मेनका गांधी
मैंने संसद हेतु चुने जाने के लिए अपना चुनाव प्रचार प्रारंभ कर दिया है। मेरी इच्छा है कि मेरे पास एक हरित पार्टी और पैसा भी हो़ जो वास्तविक मुद्दों के लिए प्रचार करती। पानी, वैकल्पिक ऊर्जा, नदियों को बचाने का अधिकार। यानी एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने के लिए काम करती जो लोगों पर केंद्रित हो न कि उद्योगों पर, और सबसे अहम ये कि उसमें सभी जीवों के लिए प्राकृतिक प्रर्यावासों का निर्माण हो जिसे निरंतर बनाए रखा जा सके।
एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि केवल 7 प्रतिशत एनजीओ ही सक्रिय रूप से चलते हैं। यह इसलिए नहीं है कि एनजीओ प्रयास नहीं करते हैं बल्कि इसलिए क्योंकि उनके पास कानून की शक्ति नहीं होती है। नौकरशाही की कलम से जिसे एक बार में ही जल्दी से प्राप्त किया जा सकता है, उसी को याचिकाओं तथा विरोधों से प्राप्त करने में कई वर्ष लगते हैं। इसलिए राजनैतिक प्रक्रिया का भाग होना महत्वपूर्ण है। पशु कल्याण आंदोलन इसीलिए गंभीर रूप से बाधिक हुआ, क्योंकि पशु स्वयं राजनैतिक प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकते हैं, इसलिए नीति-निर्माताओं पर उनका कोई जोर नहीं चलता। जिसकी कोई आवाज न हो, उसकी कोई सुनवाई नहीं होती। दूसरी ओर, जो पशुओं के दुरुपयोग से लाभान्वित होते हैं, उनकी पहुंच काफी ऊपर तक होती है, उनकी एक संपन्न लॉबी है जो अपने वोट तथा पैसे का उपयोग उन नीतियों को जारी रखने के लिए करती है जिनमें जीवों की हत्या तथा शोषण की अनुमति हों। जीवित पक्षी अथवा कीड़ा, किसी मृत जीव से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है। एक जीवित शेर वर्षा लाता है, एक मृत शेर केवल विनाश लाता है।
पशु कल्याण को हमारे राजनैतिक एजेंडा का एक भाग बनाए जाने की आवश्यकता है। पर्यावरणीय संरक्षण पहले से ही एक बड़ा राजनैतिक मुद़दा बन चुका है। महासागर में तेल की ड्रिलिंग का विरोध करने से ओबामा ने महत्वपूर्ण पर्यावरणीय समर्थन को जीत लिया था। अपनी फिल्म "एन इन्कन्वीनिएंट ट्रूथ" से अल गोर का प्रभाव उनके उपराष्ट्रपति होने से भी अधिक हो गया था। यूरोपियाई देशों में ग्रीन पार्टियां हैं। हॉलैंड में एक पशु पार्टी है। डच की "पार्टी फॉर एनिमल" के नेता एक 34 वर्षीया जूरिस्ट मैरिआन थीम हैं, जो हाल ही तक एक पशु बचाव एजेंसी की अध्यक्ष थीं। पशु मुद्दों पर स्थापित पार्टियों के सुस्त रवैये के प्रति उनकी बढ़ती हुई कुंठा ने उन्हें राजनीति में पशुओं की आवाज को सुनवाने के लिए प्रेरणा दी। सुविख्यात डच लेखक तथा मतवाले नेता उनकी पार्टी में शामिल हुए हैं और अधिकाधिक संख्या में डच लोग यह प्रश्न कर रहे हैं कि जब पशुओं और पर्यावरणीय संरक्षण का मामला आता है तो नैतिक विचारों पर स्वार्थी आर्थिक हितों को क्यों तरजीह दी जाती है?
अपने पहले ही चुनाव में इस पार्टी ने 150 में से 2 संसदीय सीटें जीती हैं (जो कि भारत में 12 सीटों के समान हैं, जो आज संसद में अधिकांश पार्टियों की सीटों से अधिक है)। इस पार्टी की प्राथमिकता सभी पशुओं की पीड़ाओं को समाप्त करना है। यह एक संविधान संशोधन चाहती है, जिसमें सभी पशुओं को मानव जनित दर्द, भय तथा तनाव से स्वतंत्र होने के अधिकार की गारंटी हो। भारत में अभी तक पशुओं के अधिकारों के लिए कोई पार्टी नहीं है किंतु इसके लिए पर्याप्त कारण हैं कि पशु कल्याण प्रत्येक चुनाव घोषणा-पत्र में क्यों होना चाहिए।
पशु हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। वे एक वर्ष में 50 मिलियन टन से अधिक दूध देते हैं और 60 मिलियन हैक्टेयर की फसल की खेती करने में सहायता करते हैं। वे 18 हजार मिलियन टन सामान ढोते हैं और 52 हजार मिलियन वाट विद्युत मुहैया करवाते हैं जो कि हमारे सभी विद्युत-गृहों को मिलाकर प्राप्त होने वाली विद्युत से भी अधिक है। मौद्रिक रूप में वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में 50 हजार करोड़ रुपए से अधिक का योगदान देते है। कौन सा दूसरा समुदाय देश के लिए इतना अधिक कमाता है? भारत की 70 प्रतिशत पशुओं पर निर्भरता है फिर भी हम उनके लिए कोई प्रावधान नहीं करते। पशुओं के लिए आवंटित की जाने वाली कुल राशि, प्रति वर्ष प्रति पशु के लिए एक रुपए से भी कम बैठती है। यह छोटी सी राशि भी कागजों में ही मौजूद रहती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी पशु चिकित्सा केंद्र कार्य नहीं करते हैं। किसी पशु चिकित्सा देखभाल के अभाव में पशुओं की उपचार की जाने सकने वाली स्थितियों में भी मृत्यु हो जाती है। जब वे अपना जीवन खोते है तो डेयरी तथा दूध वाले, तांगे वाले, धोबी, ट्रांसपोर्टर, निर्माण आपूर्तिकर्ता और छोटे किसान भी अपनी आजीविका खो देते हैं। ग्रामीणों के दिवालिएपन का एक बड़ा कारण समय से पूर्व उनके पशु की मृत्यु होना है। सीमा से अधिक पशु मृत्यु रोकना और पशु चिकित्सा केंद्र को सुनिश्चित करना एक आकर्षक चुनावी वादा हो सकता है।
सभी सरकारें सभी के लिए सस्ते तथा पर्याप्त भोजन का वादा करती हैं। लेकिन फिर भी केवल राज-सहायता देने के अलावा इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कोई दीर्घावधि योजना नहीं बनाई गई है। इसका एक समाधान यह है। भारत की कृषि योग्य भूमि का 31 प्रतिशत मांस तथा डेयरी पशुओं के लिए चारा उगाने हेतु दिया जा चुका है। मांस के उत्पादन के साथ अन्य समस्याएं भी हैं। एक मशीनीकृत वध-गृह 1 दिन में 16 मिलियन लीटर पानी का उपयोग करता है जो कि 90 लाख लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता था। वधगृहों के कचरे को सीधे जलराशियों में डाला जाता है जो हमारी जलापूर्ति में जहर घोल रहा है। एक ऐसा देश जो अपनी जनसंख्या की पेयजल की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है उसे जल सोखने वाले वधगृहों को स्थापित नहीं करना चाहिए और न ही इनकी अनुमति देनी चाहिए।
मांस एक गंभीर स्वास्थ्य मुद्दा भी है। सभी कैंसरों का 40 प्रतिशत, मोटापा, मधुमेह, आर्थराइटिस तथा ह्रदय रोग जैसे रोग इसी से जुड़े हुए हैं। नगर निगम के वधगृह स्वास्थ्य तथा स्वच्छता के नगर-निगम नियमों का खुलेआम उल्लंघन करते हुए गैस्ट्रोएन्टराइटिस, सालमोनीला, हैजा तथा ईकोली जैसे रोगों को फैलाते हैं। वध-गृह इस खतरे को और बढ़ा देते हैं। चिकन फ्लू, मैड काऊ रोग तथा एन्थ्रेक्स, फैक्ट्री फार्मिंग स्पष्ट खतरे हैं। मांस का उत्पादन भी गंभीर पर्यावरणीय खतरा है। यह समूचे परिवहन क्षेत्र को मिलाकर होने वाले ग्रीन हाउस उत्सर्जन से भी अधिक के लिए उत्तरदायी है। ब्रिटेन में सरकार मांस को कम करने के लिए तरीके ढूंढ रही हैं। ब्रिटिश पब्लिक हैल्थ सिस्टम ने कार्बन उत्सर्जनों को कम करने के लिए मांस-रहित अस्पतालों का प्रस्ताव किया है। हमारे देश की शाकाहारी परम्पराओं को सुदृढ़ करने तथा वास्तविक गांधीगिरी को प्रोत्साहत करने के लिए हमें भी ऐसी राजनैतिक पार्टियों की आवश्यकता है।
आज की तिथि तक सरकार ने असफल गंगा एक्शन सफाई योजना में 6 हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए हैं। जनता के और अधिक पैसे को व्यर्थ करने के बजाए हमें नदी में कचरे को डालने वाली चमड़ा फैक्ट्रियों को बंद करने के एक चुनावी वादे की आवश्यकता है। हम सेना, केंद्रीय विद्यालयों तथा अन्य सरकारी खरीददारों को इनके बजाए गैर-चमड़े वाले जूतों को खरीदने के लिए कह कर देश को एक प्रमुख प्रदूषक तत्व से निजात दिलवा सकते हैं जो व्यक्तियों तथा गायों दोनों की हत्या करता हैं।
अनावश्यक पाठ्यक्रम आवश्यकताओं के लिए मेंढक को काटने वाली स्कूली बच्चों की कई पीढ़ियां मच्छरों की कई गुणा वृद्धि होने में परिणत हुई जो मलेरिया, डेंगु तथा अब चिकनगुनिया है। डीडीटी तथा रसायनिक कीटनाशकों के उपयोग ने कई अन्य स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न की हैं। हमें रसायनिक कीटनाशकों तथा बेतुके प्रयोग दोनों के विकल्पों की आवश्यकता है, क्योंकि दोनों ने परिस्थितिकीय तंत्र को संकट में डालकर हमारे जीवन को खतरे में ला दिया है।
बाघ की रक्षा करना कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं है। बाघ एक इंडेक्स प्रजाति है जिसकी विद्यमानता वन के स्वस्थ्य होने का प्रमाण है। एक-दूसरे के बिना हर कोई समाप्त हो जाएगा। जब हम बाघ को खोते हैं तो हम जंगल, हमारी वर्षा, कृषि सभी को खोते हैं। इसके विपरीत, जब हम बाघ की रक्षा करते है तो उसके पर्यावास से मुफ्त पानी, ऑक्सीजन तथा जलवायु नियंत्रण मुहैया करवाए जाते हैं। बाघों को समितियों की आवश्यकता नहीं है। उन्हें सुरक्षित पर्यावास की आवश्यकता है। जरूरत है कि पार्टियां खनन करनेवालों, अवैध शिकार करने वालों, होटल के मालिकों, जनजातिय लोगों और डेवलपरों से बचाव करने के लिए तरीके बताएं। कुछेक बाघों के बचे रहने के साथ अब उनके अभ्यारण्यों को एक नो टॉलरेन्स क्षेत्र माना जाना चाहिए।
पशुओं के साथ क्रूरता का मानव के स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था तथा पर्यावरण पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। एक दृष्टिकोण वाला राजनैतिक दल निश्चित रूप से पशु तथा मानव कल्याण के मध्य संबंध को देख लेगा। मैं राजनीति में अपने कार्य को भारत में बेहतरी हेतु बदलाव का एक माध्यम मानती हूं और मेरा यह मत है कि पशुओं की रक्षा करके हम पृथ्वी तथा स्वयं की रक्षा करते हैं। जब हम किसी अन्य जीव को अपना अधिकार समझ कर खाना, पीटना, विकृत करना तथा उसकी हत्या करना छोड़ देते हैं तो हम चिरकालिक शांति तथा समृद्धि के लिए स्थितियां उत्पन्न करते हैं। क्या हम सब यह नहीं चाहते और सभी राजनैतिक दल भी? मैं उम्मीद करती हूं कि किसी एक भारतीय राजनैतिक दल, मेरे अपने दल सहित, द्वारा भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप घोषणा की जाएगी और मैं उस समय तक जीवित रहना चाहूंगी, मगर अफसोस कि ऐसा इस बार तो नहीं ही होगा।