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‘जिस तरह कानून बन रहे हैं, उससे डर लगता है’

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसएच कपाड़िया

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Saturday 09 February 2013 05:58:49 AM

नई दिल्ली। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया ने जहां न्यायपालिका के सीमा उल्लंघन की बात स्वीकारते हुए जजों को संविधान में दिए गए शक्ति बंटवारे के सिद्धांत का ध्यान रखने की नसीहत दी है, वहीं सरकार को भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करने और इसके साथ छेड़छाड़ न करने की नसीहत दी। उन्होंने कहा है कि न्यायिक जवाबदेही कानून बनाते समय सरकार को न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित न होने के प्रति सावधान रहना होगा। पूर्व मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया का यह कथन हमेशा के लिए प्रासंगिक है। यह बात उन्होंने पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सुप्रीम कोर्ट में ध्वजारोहण समारोह में कही थी।
जस्टिस कपाड़िया ने कहा था कि कभी-कभी न्यायपालिका ऐसा फैसला देती है, जिससे संविधान में दिया गया शक्तियों का संतुलन बिगड़ जाता है, यह सीमा अतिक्रमण है। हमें फैसला देते समय शक्ति विभाजन के सिद्धांत का ध्यान रखना चाहिए। कार्यपालिका और विधायिका को मिले अधिकारों और शक्तियों का सम्मान किया जाना चाहिए। उन्होंने जजों से कहा कि फैसला लिखते समय उन्हें इन बातों का ध्यान रखना चाहिए। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने सरकार को भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता से छेड़छाड़ न करने के लिए आगाह किया। उन्होंने कहा कि सरकार न्यायाधीशों को जवाबदेह बनाने के लिए कानून बनाए, वे उससे भयभीत नहीं हैं, लेकिन ध्यान रखे कि उससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित न हो, स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान का मूल तत्व है। कानून बनाते समय इसका ध्यान रखा जाए। सरकार कानून बनाते समय जाने-माने न्यायविदों की राय ले और दुनियाभर में हो बदलावों का भी ध्यान रखे। अगर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच का संतुलन खराब हुआ तो संविधान के सिद्धांतों को नुकसान पहुंचेगा।
जस्टिस कपाड़िया का कहना है कि जिस तरह से आजकल देश में कानून बन रहे हैं, उससे डर लगता है कि हम बड़ा खतरा उठा रहे हैं। इससे संविधान में दिया गया शक्तियों का संतुलन खराब हो सकता है। उन्होंने कानून मंत्री से अनुरोध किया कि चाहें कोलेजियम सिस्टम रहे या न्यायिक जवाबदेही कानून लाया जाए अथवा कुछ और, लेकिन इससे पहले जाने-माने कानूनविदों की राय जरूर ली जाए।
वरिष्ठ अधिवक्ता मनी राम शर्मा की राय है कि देश की न्यायपालिका स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का प्रयोग कर रही है। प्रजातंत्र में जनमत सर्वोपरि होता है और कानून निर्माण में जनभागीदारी की आवश्यकता है न कि कानूनविदों की राय की। भारत में कानूनविद् कभी भी ऐसे कानून के निर्माण के पक्ष में नहीं होंगे, जिससे उनकी जिम्मेदारी तय हो और न्यायिक कार्य का सरलीकरण होकर उसमें पारदर्शिता आए। भारतीय न्यायालय जनता को सूचना देने तक में आनाकानी करते है, उनसे यह आशा रखना कि वे न्याय दे देंगे दिन में सपने देखना है, जो न्यायपालिका भ्रष्टाचार के मामले में अपनी रजिस्ट्री पर नियंत्रण करने में अपने आपको असहाय पाती है, उससे भी आशा रखना व्यर्थ है, जैसे की वर्ष 2010 की संगोष्ठी में स्वीकार किया गया था।

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