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Friday 18 January 2013 04:26:52 AM
आसनसोल। प्रयास आसनसोल ने हिंदी अकादमी आसनसोल के सहयोग से कथाकार काशीनाथ सिंह के रचनाकर्म पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी (सृजन संवाद 3) का 2 दिसंबर 2012 को आसनसोल नगर निगम सभागार में आयोजन किया। संगोष्ठी में काशीनाथ सिंह को सृजन सम्मान 2012 से सम्मानित किया गया, साथ ही साहित्यिक पत्रिका संबोधन के काशीनाथ सिंह विशेषांक का विमोचन भी हुआ। यह संगोष्ठी तीन सत्रों में हुई। प्रथम सत्र सम्मान सत्र, दूसरा सत्र भूमंडलीकरण और कथाकार काशीनाथ सिंह और तीसरा सत्र समकालीन कथा साहित्य और कथाकार काशीनाथ सिंह था। संगोष्ठी में जो साहित्यकार और विद्वतजन शामिल हुए, उनमे प्रमुख कथाकार काशीनाथ सिंह, कथाकार शिवमूर्ति, नारायन सिंह, कृपा शंकर चौबे, गौतम सान्याल, आशीष त्रिपाठी, कामेश्वर सिंह, पल्लव, अभिजीत सिंह आदि शामिल हैं।
प्रथम सत्र में सर्वप्रथम प्रयास संस्था के साथी राजीव लोचन सिन्हा ने प्रसाद के गीत बीती बिभावारी जाग री की संगीतमाय प्रस्तुति दी। अतिथियों का स्वागत संयोजन समिति की सदस्य डॉ कुसुम राय ने किया। प्रयास संस्था के सचिव डॉ कृष्ण कुमार श्रीवास्तव ने संस्था के उद्देश्य और उसकी गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि-संस्था का मूल उद्देश्य हिंदी साहित्य को पठनीयता के संकट से उबारने में अपना योगदान देना है, इसी क्रम में रचना केंद्रित त्रैमासिक गोष्ठियां की जाती रही हैं, साथ ही रचनाकार की उपस्थिति में उसके संपूर्ण लेखन पर केंद्रित वार्षिक अयोजन सृजन संवाद अयोजित किया जाता है, इसके पूर्व यह आयोजन, कथाकार संजीव के संपूर्ण लेखन पर (2010) तथा कथाकार शिवमूर्ति के संपूर्ण लेखन पर (2011) केंद्रित रहा है। इसी सत्र में संस्था के संरक्षक डॉ संत राम ने शाल ओढ़ाकर तथा सत्र की अध्यक्षता कर रहे कथाकार शिवमूर्ति ने स्मृति चिन्ह प्रदान कर काशीनाथ सिंह को सृजन सम्मान 2012 से सम्मानित किया।
कथाकार काशीनाथ सिंह के संपूर्ण लेखन पर चर्चा आरंभ करते हुए काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पधारे डॉ आशीष त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में कहा कि काशीनाथ सिंह के रचना कर्म के मूलतः तीन आयाम हैं-कहानी, उपन्यास और संस्मरण। किंतु मै उन्हें मूलतः कहानीकार मानता हूं। उन्होंने कहा कि काशीनाथ सिंह की प्रतिबद्धता तो प्रेमचंद की परंपरा के तहत है, किंतु कथा ढांचा, शिल्प के स्तर पर नई राह बनाते हैं, प्रतिपल जीवन की नई भंगिमा ही उनका विषय है। काशीनाथ सिंह ने अपनी रचना प्रक्रिया पर बोलते हुए कहा कि सिर्फ होने से कुछ नहीं होता, अपने होने का हक़ अदा कीजिए, उन्होंने कहा कि भद्र लोक से जुड़ कर लेखक नहीं बना जा सकता, सामान्य जनजीवन ही लेखकीय स्रोत है। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंदी भाषी क्षेत्र में यह सम्मान मुझे एक परिघटना की तरह लगता है।
अध्यक्षीय वक्तव्य में कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि-प्रेमचंद को पढ़ते हुए यह लगा कि यह तो हमारे गांव जंवार की, अपने आस -पास की कहानियां हैं, इस तरह तो मै भी लिख सकता हूं, काशीनाथ सिंह को पढ़ कर यह लगा कि सामान्य से समान्य विषय, संदर्भों को भी रचना का विषय बनाया जा सकता है। कहानी 'अपना रास्ता लो बाबा' का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जिस चाचा ने कंधे पर बैठा कर घुमाया, पढ़ाया, कथानायक उसे ही नहीं पहचानना चाहता है। प्रयास के आयोजन उत्तरोतर विकास की और हैं, इसके लिए उन्होंने आयोजकों को बधाई दी। इस सत्र का धन्यवाद ज्ञापन हिंदी अकादमी नगर निगम आसनसोल के सचिव जितेंद्र तिवारी ने किया। सत्र का संचालन डॉ दामोदर मिश्र ने किया।
द्वितीय सत्र के भूमंडलीकरण और कथाकार काशीनाथ सिंह विषय के वक्ता अभिजीत सिंह एवं प्रसिद्ध पत्रकार कृपा शंकर चौबे थे। इस सत्र की अध्यक्षता आलोचक गौतम सान्याल ने की और सत्र का संचालन अजय साव ने किया। अभिजीत सिंह ने कहा-जिस तरह तुलसी के विना राम कथा पर और रेणु के विना ग्राम कथा पर चर्चा नहीं की जा सकती, उसी तरह हिंदी कथा साहित्य में काशीनाथ सिंह के बिना भूमंडलीकरण पर चर्चा नहीं की जा सकती। उन्होंने कहा कि आत्मालोचन की प्रक्रिया उनके यहां बहुत गहरे तक समाई है। कृपा शंकर चौबे ने कहा कि काशी का अस्सी की पांच कहानियों में वैश्विकरण की आंच को महसूस किया जा सकता है, यह सिर्फ बनारस की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण हिंदुस्तान की कहानी है। रेहन पर रग्घू उदारीकरण के कारण गांव में हो रहे परिवर्तन को रेखांकित करता है, काशीनाथ सिंह की सबसे बड़ी पहचान उनकी भाषा है। इस सत्र के अध्यक्ष गौतम सान्याल ने कहा कि जब मैं साठोत्तरी कहानीकारों की टीम बनाता हूं, तो हर बार उसमे काशीनाथ सिंह का नाम आ जाता है, मै कई बार अपने प्रिय कथाकार संजीव को भी उसमे स्थान नहीं दे पाता हूं, उन्हें बारहवें खिलाड़ी के रूप में ही स्थान दे पाता हूं। उन्होंने कहा कि हिंदी आलोचकों को अभी यह पता ही नहीं है कि संरचना के क्षेत्र में काशीनाथ सिंह ने कितना महत्वपूर्ण कार्य किया है, आज के सात आठ साल बाद बाद जब कैंपस नावेल की चर्चा होगी, तो हिंदी के पहले कैंपस नावेल को अपना महत्व समझ में आएगा।
तृतीय सत्र के समकालीन कथा साहित्य और कथाकार काशीनाथ सिंह विषय के वक्ता आलोचक पल्लव और कामेश्वर प्रसाद सिंह थे। अध्यक्षता कथाकार नारायण सिंह ने की और सत्र संचालन कथाकार सृंजय ने किया। पल्लव ने कहा कि काशीनाथ सिंह का लेखन भूमंडलीकरण के राक्षस को पहचानने में मदद करता है, उन्होंने कहानी सरायमोहन की रचना उस समय की, जब विमर्शवादी दौर आरंभ हो चुका था और काशीनाथ सिंह उन रुझानों के चक्कर में पड़े बगैर प्रगतिशील नजरिये से अपनी बात कह रहे थे। वे अपने लेखन को रुढ़ियों में फंसने से बचाते हैं। रेहन पर रग्घू के अंत में बहु रघुनाथ से कहती है-तुम कहां जाते हो, मेरा पति चला गया, लेकिन तुम कहां जाते हो? यह नया स्त्री चरित्र है, जिसकी उद्भावना काशीनाथ सिंह के यहां की गई है। कामेश्वर प्रसाद सिंह ने कहा कि-साहित्य की तिकड़म मै नहीं जानता हूं, मेरा मानना है कि बड़ा मनुष्य ही बड़ा रचनाकार हो सकता है। उन्होंने काशीनाथ सिंह के समकालीनों यथा-ज्ञानरंजन, रविंद्र कालिया आदि से उनकी तुलना की, साथ ही काशीनाथ सिंह की रचनाओं के कुछ अंशों का पाठ किया।
अध्यक्षीय भाषण में कथाकार नारायन सिंह ने कहा कि साहित्य कोई समाधान नहीं देता, वह आपको बीच रास्ते पर लाकर छोड़ देता है, जिससे आप खुद विकल्प खोज सकें, प्रेमचंद ने कभी कहा था कि श्रेष्ठ रचनाएं वे होती हैं, जो आप को वेचैन करती हैं, काशीनाथ सिंह की रचनाएं इस संदर्भ में खरी उतरती हैं। अंत में उन्होंने वैयक्तिक संबंधों के आधार पर कहा कि उनका व्यक्तित्व उनकी रचना से बड़ा है, उनकी कहानियां उनकी रचना के आगे कहीं नहीं ठहरतीं। सत्रांत में रचनाकार से संवाद हुआ, उनसे प्रश्न पूछे गए। इस संवाद में विजय भारती, विजय नारायण, प्रमोद प्रसाद, महेंद्र प्रसाद कुशवाहा, दिलीप कुमार, रविशंकर सिंह, कथाकार महावीर राजी, कथाकार सृंजय आदि ने भाग लिया। काशीनाथ सिंह ने सभी प्रश्नों के समुचित उत्तर दिए। धन्यवाद ज्ञापन प्रयास संस्था के संरक्षक डॉ संत राम ने दिया।
गोष्ठी के बाद अग्निगर्भी बांग्ला कवि काजी नजरुल इस्लाम की जन्मस्थली चुरुलिया भ्रमण का कार्यक्रम बना। उबड़-खाबड़ रास्ता काशीनाथ सिंह तथा शिवमूर्ति के गाये लोकगीतों की तानो के कारण अत्यंत सुगम लग रहा था। कवितीर्थ में उनकी विरासत को संजोने के लिए किए गए वैयक्तिक प्रयासों की सबने भूरि-भूरि प्रशंसा की। हिंदी समाज अपने रचनाकारों को ऐसा सम्मान दे सके इसकी कामना की गई। सृजन संवाद-4 में फिर मिलने की शुभेक्षा के साथ सबने विदा ली।