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Monday 11 March 2013 07:52:29 AM
चित्तौड़गढ़। रचनाकार को अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ ही सामाजिक यथार्थ को ध्यान में रखकर रचनाएं गढ़नी चाहिएं, जो लेखक सच और सामने आते हालातों को दरकिनार कर आज भी प्रकृति और प्यार में ही लिख रहा है तो ये समय और समाज कभी उसे माफ़ नहीं करेगा, वे तमाम शायर मरे ही माने जाएं जो अपने वक़्त की बारीकियां नहीं रच रहे हैं, इस पूरी प्रक्रिया में ये सबसे पहले ध्यान रहे कि कविता सबसे पहले कविता हो और बाद में और कुछ। ये विचार साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी के संरक्षक और हिंदी समालोचक डॉ सत्यनारायण व्यास ने नौ मार्च को चित्तौड़ में कवि संगोष्ठी में व्यक्त किए।
युवा समीक्षक डॉ कनक जैन के संचालन और गीतकार अब्दुल ज़ब्बार, वरिष्ठ कवि शिव मृदुल की अध्यक्षता में हुए इस आयोजन में नगर के चयनित कवियों ने प्रबुद्ध श्रोताओं के बीच कविताएं पढ़ीं। संगोष्ठी की शुरुआत में नगर की लेखक बिरादरी में शामिल दो नए साथियों ने पहली बार रचनाएं पढ़ीं। अरसे बाद किसी अनौपचारिक माहौल में हुए इस कार्यक्रम में प्रगतिशील युवा कवि विपुल शुक्ला ने पढ़ना, समय, सीमा, जैसी रचनाएं और कौटिल्य भट्ट 'सिफ़र' ने दो गज़लें पढ़कर वर्तमान दौर पर बहुतरफ़ा कटाक्ष किए। इससे ठीक पहले लोकगीतों की जानकार चंद्रकांता व्यास ने सरवती वंदना की।
अपनी माटी के संस्थापक माणिक ने हाशिए का जीवन जीते आदिवासियों पर केंद्रित कविता आखिर कभी तो, और व्यंग्य प्रधान कविता आप कुछ भी नहीं हैं, सुनाई। सुनाई जा रही कविताओं में यथा समय श्रोताओं ने भी अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियां देकर संगोष्ठी को सार्थक बनाया। दूसरे दौर में डॉ रमेश मयंक ने अजन्मी बेटी के सवाल और आओ कल बनाएं जैसे शीर्षक की कविताओं के बहाने जेंडर संवेदनशीलता और समकालीन राजनीति पर टिप्पणियां कीं। राजस्थानी गीतकार नंदकिशोर निर्झर ने कुछ मुक्तक पढ़ने के बाद आज़ादी के बाद के पैंसठ सालों को आज़ादी के पहले के सालों पर तुलनापरक कविता सुनाई, जिसे बहुत सराहा गया।
राष्ट्रीय पहचान वाले मीठे गीतकार रमेश शर्मा ने अपना नया गीत मेरा पता सुनाकर हमारे देश में ही बसे दो तबकों के जीवन में मौलिक ढंग से झांकने और उसका विवरण देने की कोशिश की। गीतों में नई शब्दावली से उनके गंवई परिवेश की खुशबू हम तक आती है। इसी बीच अब्दुल ज़ब्बार ने अपने प्रतिनिधि शेर और एक गीत ग़रीब के साथ विधाता है पढ़ा-
बेकार वो कश्ती जो किनारा न दे सके
बेकार वो बस्ती जो भाईचारा न दे सके।
बेकार जवानी वो ज़ब्बार जहां में
बुढ़ापे में जो माँ-बाप को सहारा न दे सके।।
जब ज़िंदगी ही कम है मुहब्बत के वास्ते
लाऊँ कहां से वक़्त नफ़रत के वास्ते।
शराफत नाम रखने से शराफत कब मयस्यर है
शराफत भी जरूरी है शराफत के वास्ते।।
कविवर शिव मृदुल ने अपने कुछ मुक्तक, छंद और दोहे प्रस्तुत किए। आखिर में आम आदमी की पीड़ा विषयक कविता सुनाई। डॉ सत्यनारायण व्यास ने अपनी पहचान के विपरीत पहली बार दो ग़ज़लें सुनाईं-
जंगल में जैसे तेंदुआ बकरी को खा गया
थी झोंपड़ी ग़रीब की बिल्डर चबा गया।
नज़रें गड़ीं थी और फिर मौक़ा मिला ज्यों ही
बेवा के नन्हे खेत को ठाकुर दबा गया।
उन्होंने और फिर एक कविता तू वही सुनाई, जिसमें ज़िंदगी की सार्थक परिभाषाएं सामने आ सकीं। इस असार संसार में उलझे बगैर हमें मानव जीवन के सार्थक होने का सोच करना चाहिए जैसा चिंतन निकल कर आया। संगोष्ठी में समीक्षक डॉ राजेश चौधरी, चिकित्सक डॉ महेश सनाढ्य, शिक्षाविद् डॉ एएल जैन, कॉलेज प्राध्यापिका डॉ सुमित्रा चौधरी, कुसुम जैन, सरिता भट्ट, गिरिराज गिल, विकास अग्रवाल ने अपनी टिप्पणियों के साथ शिरकत की। आभार युवा विचारक डॉ रेणु व्यास ने व्यक्त किया।