीवन में कैसी सहेलियों, शिक्षिकाओं की प्रेरणाएं एवं संगीत शिष्याओं की संगत मिली, जिनसे आप कहती हैं कि आप अपने जीवन से संतुष्ट हैं?
आज माहौल बदल गया है
देखिए यह बड़ा लंबा विषय है, जीवन में हर प्रकार का वातावरण देखने को मिलता है, संगत मिलती है, यह आपको तय करना है कि आप क्या चाहते हैं, मुझे तो सभी का और अच्छा सहयोग मिला है और दूसरी बात यह है कि आजकल जिस प्रकार माहौल है, उसमें कुछ महिलाएं भी इधर-उधर की बातें भी करती हैं, मगर मेरी उनमें कभी दिलचस्पी नहीं रही, ऐसी महिलाएं जहां भी हुईं हैं, मैंने उनसे अलग होकर अपना काम किया है, आज भी मैं महिलाओं के बीच ऐसी स्थिति में विषय परिवर्तन कर देती हूं, भजन गाने लगती हूं, मेरा सामाजिक जीवन के प्रति भी झुकाव है सो मुझे इसमें काम करके बहुत अच्छा लगता है, हम ज्यादातर बाहर रहे हैं, पति के रिटायरमेंट के बाद मैं 1998 में लखनऊ आ गई थी, तभी से हम दोनों किसी न किसी रूपमें सक्रिय रहे हैं, हमें नरही में रहना अच्छा लगा, क्योंकि हमारे पास ज़ू है, जो इस क्षेत्र का एक समग्र रमणीक वातावरण प्रदान करता है।
निशाजी आपका आध्यात्मिक पक्ष शुरू से ही आपकी प्राथमिकता रहा है या उम्र के साथ आपने इसे स्वीकार किया एवं इससे अपने जीवन को जोड़ लिया?
मैं शुरू से ही आध्यात्मिक हूं
देखिए मैं शुरू से ही आध्यात्मिक हूं और इसके प्रति सजग हूं, क्योंकि मेरे माता-पिता के घर मेरे बचपन से ही एक आध्यात्मिक और संस्कारपूर्ण वातावरण रहा है, हम चार बहनें और एक भाई हैं, मेरे पिता होम्योपैथी के विख्यात चिकित्सक रहे हैं और मेरी माता बहुत धर्मपरायण, सो मुझे संस्कारों की समृद्धता तो जन्म से ही मिली है, उसी का क्रम ससुराल में भी एवं पति के साथ भी बना रहा, हमने सुख-दुख और जीवन संघर्ष को समान रूपसे स्वीकार किया है, मेरा मानना है कि सुख-दुख जैसी दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्य को ईश्वर का स्मरण करना चाहिए, अच्छाईयों की प्रशंसा करनी चाहिए एवं अपनी क्षमतानुसार दूसरों की सहायता करनी चाहिए।
आध्यात्मिक संतुष्टि और आत्म संतुष्टि क्या है और आपकी समाज से क्या अपेक्षाएं हैं?
बस अपने कर्तव्य पर डटे रहिए!
मैं अपना कार्य और अपनी दिनचर्या को सुव्यवस्थित रखती हूं और समय के हिसाब से अपने आध्यात्मिक पक्ष को अपने भीतर उतारती हूं, उससे मुझे जो आत्मानुभूति होती है, वह मेरे जीवन की संतुष्टि है, मुझे बहुत अच्छा लगता है जब मैं अपनी भक्तिमय अभिरूचि को दूसरों के सामने प्रस्तुत करती हूं और दूसरे उसका सम्मान और प्रशंसा करते हैं और वह भी भक्तिमय हो जाते हैं, यही तो जीवन है, जो आत्मानुशासन से सहज हो सकता है, मैं यही कहूंगी कि अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहिए और अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ अच्छा करते रहिए, ईश्वर की स्तुति कीजिए, जिससे मन में विचारों की गुणवत्ता बनी रहती है, यदि आप सचमुच सच्चाई और मेरा अनुभव जानना चाहते हैं तो फैक्ट यह है कि अपवाद को छोड़कर मुझे समाज से कोई आशा नज़र नहीं आती है, क्योंकि सब अपने में जी रहे हैं, चाहे सामाजिक आदमी हो या नेता हो, सब अपनी कुर्सी-मेज संभाले हुए हैं, कोई किसी के दुख को दूर नहीं करता और ना ही करना चाहता है, सब स्वांतः सुखायः के लिए करते हैं।
आप आज समाज में किस प्रकार का वातावरण देख रही हैं?
जीवनशैली में अनुशासन लाएं लड़कियां!
मैं महिलाओं की बात करूं तो आज पहनावे से लेकर जीवनशैली तक ने स्त्री पक्ष को कोई ऐसी राह नहीं दी है, जिसको संस्कारपूर्ण मान्यता नहीं दी जा सकती हो, अभिभावक चुप हैं आखिर क्यों? मैं टीवी सीरियलों को भी न के बराबर देखती हूं, क्योंकि उनमें सबकुछ ठीक नहीं है, बालिकाओं लड़कों लड़कियों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है, यह हमारी निराशाजनक स्थिति है, तन ढककर रहने में ही अपनी भारतीयता है, सुंदरता है, सांस्कृतिक समृद्धि है, वह खुलेपन में नहीं है, उसे चाहे कोई भी सही कहे और समाज मान्यता देता रहे, मैं लड़कियों से कहूंगी कि वे अपने पहनावे और जीवनशैली में अनुशासन लाएं जो आगे चलकर उनके जीवन को उज्जवलता एवं सम्मान प्रदान करेगा, मगर आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि किसी को सही शिक्षा भी दें तो कुछ लोग और अभिभावक भी बुरा मान जाते हैं, इसलिए हम देखते हैं और चुप रहने को विवश हो जाते हैं, जब अभिभावक ही चुप हैं तो और कोई क्या करे?
भारत में हमारी नारियों और लड़कियों ने विभिन्न क्षेत्रों में बड़े काम और नाम पैदा किए हैं, चाहे वह वीरांगनाओं का क्षेत्र रहा हो, चाहे शिक्षा या खेलकूद का क्षेत्र रहा हो, अब तो प्रशासन में उनकी भागीदारी बढ़ रही है, देश में नारी सशक्तिकरण का अभियान चल रहा है...
भारतीय नारी बहुत क्षमतावान!
जी आप सही कह रही हैं, भारतीय नारी बहुत क्षमतावान है, वह किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने का जज्बा रखती है, इसीके लिए तो आत्मानुशासन जरूरी है, नारी अपने आपको, घर को संभालती है और सामाजिक व्यवस्थाओं में भी अपनी भूमिका निभाती है, इसलिए उसे बड़ा सहयोग सम्मान एवं अवसर प्रदान करना चाहिए, मेरा पुनः अभिभावकों से कहना है कि बच्चों और बालिकाओं के पालन-पोषण और अनुशासन का भी ध्यान रखना चाहिए और उनको सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलनी चाहिए, ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए कि अभिभावक खुली छूट दे दें, जिसके बुरे परिणाम भी सामने आते हैं, मैंने गृहणी के रूपमें इस पक्ष का बहुत ध्यान रखा है, यही कारण है कि आज मेरे बच्चे प्रगति कर रहे हैं और अपने व्यवसायिक क्षेत्र में अपना नाम कमा रहे हैं, एक अभिभावक के रूपमें यह मेरी संतुष्टि का एक आदर्श पक्ष है।
आप जिस उम्र में हैं, उसमें अनेक माता-पिता अपने बच्चों की उपेक्षा के शिकार हैं, यहां तक कि कई बार ऐसा सुनने को मिलता है कि बेटा-बहू ने वृद्धावस्था में सास-ससुर को अकेला छोड़ दिया, घर से निकाल दिया वगैरह-वगैरह, यानी जिस उम्र में उन्हें आध्यात्मिकता का सुख मिलना था, उस उम्र में वे तनावभरा जीवन जी रहे हैं...
मां-बाप की सेवा कीजिए!
आजकल तो यही ट्रेंड हो गया है, लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था, संयुक्त परिवार हुआ करते थे और कई-कई परिवारों का एक ही तवे पर खाना बनता था, एक दूसरे के साथ खड़े रहते थे, लेकिन एकल परिवार के चक्कर में लोग अपने अभिभावकों को ही छोड़ने लगे हैं, जो माता-पिता आत्मनिर्भर हैं, उनको भी एकाकी जीवन जीना पड़ रहा है, क्योंकि परिवार नाम की संस्था की अवहेलना जो हो रही है, ऐसा नहीं होना चाहिए, आखिर माता-पिता ही सबकुछ हैं, जो बच्चों के जीवन को आधार देते हैं, उनका कोई विकल्प नहीं है, वृद्धावस्था में उनकी देखभालकर अपना धर्म निभाईए और मां-बाप का कर्ज़ अदा कीजिए, ठीक है कि परिस्थितियों के अनुसार चलना पड़ता है, लेकिन परिस्थितियां चंद प्रयासों से अनुकूल भी बनाई जा सकती हैं। खैर मैं अपने बच्चों के जीवन में खलल नहीं डालती हूं, जिससे वे भी अपने में खुश हैं और मैं भी खुश हूं।