विशेष संवाददाता
नई दिल्ली।वित्तमंत्री थिरू पी चिदंबरम के बजट से यह समझने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए कि राहतों का यह पिटारा केवल जादुई है जिसे वोटों के लिए खोला गया है। यह कांग्रेस की लोकसभा के चुनाव की तैयारी है। बिल्कुल साफ है कि इसी साल के अंत तक ये चुनाव हो जाएंगे। अगले साल इन राहतों की असली सच्चाई खुलेगी जिसमें जनता को आटे दाल का भाव पता लग जाएगा। नई सरकार अपने बजट में मतदाता के कपड़े उतारने की बात तो बहुत छोटी है, उसकी खाल तक खींच लेगी जिससे वह ऐसी राहतों का नाम लेना भी भूल जाएगा। केवल विकास से ही वोट नहीं मिलते, राजनीति सफलता में चार सौ बीसी का भी बहुत बड़ा रोल होता है। वित्त मंत्री ने साबित कर दिया है कि यहां वोटरों को अच्छे कार्यों से नहीं बल्कि लालच देकर ही फंसाया जा सकता है। सभी राजनीतिक दल समझते हैं कि लालच, भारतीय मतदाता की बड़ी कमजोरी है, वह एक ‘धोती-साड़ी’ के लिए भीड़ में कुचल कर मरने तक को तैयार रहते हैं, इसलिए उसे ‘टॉफी’ दिखाइए और फिर उससे उसी के इस्तीफे पर हस्ताक्षर करा लीजिए।
क्या आप समझते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसे उदारवादी बजट के अनुकूल है? जो राहतें चिदंबरम ने बांटी हैं, उनका देश के राजकोष पर जो बोझ पड़ेगा, उसकी पूर्ति कहां से होगी? यह बजट में साफ तौर पर कहीं नहीं है। हर बात घुमा फिराकर कही गई है। किसानों की कर्ज माफी हो या महिलाओं की आयकर की सीमा। बैंकों का बैंड बजाकर मतदाताओं को पूरी तरह से ललचाया गया है। देश के चुनाव आयोग को केवल चुनावों में ही पैसे बंटते नजर आते हैं, यह नजर नहीं आ रहा है कि लोकसभा चुनाव के ऐन पहले ये क्या बंदरबाट हो रहा है। इस पर भी देश में एक कानून आना चाहिए ताकि कोई सरकार चुनाव पूर्व बजट को वोटों के लिए इस्तेमाल न कर सके। वित्त मंत्री की होशियारी देखिए जो तुरंत पकड़ में आ गई-एक तरफ कंप्यूटर सस्ते कर दिए गए तो दूसरी तरफ उनके साफ्टवेयर महंगे। जबकि सारा खेल ही साफ्टवेयर का है।
मान गए चिदंबरम जी! शायद आप इस गलतफहमी में जी रहे हैं कि लोग आपकी अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ को ही एक अच्छा वित्तमंत्री समझते हैं। वित्तमंत्री ने अपने अंदाज में बजट की जो परिभाषा गढ़ी है, उससे किसानों, मजदूरों या देश की आर्थिक विकास दर का कितना विकास होगा यह तो चालीस साल में भी नहीं समझा जा सका है, लेकिन जो चिदंबरम साहब का बजट है, उससे तुरंत ही यह जरूर समझ में आ गया है कि लोकसभा का चुनाव इसी साल दिसंबर तक कभी भी हो जाएगा। यह संदेश देश में और देश के बाहर चला गया है। चुनाव की तैयारी कीजिए और मतदाताओं से कहिए कि पांच साल में यूपीए सरकार की यह महान उपलब्धि है कि उसने चुनाव पूर्व के बजट में देश के वोटरों के लिए केंद्र सरकार के राजकोष के द्वार खोल दिए हैं।
देश में आर्थिक प्रगति की समीक्षा के अलग-अलग पैमाने हैं। सरकार किसी और दृष्टिकोण से इसकी समीक्षा करती है। आर्थिक सलाहकारों का कोई और दृष्टिकोण है और जिन पर इनका सीधा असर होता है उनका दृष्टिकोण इन दोनों से बिल्कुल अलग है। बेमेल राजनीतिक समझौतों और राजनीतिज्ञों की उच्च महत्वाकांक्षाओं, राज्यों के विघटन, विवादास्पद नीतियों और बेतुके एजंडों के कारण सरकारें अपने कार्यकाल से पहले ही दम तोड़ने लगी हैं। जिस दिन लोकसभा में अटल बिहारी बाजपेयी की तेरह दिन की सरकार का केवल एक वोट से पतन हुआ था, उसके पीछे न तो देश की और न देश की अर्थव्यवस्था की और न देश में राजनीतिक स्थिरता की चिंता थी। वह षडयंत्रपूर्वक किसी को वोट देने का धोखा देकर अपना बदला चुकाना था या किन्ही को देश में केवल अपनी फर्जी राजनीति धर्मनिरपेक्षता साबित करनी थी। वह भारतीय राजनीति और देश की अर्थव्यवस्था के लिए काला दिन था जिस कारण देश को फिर से राजनीतिक अस्थिरता, अयोग्य नेतृत्व और चुनाव का सामना करना पड़ा। आज वही राजनीतिक दल देश के धर्मनिरपेक्ष दलों के भारत के अमरीका से परमाणु करार को पूरा करने के लिए उन्ही अटल बिहारी बाजपेयी से समर्थन की गुहार लगा रहे हैं। इसलिए यदि बजट का सरकारी दृष्टिकोण सही है तो यह देश राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता का सामना क्यों कर रहा है?
जाहिर है कि भारत के बजट शास्त्री पांच सितारा होटलों और वातानुकूलित बंगलों में बैठकर, विदेशों के आर्थिक घुसपैठियों से राय लेकर अपने देश के नत्थू, कढेरा और बंसी के लिए कंप्यूटरीकृत बजट बनाते हैं। वे इन मतदाताओं से देश की आर्थिक स्थिति के बारे में झूठ पर झूठ बोल रहे हैं। सब्सिडियां देकर जिस तरह से वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने के दावे हो रहे हैं, इस देश में उसका ज्वालामुखी एक न एक दिन फटकर रहेगा। देश की अर्थव्यवस्था का कड़वा सच तो यह है कि जो पेट्रोल आज पचास रुपये लीटर मिल रहा है, आज उसकी कीमत करीब ढाई सौ रुपये लीटर होनी चाहिए। इस सच्चाई को हर एक सरकार छिपाती आ रही है। सब्सिडियों के अंतरजाल में किसानों को इतना उलझा दिया गया है कि उसके खाद और पानी में कोई परता ही नहीं पड़ रहा है कहने को उसकीआर्थिक बेहतरी के लिए सरकार सब कुछ कर रही है। किसान बुरी तरह महाजनों की जकड़ में हैं और सरकारी बैंकों के बोझ से परेशान होकर आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज माफी का लाभ भी उसे नहीं बल्कि फार्म हाउसों को मिलने जा रहा है। आज यह किसानों के साथ हो रहा है और कल यही आम आदमी के साथ होने वाला है-तैयार रहिए!
वित्त मंत्री ने आंकड़ों में देश की आर्थिक विकास दर को बहुत संतोषजनक बताने की कोशिश की है। कौन नहीं जानता कि भारतीय मुद्रा किस प्रकार से घाटे में गोते खा रही है। भारत में विकास दर इतनी धीमी चल रही है कि वह देश के बढ़ते जनसंख्या दबाव का सामना करने में पूरी तरह से विफल है। क्या वित्त मंत्री ने इस तरफ भी ध्यान दिया है? मगर यह मुद्दा उनके दल के लिए एक राजनीतिक मामला है, राजनीतिक संकट है और राजनीतिक मजबूरी है। सभी सरकारें इससे डरी रहती हैं। जनसंख्या नियंत्रण का मामला जोखिम का है। जनसंख्या की रफ्तार रोकने की कोशिश में बड़े-बड़े राजनीतिक दल पटरी से बाहर हो सकते हैं, लेकिन इस सच का किसी न किसी को सामना करना ही होगा, तभी बजट में जो राहतें दी जा रही हैं वह फलफूल सकेंगी और लोग उनका लाभ उठा सकेंगे।
बजट में वित्तमंत्री ने देश के नागरिकों की प्रशंसा अर्जित करने के जो प्रयास किए हैं, उनसे खुश होने के बजाए एक तनाव दिखाई देता है। मध्यम वर्ग सरकार की लोकप्रियता का पैमाना निश्चित करता है। यही वर्ग संघर्ष में खड़ा हुआ है। उसको इस बजट में एक अस्थाई टै्रक दिया गया है। उसे बजटियां तरीके से मूर्ख बनाना अब आसान नहीं है। अपनी प्रगति के लिए यह वर्ग उस खुले आकाश की तरफ देख रहा है जहां उसकी सुख समृद्धि के अंतहीन रास्ते खुल रहे हैं। भारत की प्रतिभाएं यहां से पलायन करके दूसरे देशों को समृद्धिशाली बना रही हैं। वित्तमंत्री ने इन्हें अपने ही देश में रोकने और उसका देश की प्रगति में उपयोग करने के लिए किसी भी योजना की पहल नहीं की है। जो भी पहल है वह केवल शब्दों में है नीतियों और कार्यक्रमों में नहीं है। जहां तक भारत के औद्योगिक घरानों के योगदान का प्रश्न है तो निजी क्षेत्र ने आज भारत को बचा रखा है। देश के औद्योगिक घरानों एवं अप्रवासी भारतीयों पर भारत के बारे में सोचने का बड़ा दबाव आ गया है। किसी भी देश की प्रगति में उसकी उत्पादन क्षमता में बढ़ोत्तरी और प्रतिभाओं का समुचित विकास एवं उपयोग उस देश की समृद्धि का मूलमंत्र है लेकिन इसी का सबसे ज्यादा शोषण और दोहन हो रहा है। वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में इनके लिए क्या किया? जयहिंद!