बृजनंदन राजू
Friday 5 April 2019 05:42:50 PM
मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही ब्रहमाजी ने सृष्टि की रचना की थी और सतयुग का आरंभ भी चैत्र प्रतिपदा को हुआ था। चैत्र प्रतिपदा को ही भगवान राम और धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ था, इसलिए इस तिथि को अत्यंत शुभ माना गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्थापक डॉ केशवराव बलिरामराव हेडगेवार और भगवान झूलेलाल का जन्म भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था। शकारि विक्रमादित्य ने शक और हूणों को परास्त कर विक्रमी संवत की शुरूआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही की थी। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में वर्ष प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा के नाम से मनाते हैं और यह शौर्य और विजय का भी दिवस है।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की इसी दिन की थी। गुरू अंगददेवजी का प्राकाट्य दिन भी यही है। नवरात्रि का शुभारम्भ भी इसी दिन से होता है और ऋतु परिवर्तन का भी यही समय रहता है, इसलिए इस समय व्रत का बहुत ही महत्व माना गया है। ऋतुओं में वसंत को ऋतुराज कहा गया है, इसे मधुमास भी कहते हैं। प्रकृति में इस समय चारों तरफ नवीनता रहती है। ठंड बीत जाती है और गर्मी का सीजन आ जाता है। हवाओं में परिवर्तन आ जाता है, गर्मी बढ़ जाती है, आकाश स्वच्छ दिखने लगते हैं। फसल पककर घर आने लगती है, घर धन धान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं, किसानों के चेहरे पर मुस्कान होती है, आम के पेड़ बौर से भर जाते हैं, पेड़ों पर नई-नई कोपलें और नए-नए पत्ते आ जाते हैं। कोयल भी इन पत्तों में छिपकर वसंत के गीत गाती है। कलरव करते पक्षियों के झुंड के झुंड पेड़ों पर दिखाई पड़ते हैं।
यह वो समय है जब किसी भी वन्यजीव जंतु या मानव के लिए आहार की किल्लत नहीं रहती है। घर में अनाज का ढेर लगा होता है। फसलों के पक जाने के कारण पक्षियों को दाना खूब चुनने को मिलता है। पशुओं को भी तरह-तरह के चारे उपलब्ध होते हैं। प्रकृति को तो सबकी चिंता रहती है, इस समय प्रकृति सभी पर अपना प्यार उड़ेलती है। इस ऋतु का हमारे स्वास्थ्य पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ठंड के दिनों में दाद, खाज खुजली इत्यादि त्वचा रोगों से छुटकारा अपने आप मिल जाता है, इसलिए यही नववर्ष भारतीय नववर्ष और हिंदू नववर्ष है, लेकिन भारत में मनाया जाता है, भारत की प्रकृति, संस्कृति और सभ्यता से अंग्रेजी नववर्ष का कोई मतलब नहीं है। यह सब अंग्रेजी दासता के कारण हुआ।
अंग्रेजों के विचार संस्कार हम पर हावी होते गए, उन्हें हम अपने जीवन में अपनाने भी लगे हैं। हिंदू धर्म को मानने वाले लोग शादी व्याह से लेकर सारे शुभकर्म पंचांग देखकर शुभ मुहूर्त देखकर ही करते हैं। हमारे पंचांग हिंदी तिथियों और हिंदी महीने पर आधारित होते हैं। भारतवर्ष का एक दुर्भाग्य यह भी है कि सरकारी कामकाज सब अंग्रेजी कैलेंडर के आधार पर होता है। सोचने का विषय है कि क्या हम अपने कैलेंडर के आधार पर काम नहीं कर सकते? हमारे कैलेंडर में क्या खामियां हैं? अगर नहीं तो क्यों न हम अपने भारतवर्ष का कैलेंडर अपनाएं? भारत में लोग जनवरी माह में नववर्ष मनाते हैं। जनवरी माह में इंग्लैंड में नया साल होता है। वहां पर उस समय फसल पकती है।
जनवरी महीने में नववर्ष पड़ने का भारत की प्रकृति से बिल्कुल भी मेल नहीं है, क्योंकि उस समय तो भारत में जबर्दस्त ठंड पड़ती है। चारों तरफ नीरसता दिखती है, कोहरे और बर्फबारी के अलावा कहीं भी नवीनता देखने को नहीं मिलती, फिर कैसा नववर्ष? कोई मजबूरी रही होगी आजादी के समय की, जो उस समय बहुत कुछ कार्य नहीं हो सकता था, लेकिन उस समय नहीं हो सकता था तो जो पहले गलती हो गई उसे ठीक किया जा सकता है। यह जरूरी नहीं है कि हम उसी रास्ते पर चलते रहें। उससे आगे हमको चलना है। लकीर का फकीर बनकर नहीं। जो अच्छा है, उसे अपनाएं, जो खराब है उसका परिष्कार करें। भारत को भारत की तरह बनाना होगा, इंग्लैंड अमेरिका की तरह नहीं। वैसे भी हम सबसे ज्यादा विकसित हो सकते हैं, लेकिन इंग्लैंड या अमेरिका नहीं बन सकते और न ही बनना चाहिए। भारतवर्ष ही हमारी पहचान है।
भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों और मनीषियों ने काल की सूक्ष्म गणना सूर्य और चंद्रमा की गति के आधार पर की है। शून्य का सृजन भी हम ही ने किया है। भारतीय कालगणना पूरी तरह वैज्ञानिक है। हमारे यहां का पंचांग पल-पल का हिसाब देता है, इसलिए हर संवत्सर अपने साथ शुभ तथा अशुभ फल लेकर आता है। संवत्सर के नाम से पंचांग देखकर यह अनुमान लगाया जाता है कि इस साल वर्षा कितनी होगी, फसल कैसी होगी, महंगाई कितनी बढ़ेगी और राजा कैसा होगा इत्यादि, जबकि अंग्रेजी कैलेंडर में इसका कोई जिक्र नहीं रहता है। विश्व के किसी भी देश में भारत जैसी कालगणना नहीं है। हमारे मनीषियों ने खगोलीय घटनाओं के आधार मानव पर पड़ने वाले प्रभावों का भी सटीक जिक्र किया है।
भारत की आजादी के बाद 1952 में पंचांग सुधार समिति ने अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को ही स्वीकार करने की संस्तुति की थी, किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजी कैलेंडर को ही मान्यता दी। अंग्रेजी कैलेंडर मात्र 2019 वर्ष का ही है, जबकि भारतीय कालगणना के अनुसार पृथ्वी की आयु की बात करें तो एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 39 हजार 111 वर्ष है, जिसके प्रमाण ज्योतिषियों के पास उपलब्ध हैं। प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है। ईस्वी संवत का संबंध ईसा काल से और हिजरी संवत का संबंध मुहम्मद साहब के काल से है, जबकि विक्रमी संवत का संबंध प्रकृति से है, जो भारत की अमूल्य और चमत्कारिक निधि है।