Saturday 22 September 2018 05:23:37 PM
दिनेश शर्मा
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में भाजपा को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक दल इस समय खासतौर से 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए ब्राह्मणों में 'कस्तूरी' खोज रहे हैं। आदिकाल से यह राजनीतिक मान्यता है कि ब्राह्मण प्रचंड सत्ता का एक महत्वपूर्ण कारक है, जिसकी आसानी से उपेक्षा नहीं की जा सकती, मगर मतलबपरस्त राजनीति में यह सब हो रहा है और उसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। इस दौर का सबसे ज्वलंत उदाहरण राजनेता मायावती हैं, जिन्होंने ब्राह्मण विरोध से दलित समाज को एकजुट तो कर लिया, लेकिन ब्राह्मणों के बिना मायावती चल भी नहीं पाईं और अंततः उन्हें राजनीति और सत्ता के लिए ब्राह्मणों की ही शरण में जाना पड़ा। यह सच है कि ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी यदि बसपा को भाजपा का समर्थन नहीं दिलाते तो मायावती कभी भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री नहीं हो पातीं। यह अलग बात है कि मायावती ने अपने स्वार्थ में अटल बिहारी वाजपेयी से विश्वासघात किया और कभी आयरन लेडी कहलाईं मायावती आज सत्ता में आने के लिए दूसरों के सामने घुटने टेकने को मजबूर हैं और उन्हें कहीं से सफलता की किरण नज़र नहीं आ रही है। यह भी सच है कि ब्राह्मण मायावती का साथ छोड़ चुका है और अपवाद को छोड़कर वह इस समय भाजपा के साथ है। इसी प्रकार कांग्रेस सपा और बसपा 2019 में ब्राह्मण चेहरे और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने की कोशिश में हैं, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल रही है, यह तब है जब ये दल भी जान रहे हैं कि ब्राह्मणों में भाजपा को लेकर भी नाराज़गी है, इसके बावजूद ब्राह्मणों को लेकर भाजपा का पलड़ा भारी है और भाजपा ब्राह्मणों पर और ज्यादा ध्यान देने की रणनीति पर काम कर रही है।
भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में उम्मीदों को 2007 में तब बड़ा झटका लगा था, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा को अपने बल पर पूर्णबहुमत प्राप्त हुआ और भाजपा को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। कोई माने या न माने बसपा के इस बहुमत के पीछे ब्राह्मण महत्वपूर्ण कारक था, जिसने सपा कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर न केवल बसपा को मतदान किया और कराया, बल्कि ब्राह्मण वातावरण से और कई जातियां भी बसपा के साथ गईं। मायावती ने पूर्णबहुमत का भारी दुरूपयोग किया और उन ब्राह्मणों को भी येनकेन हाशिए पर ढकेलने की कोशिश की, जिनके समर्थन और प्रभाव से मायावती को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था। मायावती ने यह सबक नहीं लिया कि अटल बिहारी वाजपेयी के आशीर्वाद से ही उनकी किस्मत में प्रचंड राजयोग आया था, जिसमें तब भाजपा के किले तो ढह गए थे और मायावती और उनके चिंटुओं के महल के महल खड़े हो गए। मायावती की ब्राह्मणों को बसपा से जोड़ने की कोशिशों में ही उत्तर प्रदेश में उन्हें एक दो और कद्दावर ब्राह्मण नेता मिले, जिनमें एक रामवीर उपाध्याय और दूसरे साफ छवि के लोकप्रिय और प्रचंड छात्रनेता ब्रजेश पाठक। रामवीर उपाध्याय तो अभी भी मजबूरीवश बसपा में हैं, जबकि ब्रजेश पाठक आज भाजपा में हैं, योगी सरकार में मंत्री हैं और ब्राह्मणों का एक शक्तिशाली चेहरा हैं। बसपा में जहां तक सतीशचंद्र मिश्र का सवाल है तो वह नेता नहीं हैं, बल्कि मायावती के वकील हैं और उन्हें ब्राह्मणों ने कभीभी ब्राह्मण नेता नहीं माना है। कहा जा सकता है कि भाजपा के पास ब्राह्मण भी हैं और ब्राह्मण चेहरे भी हैं, जबकि दूसरे राजनीतिक दलों के पास अब न ब्राह्मण हैं और न प्रभावशाली ब्राह्मण चेहरे हैं। भाजपा की चुनौती यह है कि वह उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों और ब्राह्मण चेहरे को सामने रखकर उन्हें जोड़कर 2019 के लोकसभा चुनाव में उतरे।
भाजपा में ब्राह्मण राजनीति और ब्राह्मण चेहरों पर गौर करने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना होगा। भाजपा नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व ही उत्तर प्रदेश भाजपा संगठन और उसके सेनापतियों को चुस्त-दुरुस्त करने में लगा है। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के मंत्रियों के कामकाज और कार्यप्रणाली पर बड़ी तेजी और गहनता से पड़ताल का अंतिम दौर चल रहा है, जिसमें यह तय होना है कि चुनावपूर्व योगी मंत्रिमंडल में किसे बाहर किया जाए, किसे बनाए रखा जाए, किसकी पदोन्नति की जाए और किसे संगठनात्मक जिम्मेदारियां दी जाएं। पड़ताल और समीक्षा के बिंदुओं में मंत्री-राज्यमंत्री की छवि, उपयोगिता और क्षेत्रीय एवं सामाजिक संतुलन है तो मंत्रियों और शासन-प्रशासन के बीच सुशासन को लेकर गतिरोध भी एक गंभीर मुद्दा है, जिसमें यह तथ्य प्रमुख है कि स्थानीय प्रशासन के अधिकारीगण मंत्री-राज्यमंत्री और क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं की वास्तव में उपेक्षा करते पाए जा रहे हैं तो उनपर भी गाज गिरनी चाहिए। कई मंत्री-राज्यमंत्री नेता-कार्यकर्ता ऐसे हैं, जिनकी प्रशासन में भारी उपेक्षा होती आ रही है, जिसका चुनाव पर नकारात्मक असर जा रहा है और कुछ ऐसे हैं, जो राजनीतिक रूपसे सामने वाले को डाउन करने की राजनीति में संलिप्त हैं, ऐसे भी मामले नेतृत्व के संज्ञान में हैं, जिनपर नेतृत्व को कड़ाई से फैसला लेना है, इसलिए उत्तर प्रदेश में भाजपा और सरकार में राजनीतिक सुगबुगाहट है और उसके अप्रत्याशित परिणाम सामने आने वाले हैं। लोकसभा चुनाव को देखते हुए यह भी देखा जा रहा है कि कौन कहां अपने तार जोड़ने में लगा है, यद्यपि जनसामान्य में सरकार से नहीं, अपितु स्थानीय प्रशासन से घोर नाराज़गी है, जिसका भाजपा पर असर दिखाई दे रहा है, तथापि भाजपा समस्त प्रकार के लोकापवाद को चुनावपूर्व ही खत्म करने की अपनी नई रणनीति पर काम कर रही है।
भाजपा और सरकार की सुगबुगाहट में ब्रजेश पाठक बहुत तेजी से वायरल हो रहे हैं। उनके प्रोफाइल पर जाएं तो मुख्यरूप से उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के मल्लावां निवासी ब्रजेश पाठक को सभी जानते हैं। छात्र राजनीति से होते हुए बसपा में बुलाए गए और पहलीबार उन्नाव से बसपा से सांसद बने ब्रजेश पाठक का राजनीतिक बचपन बेहद संघर्ष और कठिनाई से गुज़रा है, लेकिन उनके छात्र राजनीतिक जीवन में आजतक कभी ऐसा नहीं देखा गया कि उन्होंने रातोंरात सफलता हांसिल करने के लिए कोई शार्टकट मारा हो। ब्रजेश पाठक शुरू से एक समर्पित छात्र और छात्रनेता रहे हैं। उनको करीब से जाननेवाले कहा करते हैं कि वे हमेशा कुछ नया सीखने के लिए उत्सुक और छात्रजीवन से ही समाज की सेवा करने को तत्पर रहे हैं और रहते हैं। व्यवहार कुशलता और दूसरे की परेशानी को तुरंत समझना, उसका सामने ही समाधान करने की ईमानदार कोशिश करना ब्रजेश पाठक के प्रशासन और सदाबहार व्यक्तित्व की विशेषताएं मानी जाती हैं। राजनीति में वे शुरू से राजनाथ सिंह के अत्यंत करीबी माने जाते हैं, जिनके साथ-साथ वे भाजपा और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की भी पसंद बने। यह ब्रजेश पाठक की विश्वसनीय राजनीतिक चमक थी कि वे बसपा से भाजपा में लिए जाने के बाद उत्तर प्रदेश भाजपा युवा मोर्चा के अध्यक्ष बनाए गए। उनको उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की लखनऊ मध्य विधानसभा की प्रतिष्ठापूर्ण सीट से भाजपा हाईकमान ने उम्मीदवार बनाया और उन्होंने दिग्गज उम्मीदवारों के बीच शानदार विजय दर्ज की, जिसके बाद योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल में सीधे कैबिनेट मंत्री बनाए गए। माना जाता है कि भाजपा हाईकमान का यह भरोसा सफल सिद्ध हुआ है, इसीलिए उत्तर प्रदेश भाजपा और सरकार की राजनीतिक सुगबुगाहट में ब्रजेश पाठक का कद बढ़ाए जाने की बात बहुत तेजी से वायरल हो रही है।
ब्रजेश पाठक को लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ की राजनीति ने बड़ा ब्रेक दिया, जिसमें उनकी गज़ब की छवि और पहचान बनी, जिसमें वे एक कुशल संगठक के रूपमें भी सामने आए। यूं तो वे एक छात्रनेता के रूपमें सभी वर्गों में लोकप्रिय हुए हैं, लेकिन उन्हें एक तेज़तर्रार ब्राह्मण राजनीतिक चेहरे के रूपमें भी मान्यता मिली। किसी भी नेता को राजधानी या उसके आसपास उसकी लोकप्रियता का तेजीसे लाभ मिलता है, इसलिए बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने जब अपनी जातिवादी राजनीति से थक-हारकर सर्वसमाज के लिए सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का नारा अपनाया और ब्राह्मणों से सार्वजनिक नफरत छोड़कर उनको जोड़ने की रणनीति अपनाई तो उन्हें छात्रनेता और वह भी ब्राह्मण के रूपमें ब्रजेश पाठक का लोकप्रिय चेहरा और नाम दिखाई और सुनाई पड़ा। मायावती ने ब्रजेश पाठक में राजनीतिक क्षमताएं देखकर उन्हें बसपा में लिया और प्रायोगिकतौर पर राजनीतिक जिम्मेदारियां सौंपी, जिनमें ब्रजेश पाठक ने एक छात्रनेता और ब्राह्मण चेहरे की अपनी उपयोगिता का लोहा मनवाया। इसके बाद ब्रजेश पाठक उन्नाव से बसपा के टिकट पर सांसद निर्वाचित हुए और फिर दोबारा ब्राह्मण चेहरे के रूपमें उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सदस्य भी बनाए गए, किंतु कहा जाता है कि बसपा में उनके उत्कृष्ट योगदान का स्तरहीन अनुमान लगाने, मायावती की तानाशाही शैली, व्यक्तिगत केंद्रित राजनीति, सामाजिक सम्मान और संरचनात्मक मतभेदों के कारण ब्रजेश पाठक ने अपने राजनीतिक करियर का एक विशाल कदम उठाया और 23 अगस्त 2016 को बीजेपी में शामिल हो गए। इससे बसपा को बड़ा झटका लगा। ब्रजेश पाठक ने बसपा को ब्राह्मणों में लोकप्रिय बनाने के लिए जो किया, वह कोई आसान नहीं था, जिसे लगभग सभी जानते हैं। भाजपा ने उनके महत्व को समझा और यह माना है कि ब्रजेश पाठक साफ-सुथरी छवि के एक दमदार और कद्दावर ब्राह्मण चेहरा हैं।
भाजपा का सरकार में भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के प्रभावी नेताओं के समायोजन और धूमिल छवि के मंत्रियों पर सबसे ज्यादा फोकस है। इसी प्रकार मोदी सरकार के दो निर्णय गहन मंथन में हैं, जिनमें एक एससी-एसटी एक्ट में उद्देश्यपूर्ण संशोधन, जिससे सपा-बसपा के संभावित गठबंधन में दरार पड़ गई है और दूसरा राष्ट्रीय पिछड़ावर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा, जिससे मोदी-योगी सरकार ने विपक्ष की वोटों की रणनीतियों की हवा निकाल दी है। एससी-एसटी एक्ट पर केंद्र सरकार को अपरकास्ट की नाराज़गी का असर तो दिख रहा है, लेकिन भाजपा इस भ्रांतिजनित असंतोष को दूर करने का प्रयास भी कर रही है। योगी मंत्रिमंडल के सदस्यों को इस मुद्दे पर जनता के रोष का सामना करना पड़ रहा है, इसलिए हो सकता है कि मध्य प्रदेश की तरह उत्तर प्रदेश में इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकने का कोई रास्ता निकाल लिया जाए। इस प्रकार के मुद्दे हल करके उत्तर प्रदेश में आंतरिक परिवर्तन के साथ ही भाजपा 2019 की तैयारियों के लिए चुनाव का श्रीगणेश करना चाहती है। आशा की जाती है कि यह सब जल्द होगा और इसके केंद्र में वे चेहरे होंगे, जो प्रभावशाली रूपसे भाजपा के लिए विजयी वातावरण विकसित करेंगे। भाजपा को इस समय उत्तर प्रदेश में सरकार में एक ऐसे ब्राह्मण चेहरे की आवश्यकता है, जो प्रत्येक दृष्टि से पसंददीदा हो, भरोसेमंद हो और युवाओं को आकर्षित करता हो। इस चेहरे के रूपमें जो नाम सबसे ऊपर चल रहा है, वह योगी मंत्रिमंडल के युवा सदस्य ब्रजेश पाठक हैं, जिनपर इस वक्त विधायी एवं न्याय, अतिरिक्त ऊर्जास्रोत और राजनीतिक पेंशन की जिम्मेदारी है।
भाजपा में ब्राह्मण चेहरे के रूपमें और भी नाम हैं, जो भाजपा और सरकार की पदोन्नति सूची में शामिल बताए जाते हैं, लेकिन ब्रजेश पाठक के मुकाबले कोई नज़र नहीं आता है। ब्रजेश पाठक की कार्यप्रणाली ने इसे सिद्ध किया है। उत्तर प्रदेश भाजपा में या सरकार में यह देखा समझा जा रहा है कि जिन नेताओं का आधार सवर्ण समाज में सर्वाधिक हो, उनका कद बढ़ाकर सवर्ण समाज को विश्वास दिलाने और उसे अपने पाले में लामबंद करने की पुरजोर कोशिश की जाए। ब्रजेश पाठक बीएसपी में सोशल इंजीनियरिंग के सूत्रधार और 2007 में बसपा की मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाने में प्रमुख भूमिका में रहे हैं और सभी समीकरणों को देखकर समझा जा रहा है कि भाजपा उनका कद बढ़ाकर ब्राह्मण समाज को पूरी तरह अपने पक्ष में लामबंद करने की कोशिश कर सकती है। देखना है कि भाजपा के चुनाव और संगठन के रणनीतिकार क्या निर्णय लेते हैं। इतना तो तय है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सबसे जटिल और आसानी से नहीं सधने वाला समाज है, जिसके सामने घिसेपिटे ब्राह्मण चेहरे चल पाना संभव नहीं है। योगी सरकार में जो ब्रजेश पाठक की शानदार कार्यशैली और जनसंपर्क देख रहे हैं, उससे हर कोई प्रभावित हो सकता है। ब्रजेश पाठक के गोमतीनगर लखनऊ आवास पर अनवरत हर सवेरे बड़ी संख्या में प्रदेशभर से पहुंचने वाली ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की भीड़ देखकर तो यही मतलब निकलता है।