फ़ीरोज़ अशरफ़
Monday 10 September 2018 12:00:08 PM
पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने एक बार फिर अपनी साख ऊपर बनाए रखने के साथ-साथ पाकिस्तान के तेरहवें राष्ट्रपति का चुनाव करा दिया है। पिछले सप्ताह हुए राष्ट्रपति के चुनाव में प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ के उम्मीदवार आरिफ़ अलवी विजयी हुए। कराची के जाने-माने डेंटिस्ट और साथ में सामाजिक कार्यकर्ता भी आरिफ़ अलवी साहब की राजनीति में दिलचस्पी थी, लेकिन वह एक साफ सुथरी राजनीतिक पार्टी में जाना चाहते थे। इमरान खान की पार्टी उन्हें बेऐब नज़र आई और उन्होंने पार्टी बनने के थोड़े दिन बाद उसे ज्वाईन कर लिया। आरिफ़ अलवी के बारे में जो दिलचस्प जानकारी सामने आई वो यह है कि उनके दादा भी डेंटिस्ट थे और उनके मरीज़ो में हमारे पंडित जवाहर लाल नेहरु का नाम भी लिया जाता है।
पाकिस्तान की ऐसी ही दूसरी ख़बरों पर भी ग़ौर फरमाईए-जानकारी मिलती है कि दूसरे कई पाकिस्तानी सत्ताधारियों और ऐसे बड़े नामों का किसी न किसी प्रकार संबंध बना हुआ है। एक सूचना पाकिस्तान निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में है। वैसे तो उनका जन्म कराची में हुआ था, लेकिन पालन पोषण और स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ रहना सहना, काम धंधा और उसके साथ उनकी राजनीति भी मुंबई में हुई। मुंबई से उन्हे अत्यंत प्यार था। इसमें भी शक नही कि शुरू के दौर में जिन्ना कई वर्ष तक कांग्रेस के बड़े लीडरों में गिने जाते थे। ये तो मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की मांग से उनका सारा गुड़ मिट्टी हो गया, वर्ना आज इतिहास तो कुछ और ही होता।
मोहम्मद अली जिन्ना की सियासी ज़िंदगी महान स्वतंत्रता सेनानी दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और सरोजनी नायडू इत्यादि की छत्रछाया से शुरु हुई थी, बाद में जो हुआ सो हुआ। बताते चलें कि उनकी छोटी बहन फ़तिमा जिन्ना ने सन 1911-12 में कोलकाता से डेंटिस्ट की डिग्री ली थी, लेकिन उन्होंने प्रेक्टिस के बजाए भाई की सेक्रेटरी का रोल अदा किया। यहां तककि फातिमा जिन्ना अपने भाई की अंतिम सांसो तक उनके साथ रहीं। मोहम्मद अली जिन्ना की जीवनी लिखने वालों ने लिखा है कि वे अपने अंतिम दिन मुंबई में अपने मालाबार हिल बंगले में गुजारना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने सन 1947-48 में पाकिस्तान में भारतीय हाई कमिश्नर श्रीप्रकाश के जरिए नेहरुजी के पास संदेश भी भेजा था।
फातिमा जिन्ना ने भाई के मरने के बाद राजनीति से किनारा कर लिया और एक प्रकार से सन्यास ही ले लिया, लेकिन सन् 1962 में फौजी तानाशाह जनरल अय्यूब खां के सामने पाकिस्तान के सभी राजनीतिक दलों ने फातिमा जिन्ना पर दबाव डालकर उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में उतार दिया। अब यह कैसे होता कि जनरल अय्यूब खां जैसा उम्मीदवार राष्ट्रपति के चुनाव में हारता? उसे तो हर हाल में विजयी होना था, चाहे सामने फातिमा जिन्ना ही क्यों न हों। वही हुआ भी कि फातिमा जिन्ना राष्ट्रपति के चुनाव में हारी नहीं, बल्कि उन्हें पाकिस्तान के फौजी शासन ने हरवा दिया। उसके बाद उन्होंने राजनीति से सन्यास ले ही लिया। अय्यूब खां ने अपने फौजी बूटों से राष्ट्रपति के नाम पर लोकतंत्र और अपने सभी विरोधियों को जमकर रौंदा। फौजी राष्ट्रपति से इसी बात की ही उम्मीद की भी जाती है।
अय्यूब खां के बाद पाकिस्तान में सन् 1977 से सन् 1988 तक स्वयं को राष्ट्रपति बनाकर जनरल जिया उल हक ने ऐसे वैसे उपायों, वही सब कुछ, याने विरोधियों को कुचल कर, संविधान को तोड़ मरोड़कर अपनी मर्जी का पर्लियामंट यानी गैर राजनीतिक दलों की चुनी हुई मजलिसे शूरा बनाई और फिर जमकर दमनचक्र चलाया। देखा जाए तो मुहम्मद अली जिन्ना ही पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति थे। इस पद के लिए उन्हें पाकिस्तान की संविधान सभा ने चुना। उनके मुकाबले में कोई दूसरा उम्मीदवार था ही नही और हो भी नही सकता था। उधर पाकिस्तान बनाने में प्रमुख रोल निभाने वाले अंग्रेज़ी शासन को इस बात की परवाह नही थी कि पाकिस्तान का राष्ट्रपति कौन बने, फिर भी ब्रिटिश शासन ने सुझाव दिया था कि सन् 1947-48 में जबतक हालात सुधर नही जाते, दोनों देशों के एक ही गवर्नर जनरल बनाम राष्ट्रपति हों।
अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन इस प्रकार भारत में पाकिस्तान के भी गवर्नर जनरल या राष्ट्रपति होते, लेकिन जिन्ना को यह बात स्वीकार नही थी। वह जैसे तैसे जल्द से जल्द सत्ता की कुर्सी पर बैठना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने 13 अगस्त 1947 को पाकिस्तानी संविधान सभा से स्वीकृति ली। चूंकि वह एक वकील भी थे, इसलिए कानूनी तौरपर उन्होंने स्वयं को कानूनी सीमा में रहने का पासपोर्ट ले लिया। उसके बाद उन्होंने बतौर गवर्नर जनरल सबसे पहले सूबा सरहद में सरहदी गांधी के भाई समद खान के कांग्रेसी शासन को बरखास्त करके गवर्नर शासन स्थापित किया और बाद में इकड़म तिकड़म से पाकिस्तान में मुस्लिम लीग का शासन स्थापित कर दिया। इस प्रकार देखा जाए तो और जो सच भी है कि गवर्नर जनरल बनाम राष्ट्रपति द्वारा लोकतंत्र की स्थापना और उसे बनाए रखने की शुरुआत ही गड़बड़ हो गई। वह सिलसिला 2001 तक चला, जब जनरल परवेज मुशर्रफ ने भी राष्ट्रपति की शेरवानी पहनी और अपना दमनचक्र चलाया। उनके पहले अय्यूब खां के बाद जियाउल हक के साथ साथ गवर्नर जनरल या राष्ट्रपति के विशेषधिकार का जनरल मुशर्रफ ने भी उपयोग किया।
पाकिस्तान में सिविलियन राष्ट्रपति भी कई सिविल्यन मंत्रिमंडलों को बरखास्त कर चुके हैं। सन् 1996-97 में बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने मिलकर भी राष्ट्रपति के कई विशेषाधिकारों के पर काटे हैं, लेकिन वह पाकिस्तान है। पाकिस्तान के अबतक के इतिहास के अनुसार वहां के राष्ट्रपतियों ने भी लोकतंत्र की जमकर धुनाई की है। जो भी हो इमरान खान को भी अपने नए राष्ट्रपति पर नज़र रखनी होगी, क्योंकि पाकिस्तानी सियासत में कभी भी कुछ भी होता रहा है। (फ़ीरोज़ अशरफ़ मुंबई के जानेमाने पत्रकार और विश्लेषक हैं)।