Thursday 31 January 2013 07:01:01 AM
हृदयनारायण दीक्षित
स्टीफेन हाकिंस विरल ब्रह्मांड विज्ञानी हैं। सृष्टि रहस्यों की खोज में उन जैसे तमाम वैज्ञानिक संलग्न हैं। बीसवीं सदी में विज्ञान पंख लगाकर उड़ा है। इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक के भीतर ही वैज्ञानिक ईश्वरीय कण-गाड पार्टिकल तक उड़े हैं। विवेकानंद के व्याख्यानों का समय अलबर्ट आईंस्टीन के विशेष सापेक्षता सिद्धांत (1905) के पहले (1893-1897) का है। अद्वैत आश्रम से प्रकाशित विवेकानंद साहित्य (खंड 5 पृष्ठ 22-23) में स्वामी जी का कथन है “पहला प्रश्न सृष्टि का है, यह संसार, यह प्रकृति या माया अनादि और अनंत हैं, जगत् किसी एक विशेष दिन नहीं रचा गया। एक ईश्वर ने आकर इस जगत् की सृष्टि की और बाद में वह सोता रहा, यह हो ही नहीं सकता।” ऋग्वेद में ‘असत् से सत्’ प्रकट होने का उल्लेख है, लेकिन इसके पहले भी एक समय ऐसा है ‘जब न सत् था, न असत्। आकाश के पार भी जो कुछ है, वह नहीं था-नो व्योमा परे यत्। (ऋ0 10.129) वायु भी नहीं थी-अवातं, लेकिन वह अपनी शक्ति से प्राण ले रहा था-स्वध्या आनीत। ब्रह्मांड सदा रहता है, लेकिन हमेशा एक जैसा नहीं रहता। जब वह अतिसूक्ष्म स्थिति में होता है, तब अव्यक्त कहा जाता है और जब स्थूल दृश्यमान होता है तो व्यक्त। अव्यक्त ही असत् है। असत् का अर्थ शून्य नहीं है। शून्य से सृष्टि का उद्भव नहीं हो सकता। ऋग्वेद के सृष्टि सर्जन में एक समय वायु भी नहीं है, लेकिन प्राण हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है-“असत् से सत् की उत्पत्ति अभाव से भाव का उद्भव, शून्य से संसार का उदय युक्तिसंगत नहीं है, सारी प्रकृति सदा विद्यमान रहती है, केवल प्रलय के समय वह क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है और अंत में एक दम अव्यक्त हो जाती है।” (वही) असत् से सत् आने का अर्थ है- अतिसूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल और लगातार स्थूल होने का क्रम। आकाश सूक्ष्मतम है। वायु इसके बाद हैं, वायु का अनुभव स्पर्श से मिलता है, लेकिन वायु दिखाई नहीं पड़ती। फिर तेज पूर्ण अग्नि है। फिर जल है, फिर पृथ्वी और फिर पृथ्वी परिवार। स्वामीजी ने कहा-“हमारी संस्कृति के सृष्टि शब्द का अंग्रजी में ठीक अनुवाद किया जाए तो शब्द होना चाहिए ‘प्रोजेक्शन’ (प्रक्षेपण), क्रिएशन नहीं।” सृष्टि प्राण और पदार्थ की प्रतिच्छाया है - प्रोजेक्शन मात्र। विवेकानंद ने बताया-“यह सृष्टि ब्रह्मांड का ही प्रक्षेपण है। यह प्रक्षेपण प्राण शक्ति के स्पंदन में होता है।” विज्ञान ने ब्रह्मांड को ऊर्जा और पदार्थ से निर्मित माना है। विवेकानंद ने इसे प्राण और आकाश की संज्ञा दी है। प्राण की महत्ता उपनिषदों में है। प्राण ज्ञेय हैं और आराध्य भी। आकाश सूक्ष्मतम तत्व है ही।
विवेकानंद ने प्राण को ऊर्जा बताया। ऊर्जा वैज्ञानिक शब्दावली है। प्राण अनुभूति से आया शब्द है। विवेकानंद ने प्राण-ऊर्जा को किताबों से नहीं, अनुभूति से जाना था। उन्होंने उपनिषद पढ़े थे, लेकिन उपनिषद तत्व को अनुभूति से भी पाया था। कठोपनिषद् के उद्धरण उन्होंने बहुधा दिए हैं। कठोपनिषद् (2.13) में यम नचिकेता से कहते हैं-“शब्द, रूप, रस, गंध आदि की अनुभूति करने वाली ज्ञान शक्ति से ही इनकी क्षण भंगुरता भी समझ में आ जाती है।”
विवेकानंद में यह बोध अपने चरम तक खिला था। व्यक्तिगत सांसारिक सुख उनके लिए क्षणभंगुर थे। जो जाना था, उसे आजीवन बताते रहने का ऋषि संकल्प उन्होंने पूरा किया था। अनुभूति बड़ी गहन थी उनकी। कठोपनिषद् (2.1.7) में अदिति-सृष्टि के बारे में ऋषि अनुभूति है ‘जो देव अदिति प्राण सहित उत्पन्न हैं, वे हृदय गुहा में हैं, हे नचिकेता यह वही हैं, जिनके संबंध में तुमने पूछा है।” विवेकानंद ने प्राण को ठीक ही ऊर्जा बताया है। विज्ञान भी जगत् को ऊर्जा और पदार्थ का योग मानता है। विवेकानंद ने इसे प्राण और आकाश कहा है-“ब्रह्मांड के सभी पदार्थ उस एक प्रारंभिक पदार्थ का परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं। इसी तरह सभी बल, चाहे वह गुरूत्वाकर्षण हों, आकर्षण विकर्षण हों या जीवन हो, वे सब एक ही प्राथमिक बल के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण कहते हैं।”
आकाश और प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है। प्राण ऊर्जा ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। यहां आकाश का अर्थ ऊपर नहीं है। चक्रीय गतिशीलता के पहले सृष्टि का आदि तत्व आकाश निष्क्रिय है। प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ। पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए। भारतीय अनुभूति में एक निर्धारित समय के बाद यही गतिविधि उल्टी दिशा में चलती है। सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय। सर्जन से विसर्जन। विवेकानंद ने कहा है पदार्थों को मूल आकार देने की प्रक्रिया शुरू होती है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं। सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में। प्रश्न है कि अंतरिक्ष में निर्वात है? शून्य है? स्वामी जी ने कहा है-“क्या आपके और सूर्य के बीच कोई अंतर है? यह लगातार व्यापक पदार्थ है, इसका एक हिस्सा सूर्य है और दूसरा हिस्सा आप।
क्या आप बहती नदी का एक हिस्सा दूसरे से अलग कर सकते हैं?” (रामकृष्ण मिशन कलकत्ता के स्वामी सुनिर्मलानंद के आलेख में उद्धृत) छांदोग्य उपनिषद् में प्रीतिकर कथा है-“देव और असुर संघर्षरत थे। देवों ने ‘उद्गीथ’ (ओम्) का अनुष्ठान किया। नासिका में प्राण के रूप में प्रवाहित ओम् की उपासना की। असुरों ने उसे पापविद्ध कर दिया। पापविद्ध होने के कारण ही वह सुगंध और दुर्गंध दोनों को सूंघता है। देवों ने वाणी रूप प्राण की उपासना की, असुरों ने उसे भी पापविद्ध कर दिया। इसीलिए वाणी सत्य और असत्य दोनो बोलती है। देवों ने श्रोत्र (सुनने वाला प्राण) प्राण की उपासना की। असुरों ने उसे भी पापविद्ध कर दिया। सो हमें प्रिय अप्रिय दोनों को सुनता है। देवों ने मन-प्राण की उपासना की, असुरों ने फिर वही किया। मन अच्छे बुरे दोनो संकल्प करता है, तब देवों ने मुख्य प्राण की उपासना की-एवायं मुख्य प्राण स्त। असुरगण ध्वस्त हो गए।”
उपनिषद् का ऋषि इतिहास बताता है-“अंगिरा ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसलिए मुख्य प्राण को आंगिरस कहते हैं। बृहस्पति ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसे बृहस्पति भी कहते हैं। वाक् वृहती है, प्राण उसका पति है। दल्भ के पुत्र बक ने प्राणोपासना की। वह नैमिषारण्य के यज्ञ का मुख्य उद्गाता हुआ।” भारत में एक दीर्घ परंपरा है-प्राण उपासना की। विवेकानंद ने भी प्राणोपासना की। उन्हें विश्वात्मा की अनुभूति हुई। उपासना का अर्थ पूजा नहीं ‘उप-आसन’ है। यहां प्राणोपासना का अर्थ प्राण की आत्मीय निकटता है। विवेकानंद ने अनुभूति में प्राण ऊर्जा का साक्षात्कार किया था। ‘प्राण और आकाश’ ये दो आधारभूत तत्व हैं। स्वामीजी ने कहा है कि कुछ तो है, जो इनसे भी परे है। ये दोनों एक तीसरी सत्ता महत् चेतना में समाहित हो जाते हैं। यह ‘कास्मिक माइंड’ आकाश और प्राण का सृजन नहीं करता, स्वयं को उसमें परिवर्तित कर लेता है।” अर्थात ‘वह’ महत चेतन प्राण आकाश से बने विश्व के प्रत्येक हिस्से में उपस्थित रहता है।
केनोपनिषद् (1.8) में प्राण संबंधी प्रश्न पूछा गया है। ऋषि का उत्तर है “यत् प्राणेन न प्राणति येन प्राणः प्रणीयते-जो प्राण के द्वारा स्पंदित-सक्रिय नहीं होता, बल्कि जिससे प्राण ही सक्रिय होता है, वही परम सत्ता है।” प्राण का स्पंदन एक बात है, इस स्पंदन को सक्रिय करने वाला भी कोई होना चाहिए, फिर प्राण के स्पंदन से आकाश तत्व से आगे का विकास करने की प्रेरक शक्ति भी। स्वामीजी को इसकी अनुभूति थी, लेकिन वे इसकी वैज्ञानिक सिद्धि भी चाहते थे। स्वामी जी इस संदर्भ में निकोलस टैक्सला के संपर्क में थे। टैक्सला इस संबंध में वैज्ञानिक प्रयोगों की ओर सक्रिय भी थे। स्वामी जी में वेदान्त की अनुभूति थी। अनुभूति हस्तांतरणीय नहीं होती। वे वेदांत को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास कर रहे थे।स्वामीजी को गए 100 बरस से ज्यादा बीत चुके हैं। तबसे ब्रह्मांड विज्ञान ने काफी उन्नति की है। स्टीफेन हाकिंस के प्रयोगों और निष्कर्षों ने सारी दुनिया को चौंकाया है, लेकिन विज्ञान की तेज रफ्तार यात्रा में प्राचीन वैदिक अनुभूति और विवेकानंद का निष्कर्ष कहीं भी काटा नहीं जा सका।