Saturday 12 April 2014 04:06:02 PM
हृदयनारायण दीक्षित
तर्क और निश्चय में वैर है। बुद्धि युक्ति निश्चय करती है, तर्क उसे काट देता है, लेकिन तर्क कोई निष्कर्ष नहीं देता। तर्क स्वभाव से ही असंतोषी है। प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाता है। कहावत है कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती, लेकिन तर्क संतुष्ट नहीं होने देता। प्रत्यक्ष के विरूद्ध भी तर्क उठते हैं कि प्रत्यक्ष आंख का धोखा भी हो सकता है। तर्क संशयी की तलवार है। संशयी लोग दसों-दिशाओं में तर्क की तलवार चलाते हैं। तर्क दर्शन शास्त्र का मुख्य भाग है। यह असार को काटता है, सार बचा रहता है। संसार सार और असार का ही रूपक है। वैदिक निरूक्त में एक संकेत्माक कथा है-देवगण विदा हो रहे थे। श्रद्धालुओं ने पूछा अब हमारा मार्गदर्शक कौन होगा? देवों ने कहा तर्क ही तुम्हारा मार्गदर्शक होगा। वैदिक अनुभूति से सोचें तो तर्क भी एक देवता है, लेकिन तर्क निरपेक्ष नहीं होता। सत्य से पृथक तर्क कुतर्क होता है। तर्क के विरूद्ध प्रामाणिक तर्क वितर्क होता है। सतर्क रहना ही कुतर्क का उपचार है। मनुष्य को सुनने के लिए दो कान उपलब्ध हैं। तर्क तटस्थ लोग दोनों का उपयोग करते हैं। वे एक कान से सुनते हैं और सुनी बात दूसरे से निकाल देते हैं। तार्किक लोग दो कानों से संतुष्ट नहीं होते। वे चौकन्ना (चार कान) होते हैं। ज्ञान यात्रा में तर्क का प्रयोग है, लेकिन उद्देश्यहीन तर्क ज्ञान यात्रा में सहायक नहीं होता।
तथ्यसंगत तर्क विद्रोही भी बनाता है। ईश्वर को सर्वोच्च शासक कहा जाता है। तर्क है कि उसके राज में अंधेर क्यों है? बीच का रास्ता है कि ईश्वर के राज में देर भले ही हो लेकिन अंधेर नहीं। तर्क तो भी पंख फैलाकर उड़ता है कि देर भी क्यों है? मैं ऐसे ही प्रश्नों से मुठभेड़ करता हुआ विद्रोही हो गया था। तर्क हमारी पूंजी थी, जिज्ञासा हमारी बेचैनी और संशय हमारा मित्र। गीता के श्रीकृष्ण ने संशयी को कठोर दंड सुनाया है, संशयात्मा विनश्यति-संशयी नष्ट हो जाता है। यह जानते हुए भी मैं तर्कप्रिय हूं। तर्क करता हूं, अपने कथन के विरूद्ध आपने वाले तर्क का आदर भी करता हूं। तर्क एक बिंदास उपकरण है। विज्ञान और दर्शन में कार्यकारण का सिद्धांत है। प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है। कारण भी अकारण नहीं होता। कारण का भी कारण होता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य और गार्गी के मजेदार प्रश्नोत्तर में गार्गी हरेक कारण का कारण पूछती है। याज्ञवल्क्य का अंतिम उत्तर है-ब्रह्म ही संपूर्णता का कारण है। गार्गी ने प्रतितर्क किया तब ब्रह्म का कारण क्या है? याज्ञवल्क्य तेज़ आवाज़ में बोले-तू अतिप्रश्न कर रही है, तेरा मस्तिष्क गिर जाएगा, अति प्रश्न न कर।
ब्रह्म अकारण है। उपनिषद् प्रतीति है कि वह तर्क से नहीं मिलता। कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को बताया, नैषा तर्केण मतिरापयेना-यह गहन बुद्धि तर्क से नहीं मिलती। उपनिषद् पढ़ते हुए अनेक दफा तर्क की व्यर्थता का अनुभव हुआ, लेकिन तार्किक बुद्धि ने प्रतितर्क भी किये। ठीक है कि उपनिषदों वाला आनंद तर्क से नहीं मिलता, लेकिन ऐसा आनंद तर्कहीनों को भी नहीं मिलता। एक लंबे समय से मैं अपने तर्कों के विरूद्ध भी तर्क कर रहा हूं। आत्मीय मित्र मुझे सही ठहराते हैं-करूणावश, दयावश या मित्रभाव के कारण। मैंने स्वयं अपनी गतिविधि और जीवनचर्या के विरूद्ध तमाम तर्क जुटाए हैं। बेशक तर्क, प्रज्ञा और कर्मठ परिश्रम के विकल्प नहीं होते, लेकिन देश और समय का अपना महत्व है। हम संसारी लोग दिक्-काल का अतिक्रमण नहीं कर सकते। संसार से लड़कर नहीं जीता जा सकता। सांसारिक दृष्टि से दो ही मार्ग हैं। पहला-अपने निष्कर्षों के पक्ष में लड़ना, फिर-फिर लड़ना, ललकार कर लड़ना। दूसरा मार्ग है-समय के साथ संगति करना। मध्य मार्गी दोनों को मिलाते हैं। वे थोड़े तर्क और ज्यादा आत्मसमर्पण से जीवन की गाड़ी चलाते हैं। तार्किक प्राय: आत्मसमर्पण नहीं करते। उन्हें आत्मसमर्पण के लिए भी तर्कों की जरूरत होती है।
एक कथा सुनी थी। एक गांव में एक कुंए का पानी रहस्यपूर्ण हो गया। जो इस कुंए का पानी पीता, मस्त और बिंदास हो जाता, कपड़े लत्ते फेंक देता, निर्वस्त्र नृत्य करता था। तार्किक लोग भी कुंए के पास पहुंचे। चुनौती दी कि ऐसा हो ही नहीं सकता। तर्क सिद्धि के लिए उन्होंने उसी कुंए का पानी पिया। पानी का प्रभाव पड़ा, वे नंगे नाचे। हड़कंप हो गया। ज्ञानी विज्ञानी भी नंग-धड़ंग। कपड़ा पहनने वाले अल्पसंख्यक हो गये। पियक्कड़ों, निर्वस्त्रों का बहुमत हो गया। गांव के राजा ने मंत्रिसभा बुलाई। बाहर शोर था। राजा ने मंत्रिगणों से उपाय पूंछा। तबतक नग्न लोग भीतर घुस आए। प्रधानमंत्री ने राय दी-राजा सहित हम सब लोग भी उसी कुंए का पानी पिएंगे। हम जनता के साथ हैं। जनभावना का सम्मान ही राज कर्त्तव्य है। यह कथा कल्पना है, लेकिन बेमतलब नहीं है। तर्क और विद्रोह के लिए अग्नि स्नान की जरूरत होती है। वैसे सुगम मार्ग खुला हुआ है। जैसा सब करते हैं, वही ठीक है। तर्क तनाव देता है। अपने भीतर अपने विरूद्ध उठे तर्क आंतरिक शांति भंग करते हैं। अंर्तमन विभाजित हो जाता है। व्यक्तित्व द्विखंडित हो जाता है। भीतर दो पक्ष बन जाते हैं। दोनों पक्षो में हम ही होते हैं। ऐसा द्वंद्व गहन पीड़ादायी होता है।
शेक्सपियर के नाटक विश्व प्रसिद्ध हैं। उसके अधिकांश नायक द्वंद्व में फंसते हैं। गहन अशांत होते हैं। अनिद्रा और उन्माद का शिकार होते हैं। दो तरफा अपने ही तर्क होते हैं। वे अपनेपन को ही चोट पहुंचाते हैं। तर्क नर्क जैसी यातनाएं देते हैं। भारत में महाभारत का काल ऐसा ही है। तब सही गलत का विवेचन कठिन था। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूंछा मार्ग क्या है? का पंथा:? युधिष्ठिर ने कहा वेदवचन ढेर सारे। ऋषि अनेक। तर्क की प्रतिष्ठा नहीं-तर्कों अप्रतिष्ठा। महाजनोयेन गता स पंथ:- महापुरूषों का मार्ग ही सही पथ है, लेकिन वैदिक काल में तर्क की प्रतिष्ठा थी। वैदिक समाज में गहन जिज्ञासा थी, प्रकृति के प्रति स्नेह और आदर था, लेकिन प्रकृति रहस्यों को लेकर जिज्ञासाएं भी थीं। ऋग्वेद के एक देवता हैं-विश्वकर्मा। कहा गया है कि उन्होंने सृष्टि रची। ऋषि ने उन्हें नमन किया है, लेकिन तर्क उठाया है कि सृष्टि रचना के समय वे कहां बैठें? उन्होंने इस सृजन की सामग्री कहां से प्राप्त की? सृष्टि नहीं थी तो अधिष्ठान और उपकरण आए कहां से? वैदिक साहित्य में ऐसी ही तमाम जिज्ञासाएं हैं और देव शक्तियों के अस्तित्व पर भी तर्क व प्रश्न उठाये गये हैं।
पंथ, रिलीजन या मजहब के आस्थालु तर्क नहीं करते, तर्क नहीं सुनते। भारत के धर्म का विकास दर्शन के विकास के बाद हुआ। कह सकते हैं कि यहां पहले जिज्ञासा आई, फिर तर्क और वितर्क चले। प्रश्न प्रतिप्रश्नों का वातावरण बना। सभी निष्कर्ष तर्क की कसौटी से टकराने को विवश किए गए। प्रश्न प्रतिप्रश्न, तर्क वितर्क और वाद-विवाद संवाद के साथ साथ धर्म का विकास हुआ। मनुष्य स्वाभाविक रूप में जिज्ञासु है, इसलिए दुनिया के सभी समाजों के विकास के प्रारंभिक दौर में जिज्ञासा का वातावरण था। प्रश्न प्रतिप्रश्न भी थे, लेकिन इसी चरण में चमत्कारिक देवदूतों का उदय हुआ। उन्होंने मार्गदर्शन दिए। ऐसे मार्गदर्शन स्वीकृत कर लिए गए। भारतीय साहित्य में अनेक देव या देवदूत मिलते हैं, लेकिन तर्क की धारा नहीं रूकी। देवों का आराधन जारी है, लेकिन तर्क वितर्क आधारित और विवेक की वैज्ञानिक पद्धति का विकास नहीं रूका। भारत का लोकजीवन तर्क प्रधान है। इस तर्क में आस्तिकता का रस है। प्रकृति सत्य है, हम इसी के अंश। यह आस्तिकता है। इसे जांचते भी चलें, यहां यही तार्किकता है। तर्क अनुभूति मार्ग का प्रेरक है।