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हिंदू कालेज दिल्ली में 'देह ही देश' पर परिसंवाद

समानता का नया यूटोपिया रचती है 'देह ही देश'-अनामिका

प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव की पुस्तक एक विचार क्रांति

डॉ रचना सिंह

Tuesday 30 October 2018 09:02:13 PM

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नई दिल्ली। सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार अनामिका को पुस्तक 'देह ही देश' ने बड़ा प्रभावित किया है, जैसे यह पुस्तक एक विचार क्रांति बन गई है। सुपरिचित लेखिका और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी की प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव की यह किताब यूरोपीय देशों क्रोएशिया और सर्ब के संघर्ष के दौरान स्त्रियों पर हुई ज्यादतियों और यौन हिंसा की डायरी है। किसी सुप्रसिद्ध कवि लेखक और कथाकार का किसी किताब की ओर श्रोताओं का ध्यान खींचना यह तो सिद्ध करता ही है कि लेखक ने पुस्तक के कंटेंट पर कड़ी मेहनत की है, तभी वह ‌पुस्तक सभी का ध्यान खींच रही है। कथाकार अनामिका का कहना है कि 'देह ही देश' केवल यूरोप की स्त्री का संसार नहीं है, बल्कि दर्द और संघर्ष का यह आख्यान अपनी सार्वभौमिकता के कारण बहुपठनीय बन गया है।
कवि और कथाकार अनामिका ने हिंदू कालेज दिल्ली में 'देह ही देश' किताब पर हुए एक परिसंवाद में कहा कि विद्यार्थियों के बीच इस किताब पर गंभीर चर्चा होना यह विश्वास जगाता है कि स्त्री-पुरुष समानता का यूटोपिया अभी बचा हुआ है और गरिमा श्रीवास्तव जैसे लेखक अपने साहित्य से इसे फिर फिरकर रचते रहेंगे। हिंदू कालेज के महिला विकास प्रकोष्ठ ने यह परिसंवाद आयोजित किया था। अनामिका ने कहा कि अच्छी किताबें बार-बार पढ़ने को आमंत्रित करती हैं जैसे मैंने इस किताब को तीन बार पढ़ा है। उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी भी ऐसे लेखन की संवेदनशीलता से अपने को जोड़कर ऐसी नागरिकता का निर्माण कर सकेगी, जहां लैंगिक विषमताएं न हों। प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया प्रवास के दौरान इस पुस्तक को लिखा था। परिसंवाद में साहित्य की मासिक पत्रिका हंस के सहयोगी सम्पादक डॉ विभास वर्मा ने कहा कि हिंदी में इस तरह का लेखन नहीं मिलता है।
डॉ विभास वर्मा ने इस पुस्तक को पढ़ना एक असहज करने वाला अनुभव बताते हुए कहा 'देह ही देश' जैसी किताबें इस बात की फिर पुष्टि करती हैं कि सभी युद्ध औरतों की देह पर ही लड़े जाते हैं। डॉ विभास वर्मा ने इसे कहानियों की एक कहानी भी कहा। उन्होंने कहा कि उग्र राष्ट्रवाद और पूंजीवाद मिलकर युद्ध को अपने हितों का व्यवसाय बना देते हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया के हिंदी विभाग के प्रोफेसर नीरज कुमार ने समाज विज्ञान की किताबों और साहित्य में मूलभूत अंतर को रेखांकित करते हुए कहा कि यहां आंकड़ों से मन की पीड़ा और युद्ध की विभीषिका को समझने का प्रयास किया गया है। प्रोफेसर नीरज ने हाल में वृंदावन और गुरुग्राम में स्त्रियों के साथ हुई हिंसक घटनाओं का उल्लेख किया और कहा कि यह विचारणीय है कि विकास के साथ हम कहां पहुंच रहे हैं। प्रोफेसर नीरज ने कहा कि स्थितियों की विषमताओं से स्त्री को स्त्री होने का दंड मिलता है, लेकिन पुरुष इससे बच जाता है।
प्रोफेसर नीरज कुमार ने कहा कि पुस्तक में लेखिका ने शांति के लिए होने वाली सैनिक कार्रवाइयों के दौरान स्त्रियों के प्रति होने वाली हिंसा और देह व्यापार के प्रसंगों का भी उल्लेख किया है। पुस्तक को लिखे जाने के अपने विविध अनुभवों को साझा करते हुए प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव ने कहा कि इतिहास में कभी भी स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूपमें नहीं पहचाना गया, शक्ति और सत् हमेशा से उसके लिए वर्जित क्षेत्र रहे। उन्होंने कहा कि स्त्रियां जिस तरह से झेले हुए समय को याद करती हैं, उन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है, क्योंकि उनकी स्मृतियों में इतिहास का उपेक्षित पक्ष आलोकित होता है। प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव ने श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए। महिला विकास प्रकोष्ठ की प्रभारी डॉ रचना सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया। परिसंवाद के संयोजक और हिंदी विभाग के अध्यापक डॉ नौशाद अली ने वक्ताओं का परिचय दिया। पुस्तक की प्रकाशक राजपाल एंड संज की निदेशक मीरा जौहरी ने आभार व्यक्त किया।

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