दिनेश सिंह
नई दिल्ली। चौधरी अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव में अगर दोस्ती कायम रही होती तो ब्राह्मण और सवर्ण कार्ड चलाने के बावजूद मायावती उप्र विधानसभा चुनाव में सौ-सवा सौ सीटों के बीच में ही सिमट जातीं। यही समीकरण अभी भी और इस वक्त भी कायम है। इसलिए बसपा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री मायावती के प्रधानमंत्री बनने के सपने को तोड़ने के लिए यह दोस्ती काफी है। मायावती से निपटने के लिए जहां मुलायम अपनी रणनीतियों में मशगूल हैं, वहीं राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह इस समय शांत हैं। लोकसभा चुनाव की राजनीतिक उथल-पुथल, उप्र में मायावती सरकार की कारगुजारियों और बसपा के कांग्रेस, सपा और भाजपा के खिलाफ अभियान पर भी उनकी नज़र है। वह अभी किसी के साथ चलने की जल्दी में दिखाई नहीं दे रहे हैं, क्योंकि उन्हें पहले से ही कोई राजनीतिक फैसला करने की जरूरत भी नहीं है। सब मानते हैं कि देश का कोई भी राजनीतिक घमासान, पश्चिम उत्तर प्रदेश के इस ताकतवर राजनीतिक नेटवर्क को हिला नहीं पाया। रालोद को कम आंक कर चलने के मीडिया या राजनीतिक विश्लेषकों के दावे हमेशा गलत साबित हुए हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश के दलित, मुस्लिम, पिछड़ा वर्ग और जाट बाहुल्य पट्टी में कई विधानसभा सीटों पर जाट अपनी निर्णायक भूमिका में हैं, जो राजनीतिक मामलों में ज्यादातर चौधरी अजित सिंह के ही साथ चलते हैं।
भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस ने समय-समय पर चौधरी अजित सिंह के जनाधार वाले इलाके में सेंधमारी की बड़ी कोशिशें की हैं, लेकिन उन्हें मनमाफिक सफलता नहीं मिली। इनमें भाजपा ने जरूर कुछ जगहों पर अपना जाल बिछाया हुआ है। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत और हरियाणा के इनेलो के अध्यक्ष ओमप्रकाश चौटाला भी यहां के जाटों में राजनीतिक विघटन की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन जब भी राजनीति का प्रश्न आता तो जाटों ने उप्र में चौधरी अजित सिंह को ही अपना नेता माना है। हालाकि एक सच यह भी है कि कुछ जाट चौधरी से नाराज रहने लगे हैं, उसके भी कुछ राजनीतिक कारण हैं, लेकिन समय आने पर वे अजित सिंह के साथ ही हो लेते हैं।
नोट करने वाली बात है कि उप्र विधान सभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के स्पष्ट बहुमत तक पहुंचनेमें जिस सवर्ण समुदाय ने अपनी निर्णायक भूमिका निभाई है, वह भी रालोद को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा पाया। सबसे बड़ी बात यह है कि चौधरी अजित सिंह कभी भी बड़बोले होकर अपने को राष्ट्रीय दल नहीं कहते हैं, वे रालोद को क्षेत्रीय दल ही कहते हैं। जबकि राष्ट्रीय राजनीति में उनकी हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहती है, खामोश रहकर भी। रालोद उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों में भी अपनी राजनीतिक पकड़ रखता है। उनकी मुलायम सिंह यादव से जो दोस्ती हुई थी,उसके भी यही मायने हैं। मगर यह दोस्ती लंबे समय तक नहीं चल पाई, जिससे इन दोनों ही नेताओं का चुनाव में नुकसान हुआ। इसलिए इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं करेगा कि चौधरी अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव की दोस्ती उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों में कोई भी गुल खिला देने की ताकत रखती है। इस सच्चाई को मायावती अच्छी तरह से जानती हैं। उनकी कोशिश है कि मुलायम और अजित कभी एक न होने पाएं। लोकसभा चुनाव में मायावती पर इस सम्भावित गठजोड का खतरा सर चढ़कर बोल रहा है। मुलायम और अजीत सिंह के संपर्क में रहने वाले नेता इस प्रयास में हैं कि यह दोनों राजनेता फिर से दोस्ती करें और आने वाला लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ें। मायावती के प्रधानमंत्री बनने के सपने में तब यह समीकरण भी एक बड़ी बाधा होगा।
चौधरी अजित सिंह अगर अपने राजनीतिक फैसलों के कारण हमेशा विवाद में रहे हैं तो मुनाफे में भी रहे हैं। उन्होंने ही पिछली बार मायावती की गठबंधन सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, और उनके समर्थन वापस लेते ही मायावती सरकार के पतन का रास्ता साफ हो गया था। इसके बाद उनकी मुलायम सिंह यादव से दोस्ती हुई और जब तक यह दोस्ती रही, मुलायम सरकार जमकर चली। दोनोंके अलग होते ही मुलायम सिंह यादव को विधानसभा के चुनाव में इसकी कीमत चुकानी पड़ी। इससे चौधरी अजित सिंह को उतना नुकसान नहीं हुआ, जितना मुलायम सिंह यादव को हुआ। यदि अनुपातिक दृष्टि से नुकसान का आकलन किया जाए तो अजित सिंह जितनी सीटें जीते हैं वह उन्होंने अपने दम पर जीती हैं। यह तब है जब जाटों में ही कुछ दूसरे क्षत्रप मायावती और मुलायम सिंह के साथ भी खड़े होकर अपनी ढपली बजा रहे थे।
आज हरियाणा के ओमप्रकाश चौटाला यूपी में मुलायम सिंह यादव के साथ खड़े दिखाई पड़ रहे हैं। लेकिन चौटाला का उत्तर प्रदेश के जाटों में कोई जनाधार नहीं है। यहां केवल अजित सिंह का ही सिक्का चलता है। अजित सिंह को मुंह चिढ़ाने से ज्यादा चौटाला को यहां कोई लाभ होने वाला नहीं है और न ही मुलायम सिंह यादव को उनसे कोई ताकत मिलने वाली है। समाजवादी पार्टी से अलग हुए फिल्म अभिनेता राजबब्बर का भी यही कहना है कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और चौधरी अजित सिंह की दोस्ती का कोई भी विकल्प नहीं है। यह गठजोड़ राज्य के किसी भी जातीय समीकरण को तहस-नहस कर सकता है। खासतौर से भारतीय जनता पार्टी के पराभव के प्रश्न पर इसे जो समर्थन हासिल होगा, वह किसी को भी हासिल नहीं हो सकता। लेकिन इसमें मुलायम सिंह यादव को उन कारणों से अपनेको दूर रखना होगा,जिन कारणों से चौधरी अजीत सिंह उनसे अलग हुए।
चौधरी अजित सिंह किसानों की बदहाली को लेकर बहुत चिंता में है। इस बार गन्ना मूल्य के भुगतान एवं मूल्य निर्धारण के विवाद ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की कमर तोड़ दी है। अजित सिंह का कहना है कि किसी भी सरकार में किसानों के इतने बुरे दिन कभी नहीं आए। किसान अच्छी तरह से जानता है कि इसके लिए सीधे तौर पर मायावती जिम्मेदार है। हाल ही में पश्चिम उत्तर प्रदेश में जातीय संघर्ष की कुछ घटनाएं सामने आई हैं। मायावती के जन्म दिन पर चंदा वसूली में पुलिस ने जो ज्यादतियां की हैं, उनका भी इस इलाके के जाट समाज में बड़ा खराब संदेश गया है। इससे जो जाट अजित सिंह से अलग चल रहे थे वे भी उनकेसाथ एकजुट हो रहे हैं।