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कंबोडिया की उत्तराखंड में दिलचस्पी

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कंबोडिया डेलिगेशन/cambodian delegation

देहरादून। कंबोडिया के वारिन जिले के गर्वनर नीक नेरोन ने कहा कि उत्तराखंड ही भारत का ऐसा राज्य है, जहां पर कंबोडिया के जैसा बातावरण होने के साथ ही अनेक प्राकृतिक संसाधनों में समानता है। उत्तराखंड की ही तरह कंबोडिया में बांस तथा रेशे के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं, जिनको तलाशने के लिए हमने उत्तराखंड भ्रमण का कार्यक्रम बनाया है। उत्तराखंड में बांस, रेशा, घास, आदि से बने उत्पाद, तथा मार्केटिंग की बारीकियों की जानकारी जुटाने के उददेश्य से कंबोडिया के नौ सदस्यों का एक दल आजकल उत्तराखंड के भ्रमण पर है। दल ने उत्तराखंड में बांस एवं रेशा विकास परिषद का भ्रमण किया। उत्तराखंड बांस एवं रेशा विकास परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अनिल कुमार दत्त ने दल को उत्तराखंड में बांस एवं रेशा विकास के बारे में विस्तृत जानकारियां दीं। जलागम की मुख्य योजना निदेशक डॉ रेखा पाय ले वाटरशैड मैनेजमेंट की अनेक जानकारियां दल को दीं।
दल के सदस्य ने बताया कि कंबोडिया में कम्युनिटी फारेस्टी को बढ़ावा देने के लिए दल ने विभिन्न जानकारियां हासिल कीं। वन विभाग, फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन तथा कंबोडिया में कार्यरत जर्मन कोआपरेशन के लोग शामिल थे। दल में फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन अधिकारी जीवनधान दुरायसामी ने बताया कि हमने उत्तराखंड वन विभाग, एफआरआई, एफएसआई, वाइल्ड लाइफ इंस्टिटयूट, कम्युनिटी ट्रेनिंग सेंटर कोटद्वार, लैंसडाउन, धनौल्टी आदि जगहों का भी दौरा किया तथा बांस से बने उत्पादों का अध्ययन किया। उन्होने कहा कि उत्तराखंड में विभिन्न सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएं अंर्तराट्रीय स्तर के उत्पाद रही हैं जो कि एक सराहनीय प्रयास है। उन्होने कहा कि हम लोग यहां से सीखकर इन चीजों को अपने देश में लागू करने की कोशिश करेंगे।
जर्मन इंटरनेशनल कोआपरेशन उत्तराखंड के संजय बाहती ने हिमालयन नेटल (बिच्छूघास) से बने रेशे के बारे में कंबोडियन डेलिगेशन को विस्तृत जानकारियां दीं। उन्होने बताया कि हिमालयन बिच्छूघास जिसे डांस कंडाली के नाम से भी जाना जाता है, उत्तराखंड के जंगलों में बहुत मात्रा में पाई जाती है। इसके रेशे का उपयोग ग्रामीण समुदाय रस्सी बनाने में करता है। पुराने समय में इसके रेशे से दस्तानों, बैलो के मुयाल बनाने में भी किया जाता था। हिमालयन नेटल एक बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है, जिसकी लंबाई लगभग तीन मीटर तक होती है। अध्ययन में पाया गया है कि इस पौधे से प्राप्त रेशे से विभिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुएं बनाई जा सकती हैं। यह रेशा स्थानीय ग्रामीण समुदाय की आजीविका संर्वधन हेतु एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसकी मांग राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। इस अवसर पर शंकर राम, उप निदेशक जलागम, नीना ग्रेवाल योजना निदेशक वाटरशैड मैनेजमेंट, ज्योत्सना सिटलिंग, प्रोजेक्ट डायरेक्टर आईएफएडी, विमल धीमान बानिकी प्रबंधक, जीआईजैड के मनीष जुयाल आदि मौजूद थे।

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