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हिंदी पहुंची सात समंदर पार

कौशल किशोर

कौशल किशोर

हिंदी और हिंदी भाषियों को जहां अपने ही देश भारत के गैर हिंदी भाषी दक्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में भाषा के नाम पर नफरत और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है, वहीं संयुक्त राष्ट्र में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहे हैं, जिनमें हिंदी को मान्यता और भारी सम्मान मिल रहा है। विश्व में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए जो पुरजोर प्रयास हो रहे हैं, वे देखे-सुने जा सकते हैं। ज्यादातर देशों में व्यवसाइयों और बुद्धिजीवियों की हिंदी सीखने में काफी दिलचस्पी दिखाई दे रही है।
वैसे भी भारतीय उप महाद्वीप को सही से जानने के लिए हिंदी का ज्ञान बेहद जरूरी है। दुनिया के कुछ देशों में भारत के बारे में काल्पनिक गलतफहमियों का एक बड़ा कारण हिंदी का न जानना भी रहा है। जैसे-जैसे दुनिया हिंदी के नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे भारत को जानने की जागरुकता बढ़ती जा रही है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को सीखने और जानने की कोशिशें हो रही हैं। भारत तीव्र गति से प्रगति कर रहा है, जिस पर विश्व व्यापार की नज़र गड़ी हुई है। उसमें व्यवहारिक रूप से सफलता के लिए हिंदी का भी ज्ञान अनिवार्य हो गया है। विश्व समुदाय में भारत और अमरीका के बीच बहुप्रतीक्षित परमाणु करार की वजह से भी भारत को जानने की इच्छा विश्व के नागरिकों में बढ़ी है। भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना ने भी लोगों को हिंदी सीखने के लिए बाध्य किया है। यह बात और है कि अपने ही देश भारत में अभी हिंदी को वह स्थान नहीं प्राप्त हुआ है, जिसकी आजादी के बाद अपेक्षा की जा रही थी।
विश्व के कई देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी सीखने के लिए अलग से जहां विभागों की स्थापना की गई है, वहीं भारत सहित अन्य विदेशी विद्वानों ने हिंदी को उच्च शिखर पर पहुंचाने का जिम्मा लिया हुआ है और वे भरसक कोशिश करके हिंदी के सीखने वालों की संख्या में अनवरत बढ़ोत्तरी करने में जुटे हैं। इतना ही नहीं हिंदी के विकास के लिए वे जहां कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहे हैं, वहीं कार्यशालाओं का आयोजन कर हिंदी की विशेषता और भाषा की सरलता को भी जन-जन तक पहुंचाने के लिए पूरी तरह से कटिबद्ध हैं।
हिंदी एक बड़ी संभावनाओं वाले बाजार तक पहुंचाने वाली भाषा नजर आती है। अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर कुछ वर्षों से हिंदी एक सीखी जाने वाली जरूरी भाषा के रूप में देखी जाने लगी है। अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, जापान, रूस, कोरिया, श्रीलंका जैसे देशों में वहां की सरकार नौजवानों को हिंदी सीखने के लिए तरह-तरह से प्रोत्साहन दे रही है। विश्व के सभी देशों में हिंदी सीखने को लेकर बढ़ी उत्सुकता के पीछे उन देशों के अपने हित हों, वे हिंदी बोलकर हमारी आत्मीयता और विश्वास पाना चाहते हों, ताकि बेहतर ढंग से अपनी जीवन-पद्धति, विश्वदृष्टि और माल का प्रचार प्रसार कर सकें। हमारा उसके प्रति दृष्टिकोण सहसा सकारात्मक हो जाता है। १८वीं-१९वीं सदी में भारत की भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों के अध्ययन की गहरी रूचि पश्चिमवासियों में बढ़ी थी। निश्चय ही इस बार वे हमारे महान ग्रंथों में रूचि की वजह से हिंदी सीखने-सिखाने की योजना बना रहे हैं। फिर भी इस मामले का थोड़ा-बहुत संबंध सभ्यताओं के संवाद से जरूर है।
अंग्रेजी में आत्मविमुग्ध रहने वाले देश अब जिन एशियाई भाषाओं को सीखना जरूरी समझते हैं, उनमें हिंदी सबसे ऊपर है। सिर्फ अमेरिका में जिन जरूरी भाषाओं को सिखाने के लिए ५०० करोड़ खर्च किए जाने हैं, उनमें एक हिंदी है। हिंदी भारत के बाजार की सबसे सबल भाषा है। यह दुनिया की तीसरी सबसे ज्यादा बोली-समझी जाने वाली भाषा है और सबको जोड़ने वाली भाषा है। हिंदी ने हम और वे में बांटने की शिक्षा कभी नहीं दी। इसलिए यह आदमी को जितना भावनात्मक लगाव कर सकती है, शायद दुनिया की कम भाषाएं ऐसा करती हों। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने की कोशिश उन सारी आवाजों का सम्मान होगा, जो औपनिवेशिक दुष्चक्र्र में हमेशा हाशिए पर फेंकी गई। इसे हिंदी राष्ट्रवाद या हिंदी साम्राज्यवाद समझना गलतफहमी होगी। हिंदी को कुछ खास हिंदी प्रदेशों की भाषा समझना भी बेमानी है। हिंदी का प्रचार-प्रसार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, हिंदी में उपलब्ध विराट अनुवाद भंडार और दुनिया में फैले भारतवंशियों की वजह से अब बहुत व्यापक है। हिंदी भारत के अलावा दुनिया के अनगिनत देशों में शान से बोली और समझी जाती है। विदेशों में बसे लोगों के बीच संपर्क और आत्मीय संबंध स्थापित करने में हिंदी की एक बड़ी भूमिका है।
हिंदी ने २१वीं सदी की दो बड़ी चुनौतियों, नयी टेक्नोलॉजी और बाजार का सफलतापूर्वक सामना किया है। यह साहित्य और रिश्तों की मिठास की भाषा के रूप में भी कम महत्व नहीं रखती। निश्चय ही हिंदी के संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने से भारतीय भाषाओं की एकता, प्रतिष्ठा और महत्ता बढ़ेगी। इसमें संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का सम्मान बढ़ने का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक खुद हिंदी भाषी लोग हिंदी को सम्मान की नजरों से नहीं देखेंगे। हिंदी की सच्ची सेवा तभी होगी जब हिंदी पढ़ने-सुनने और देखने की संस्कृति अधिकाधिक पनपे। हिंदी को बाहर की ताकत तभी मिलेगी, जब वह भीतर से मजबूत होगी और इसकी अखंडता के साथ विविधता की रक्षा की जाएगी।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर ऐतिहासिक काम करके इस भाषा की सफलता के बीज बोये थे। वे अब धीरे-धीरे ही सही पेड़ की शक्ल में बढ़ रहे हैं और यदा-कदा ही सही कुछ भारतीय नेता व राजनयिक विदेशों में भी हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। जिससे हिंदी बाकी देशों के नागरिकों में भी हिंदी के प्रति रूचि बढ़ रही है। यही वजह है कि विश्व के कई नेता और राजनयिक जब भारत आते हैं, तो पूरा भाषण न सही लेकिन कुछ हिंदी के वाक्य बोलकर हिंदी की गरिमा में चार चांद लगाते हैं। इस सबके बावजूद अभी भी हमारे देश के नेता हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के बजाय अंग्रेजी में भाषण कर भारतीय भाषाओं को नकारते हैं, जिसे किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता है। विश्व स्तर पर हिंदी के विकास से भारतीय संस्कृति का विकास अपने आप हो रहा है, जो हमारे लिए बड़ा उपयोगी है।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]