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Wednesday 21 October 2020 12:06:36 PM
शिमला। वैज्ञानिकों ने हिमाचल प्रदेश में पहाड़ की बंजर जमीन पर भी हींग की खेती संभव बना दी है। सीएसआईआर की घटक प्रयोगशाला इंस्टीच्यूट ऑफ़ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी (आईएचबीटी) पालमपुर के वैज्ञानिकों ने हिमाचल प्रदेश की सुदूर लाहौल घाटी में किसानों के खेती के तरीकों में बंजर में हींग की खेती का यह एक ऐतिहासिक प्रयोग किया, जो सफल हुआ। स्थानीय किसानों ने इस इलाके की ठंडी रेगिस्तानी परिस्थितियों में बड़े क्षेत्रफल की बंजर पड़ी जमीन का सदुपयोग किया और असाफोटिडा यानी हींग की खेती को अपना लिया है। सीएसआईआर-आईएचबीटी ने हींग के बीज और इसकी कृषि तकनीक विकसित की है और हींग की खेती बढ़ाने के लिए किसानों को प्रशिक्षण भी देना शुरु कर दिया है।
गौरतलब है कि भारतीय मसालों में हींग एक प्रमुख घटक है, जिसके बिना रसोई की अनेक दालों और सब्जियों का स्वाद अधूरा है। मसालों में चुटकीभर हींग बड़ा सुगंधधारी और महंगा होता है, यही कारण है कि यह भारत में उच्च मूल्य की एक मसाला फसल है। भारत अफगानिस्तान, ईरान और उज्बेकिस्तान से लगभग 1200 टन सालाना कच्ची हींग आयात करता है और इसके लिए प्रतिवर्ष लगभग 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करता है। भारत में फेरुला अस्सा-फोटिडा नाम के पौधों की रोपण सामग्री का अभाव इस फसल की खेती में एक बड़ी अड़चन है। भारत में हींग की खेती की शुरुआत करने के उद्देश्य से 15 अक्टूबर 2020 को सीएसआईआर-आईएचबीटी के निदेशक डॉ संजय कुमार ने लाहौल घाटी के क्वारिंग गांव में एक किसान के खेत में हींग के पहले पौधे की रोपाई की।
चूंकि हींग भारतीय रसोई का एक प्रमुख मसाला है, सीएसआईआर-आईएचबीटी के वैज्ञानिकों के दल ने देश में इस महत्वपूर्ण फसल की शुरुआत के लिए अथक प्रयास किए। आईएचबीटी संस्थान ने अक्टूबर 2018 में आईसीएआर-नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज नई दिल्ली के माध्यम से ईरान से लाए गए बीजों के छह गुच्छों को उगाने का प्रयोग शुरु किया था। आईसीएआर-एनबीपीजीआर ने बताया कि पिछले तीस वर्ष में देश में असाफोटिडा के बीजों के इस्तेमाल का यह पहला प्रयास था। एनबीपीजीआर की निगरानी में हिमाचल प्रदेश में सीईएचएबी, रिबलिंग, लाहौल और स्पीति में हींग के पौधे उगाए गए। यह पौधा अपनी वृद्धि के लिए ठंडी और शुष्क परिस्थितियों को तरजीह देता है और इसकी जड़ों में ओलियो-गम नाम के राल के पैदा होने में लगभग पांच साल लगते हैं, यही वजह है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र के ठंडे रेगिस्तानी इलाके हींग की खेती के लिए उपयुक्त हैं।
कच्ची हींग को फेरुला अस्सा-फोसेटिडा की मांसल जड़ों से ओलियो-गम राल के रूपमें निकाला जाता है। दुनिया में फेरुला की लगभग 130 प्रजातियां पाई जाती हैं, लेकिन हींग के उत्पादन के लिए आर्थिक रूपसे महत्वपूर्ण प्रजाति फ़ेरुला अस्सा-फ़ेटिडिस का ही उपयोग किया जाता है। भारत में फेरुला असा-फोटिडा नहीं है, लेकिन इसकी अन्य प्रजातियां फेरुला जेस्सेकेना हिमाचल प्रदेश में पश्चिमी हिमालय के चंबा और फेरुला नार्थेक्स कश्मीर एवं लद्दाख में पाई जाती हैं, जोकि हींग पैदा करने वाली प्रजातियां नहीं हैं। आईएचबीटी के प्रयासों को मान्यता देते हुए हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने 6 मार्च 2020 को अपने बजट भाषण में राज्य में हींग के समावेश और इसकी खेती की शुरुआत घोषणा की थी, नतीजतन राज्य में हींग की खेती के लिए एक साझे सहयोग के उद्देश्य से सीएसआईआर-आईएचबीटी और राज्य कृषि विभाग हिमाचल प्रदेश के बीच 6 जून 2020 को एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया गया था।
हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग के अधिकारियों के लिए 20 से 22 जुलाई 2020 के दौरान एक क्षमता निर्माण कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें हिमाचल प्रदेश के विभिन्न जिलों के बारह अधिकारियों ने भाग लिया। सीएसआईआर-आईएचबीटी के वैज्ञानिकों ने हींग की खेती से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किए और बीज उत्पादन श्रृंखला की स्थापना तथा व्यावसायिक पैमाने पर हींग की खेती के लिए राज्य कृषि विभाग के अधिकारियों के सहयोग से हिमाचल प्रदेश के लाहौल घाटी में मडगरां, बीलिंग और कीलोंग नाम के गांवों में प्रदर्शन भूखंडों का निर्माण किया। हिमाचल प्रदेश में हींग की खेती का यह अभिनव प्रयोग है, जिसकी आशाजनक शुरुआत हुई है। अभी इसके व्यापक होने में समय लग सकता है। एक समय बाद हींग की खेती की सफलता यहां के किसानों की समृद्धि का बड़ा कारक बनेगी।