राजबली पांडेय
पुरी। करोड़ों लोगो के आराध्य भगवान जगन्नाथ का भव्य रथयात्रामहोत्सव उड़ीसा में शुरू हो चुका है। श्रद्घालु आध्यात्मिक चेतना के साथ भगवान जगन्नाथ के सम्मुख खड़े होकर आत्मसंतोष प्राप्त कर रहे हैं। रथ यात्रा में भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और भगवान जगन्नाथ के रूपों को सजीव ढंग से दिखाया गया है। श्रद्घालुओं का सैलाब इतना है कि उसे नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए हैं। उड़ीसा सरकार रथयात्रा प्रबंधन और राज्य के पर्यटन विभाग ने इस उत्सव के लिए खास इंतजाम किए हैं। पुरीके समुद्री तटों पर एक विहंगम दृश्य देखने को मिल रहा है और पुरी के मंदिरों में आगाध आध्यात्मिक दर्शन दिखाई पड़ रहा है।
इस यात्रा महोत्सव को लेकर यहां भगवान जगन्नाथ से जुड़े प्रसंग और उनके अतीत पर विद्वान प्रकाश डाल रहे हैं जो कि अत्यंत ज्ञानवर्धक और पुण्य को महिमामंडित कर रहे हैं। भगवान जगन्नाथ के विषय में विभिन्न धर्मग्रंथों में विभिन्न प्रकार से लिखा गया है और जानकारियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। पुरुषोत्तमयात्रा-जगन्नाथपुरी में पुरुषोत्तम विष्णु भगवान की बारह यात्राएं मनायी जाती हैं। स्नान, गुण्डिचा, हरिशयन, दक्षिणायन, पार्श्वपरिवर्तन, उत्थानपनैकादशी, प्रावरणोत्सव, पुष्याभिषेक, उत्तरायण, दोलायात्रा, दमनक चतुर्दशी तथा अक्षय तृतीया।
उड़ीसा के चार प्रसिद्घ तीर्थों, भुवनेश्वर, जगन्नाथ, कोणार्क तथा जाजपुर में जगन्नाथ का महत्वपूर्ण अस्तित्व है। इसे पुरुषोत्तम तीर्थ भी कहा जाता है। ब्रह्मपुराण में इसके संबंध में लगभग 800 श्लोक मिलते हैं। जगन्नाथपुरी शंखक्षेत्र के नाम से भी विख्यात है। यह भारतवर्ष के उत्कल प्रदेश में समुद्रतट पर स्थित है। इसका विस्तार उत्तर में विराजमंडल तक है। इस प्रदेश में पापनाशक और मुक्तिदायक एक पवित्र स्थल है। यह बेत से घिरा हुआ दस योजन तक विस्तृत है। उत्कल प्रदेश में पुरुषोत्तम का प्रसिद्घ मंदिर है। जगन्नाथ की सर्वव्यापकता के कारण यह उत्कल प्रदेश बहुत पवित्र माना जाता है। यहां पुरुषोत्तम (जगन्नाथ) के निवास के कारण उत्कल के निवासी देवतुल्य माने जाते हैं।
ब्रह्मपुराण के 43 तथा 44 अध्याओं में मालवा स्थित उज्जयिनी (अवन्ती) के राजा इन्द्रद्युम्न का विवरण है। यह बड़ा विद्वान तथा प्रतापी राजा था। सभी वेदशास्त्रों के अध्ययन के उपरान्त वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वासुदेव सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। फलतः वह अपनी सारी सेना, पंडितों तथा किसानों के साथ वासुदेव क्षेत्र में गया। दस योजन लम्बे तथा पांच योजन चौड़े इस वासुदेव स्थल पर उसने अपना खेमा लगाया। इसके पूर्व इस दक्षिणी समुद्र तट पर एक वटवृक्ष था जिसके समीप पुरुषोत्तम की इन्द्रनील मणि की बनी हुई मूर्ति थी। कालक्रम से यह बालुका से आच्छन्न हो गयी और उसी में निमग्न हो गयी। उस स्थल पर झाड़ियां और पेड़ पौधे उग आये। इन्द्रद्युम्न ने वहां एक अश्वमेघ यज्ञ करके एक बहुत बड़े मंदिर का निर्माण कराया। उस मंदिर में भगवान वासुदेव की एक सुंदर मूर्ति प्रतिष्ठित करने की उसे चिंता हुई।
स्वप्न में राजा ने वासुदेव को देखा, जिन्होंने उसे समुद्रतट पर प्रातःकाल जाकर कुल्हाड़ी से उगते हुए वटवृक्ष को काटने को कहा। राजा ने ठीक समय पर वैसा ही किया। उसमें भगवान विष्णु (वासुदेव) और विश्वकर्मा ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए। विष्णु ने राजा से कहा कि मेरे सहयोगी विश्वकर्मा मेरी मूर्ति का निर्माण करेंगे। कृष्ण बलराम और सुभद्रा की तीन मूर्तियां बनाकर राजा को दी गयीं। तदुपरांत विष्णु ने राजा को वरदान दिया कि अश्वमेघ के समाप्त होने पर जहां इन्द्रद्युम्न ने स्नान किया है वह बांध उसी के नाम से विख्यात होगा। जो व्यक्ति उसमें स्नान करेगा वह इन्द्रलोक को जायेगा और जो उस सेतु के तट पर पिण्डदान करेगा उसके 21 पीढ़ियों तक के पूर्वज मुक्त हो जायेंगे। इन्द्रद्युम्न ने इन तीन मूर्तियों की उस मंदिर में स्थापना की। स्कन्दपुराण के उपभाग उत्कलखण्ड में इन्द्रद्युम्न की कथा पुरुषोत्तम माहात्म्य के अन्तर्गत कुछ परिवर्तनों के साथ दी गयी है।
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन काल में पुरुषोत्तम क्षेत्र को नीलाचल नाम से अभिहित किया गया था और कृष्ण की पूजा उत्तर भारत में होती थी। मैत्रायणी उपनिषद (1,4) से इन्द्रद्युम्न के चक्रवर्ती होने का पता चलता है। सातवीं शताब्दी ई0 से वहां बौद्घों के विकास का भी पता चलता है। सम्प्रति जगन्नाथतीर्थ का पवित्र स्थल 20 फुट ऊंचा, 652 फुट लंबा तथा 630 फुट चौड़ा है। इसमें ईश्वर के विविध रूपों के 120 मंदिर हैं, 13 मंदिर शिव के, कुछ पार्वती के तथा एक मंदिर सूर्य का है। हिंदू आस्था के प्रायः प्रत्येक रूप यहां मिलते हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार जगनाथपुरी में शैवों और वैष्णवों के पारस्परिक संघर्ष नष्ट हो जाते हैं।
जगन्नाथ के विशाल मंदिर के भीतर चार खण्ड हैं। प्रथम भोगमंदिर, जिसमें भगवान को भोग लगाया जाता है, द्वितीय रंगमंदिर, जिसमें नृत्य-गान आदि होते हैं, तृतीय सभामण्डप, जिसमें दर्शकगण (तीर्थ यात्री) बैठते हैं और चौथा अंतराल है। जगन्नाथ के मंदिर का गुंबज 192 फुट ऊंचा और चवक्र तथा ध्वज से आच्छन्न है। मंदिर समुद्रतट से 7 फर्लांग दूर है। यह सतह से 20 फुट ऊंची एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी गोलाकार है, जिसे नीलगिरि कहकर सम्मानित किया जाता है। अन्तराल की प्रत्येक तरफ एक बड़ा द्वार है, उनमें पूर्व का सबसे बड़ा है और भव्य है। प्रवेशद्वार पर एक बृहत्काय सिंह है। इसीलिए इस द्वार को सिंह द्वार भी कहा जाता है।
जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं। पहले तो यहां किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है, दूसरी बात यह है कि जगन्नाथ के लिए पकाया गया चावल वहां के पुरोहित निम्न कोटि के नाम से पुकारे जाने वाले लोगों से भी लेते हैं। जगन्नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्घ नहीं होता, इसे महाप्रसाद की संज्ञा दी गयी है। इसकी तीसरी प्रमुख विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्ता है। इसका पुरी के चौबीस पर्वों में से सर्वाधिक महत्व है। यह आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आरंभ होती है। जगन्नाथजी का रथ 45 फुट ऊंचा, 35 वर्गफुट क्षेत्रफल का तथा 7 फुट व्यास के 16 पहियों से युक्त रहता है। उनमें 16 छिद्र रहते हैं और गरुड़ कलंगी लगी रहती है। दूसरा रथ सुभद्रा का है जो 12 पहियों से युक्त और कुछ छोटा होता है। उसका मुकुट पद्म से युक्त है। बलराम का तीसरा रथ 14 पहियों से युक्त तथा हनुमान के मुकुट से युक्त है। ये रथ तीर्थ यात्रियों और कुशल मजदूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से यह महा उत्सव मनाया जाता है।
जगन्नाथ मंदिर के निजी भृत्यों की एक सेना है जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित कर दी गयी है। पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे जो अपने को जगन्नाथ का भृत्य समझते थे। काशी की तरह जगन्नाथ धाम में भी पंच तीर्थ हैं मार्कण्डेय वट (कृष्ण) बलराम, समुद्र और इन्द्रद्युम्न सेतु। इनमें से प्रत्येक के विषय में कुछ कहा जा सकता है। मार्कण्डेय की कथा ब्रह्मपुराण में वर्णित है। (अध्याय 56.72-73) विष्णु ने मार्कण्डेय से जगन्नाथ के उत्तर में शिव का मंदिर तथा सेतु बनवाने को कहा था। कुछ समय के उपरान्त यह मार्कण्डेय सेतु के नाम से विख्यात हो गया। ब्रह्मपुराण के अनुसार तीर्थयात्री को मार्कण्डेय सेतु में स्नान करके तीन बार सिर झुकाना तथा मंत्र पढ़ना चाहिए। तत्पश्चात उसे तर्पण करना तथा शिवमंदिर जाना चाहिए।
शिव के पूजन में ओम नमः शिवाय नामक मूल मंत्र का उच्चारण अत्यावश्यक है। अघोर तथा पौराणिक मंत्रों का भी उच्चारण होना चाहिए। तत्पश्चात उसे वट वृक्ष पर जाकर उसकी तीन बार परिक्रमा करनी और मंत्र से पूजा करनी चाहिए। ब्रह्मपुराण (57.17) के अनुसार वट स्वयं कृष्ण हैं। वह भी एक प्रकार का कल्पवृक्ष ही है। तीर्थ यात्री को श्रीकृष्ण के समक्ष स्थित गरुड़ की पूजा करनी चाहिए और तब कृष्ण, सुभद्रा तथा संकर्षण के प्रति मंत्रोच्चारण करना चाहिए। ब्रह्मपुराण (57.42-50) श्रीकृष्ण के भक्तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता है। पुरी में समुद्र स्नान का बड़ा महत्व है, पर यह मूलतः पूर्णिमा के दिन ही अधिक महत्वपूर्ण है। तीर्थयात्री को इन्द्रद्युम्न सेतु में स्नान करना, देवताओं का तर्पण करना तथा ऋषि पितरों को पिण्डदान करना चाहिए।
ब्रह्मपुराण (अ 66) में इन्द्रद्यम्न सेतु के किनारे सात दिनों की गुण्डिचा यात्रा का उल्लेख है। यह कृष्ण संकर्षण तथा सुभद्रा के मण्डप में ही पूरी होती है। ऐसा बताया जाता है कि गुण्डिचा जगन्नाथ के विशाल मंदिर से लगभग दो मील दूर जगन्नाथ के विशाल मंदिर में लगभग दो मील दूर जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन भवन है। यह शब्द संभवतः घुण्डी से लिया गया है जिसका अर्थ बंगला तथा उड़िया में मोटी लकड़ी का कुंदा होता है। यह लकड़ी का कुंदा एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र में बहते हुए इन्द्रद्युम्न को मिला था। पुरुषोत्तम क्षेत्र में धार्मिक आत्मघात का भी ब्रह्मपुराण में उल्लेख है। वट वृक्ष पर चढ़कर या उसके नीचे या समुद्र में, इच्छा या अनिच्छा से, जगन्नाथ के मार्ग में, जगनाथ क्षेत्र की किसी गली में या किसी भी स्थल पर जो प्राण त्याग करता है वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है। ब्रह्मपुराण (70.3-4) के अनुसार यह तीन गुना सत्य है कि यह स्थल परम महान है। पुरुषोत्तम तीर्थ में एक बार जाने के उपरांत व्यक्ति पुनः गर्भ में नहीं जाता।
जगन्नाथ तीर्थ के मंदिर के संबंध में एक दोष यह बताया जाता है कि उसकी दीवारों पर नृत्य करती हुई युवतियों के चित्र हैं, जो अपने कटाक्षों से हाव-भाव प्रदर्शित करती हुई तथा कामुक अभिनय करती हुई दिखायी गयी हैं। किंतु ब्रह्मपुराण (अ 65) का कथन है कि ज्येष्ठ की पूर्णिमा को स्नानपर्व मनाया जाता है। उस अवसर पर सुंदरी वारविलासिनियां तबले और वंशी की ध्वनि और सुर पर पवित्र वेदमंत्रों का उच्चारण करती हैं। यह एक सहगान के रूप में श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा की मूर्ति के समक्ष होता है। अतः ये चित्र उसी उत्सव के हो सकते हैं। इस संबंध में भ्रमपूर्ण और अतिरिक्त परिकल्पनाएं अवांछनीय और अस्पृहणीय ही हैं।