स्वतंत्र आवाज़
word map

मोहर्रम पर इमाम हुसैन को याद किया

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

नई दिल्ली। हर वर्ष की भांति इस बार भी पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन की यादगार मोहर्रम यौम-ए-आशूरा पर देश भर में विशाल जुलूस निकाला गया। जुलूस में आगे-आगे परचम-ए-इस्लाम, अलम-ए मुबारक और आशिकान-ए-हुसैन के मातमी जत्‍थों ने मातम किया। शहरों और प्रमुख गांवों मे चौराहों पर जगह-जगह उलेमाओं की तकरीरें भी हुईं। नम आंखों में किसी खास को खोने का गम और ढोल-ताशों से लगातार निकलती मातमी धुनें हर तरफ सुनाई दीं। इन गमगीन नजारों का हर गवाह इमाम हुसैन को अपने दिल में बसाकर घर लौटा। इंसानियत के अलमबरदार, शेर करबला, शहीदे आजम हजरत इमाम हुसैन की यादगार मोहर्रम, श्रद्घापूर्वक मनाया गया। इससे पहले अलम, ताजिए, 5 दिसंबर की रात, दर्शनार्थ रखे गए।
इमामबाड़ों से ताजिए निकलने शुरू हुए। रात को सारे ताजिए अपनी-अपनी मस्जिदों  पर पहुंचे तो संयुक्त मातम हुआ। मोहर्रम में सभी धर्म के लोगों की श्रद्धा होती है। ताजिए के नीचे से निकलकर जितनी संख्या में मुस्लिम महिलाएं अपने बच्चों को लेकर जाती हैं, उतनी ही संख्या में अन्य धर्म के लोग भी होते हैं। यह माह सच्चाई, इंसाफ और नेक राह पर चलने वाले हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद दिलाता है। हजारों-लाखों की संख्या में बनते हें ताजिए। ताजिए बनाने वाले लोग पहले बांस का बंदोबस्त करते हैं, फिर बांस को काटकर फंटियां बनाई जाती हैं और उनकी पतली-पतली तीलियों से तरह-तरह के आकार व साइज के ठाठ तैयार किए जाते हैं। इन कलात्मक ठाठों पर कागज की मढ़ाई की जाती है। खूबसूरत रेशों व डिजाइन के कागज, पन्नी, चमक, अवरक आदि से मढ़ाई कर ताजिए तैयार किए जाते हैं। कच्ची सामग्री काफी महंगी होने के बावजूद ताजिया बनाने वाले कारीगर अपने पुश्तैनी पेशे को जिंदा रखे हुए हैं।
पुलिस ने मोहर्रम पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए हैं। छह दिसंबर को मोहर्रम और अयोध्या प्रकरण की तिथि एकसाथ आने पर कई जगह हाई अलर्ट रखा गया। आइए जाने कि क्या हैं ताजिए और मुहर्रम। जब नए साल का चांद मुबारक नजर आया तो इसके साथ ही इस्लामिक नववर्ष 1433 हिजरी की शुरुआत हो गई। हिजरी सन् के नए साल के पहले चांद से मोहर्रम माह शुरू होता है। इसमें सातवें चांद पर मेहंदी की रस्म अदा की जाती है। आठवें दिन ताजिए के निर्माण का अंतिम कार्य किया जाता है। नवमी की रात को ताजियों का जुलूस निकाला जाता है। दसवें दिन ताजियों को ठंडा किया जाता है। लोग मन्नतें पूरी होने पर ताजिए बनवाते हैं। मोहर्रम के पहले चांद से ताजिए का निर्माण शुरू हो जाता है। मोहर्रम के दसवें चांद के दिन इन्हें जलाशयों में ठंडा किया जाता है। ताजिए के जुलूस के दौरान जगह-जगह सबीलों का निर्माण किया जाता है। इसका निर्माण बच्चों और युवा द्वारा किया जाता है। सबीलों पर शरबत वितरण किया जाता है, जो जुलूस में लोगों को वितरित किया जाता है। 
ताजिए करबला मैदान पहुंचे और अपनी-अपनी मजहबी रसूमात पूरी की गई। इसके बाद अपनी-अपनी अकीदत के अनुसार विसर्जित किए गए। मोहर्रम का चांद नजर आते ही सभी ठिकानो, अजाखानों इमामबाड़ो और प्राचीन करबला मैदान पर परंपरागत मजलिसों का सिलसिला चल शुरू हुआ। लखनऊ, दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, जयपुर, हैदराबाद, कलकत्ता, जावरा इत्यादि अनेक शहरों में प्रमुख उलेमा मजलिसों को संबोधित कर करबला की लोमहर्षक घटना का वर्णन कर रहे है।  लगभग चौदह सौ वर्ष पहले नवासा-ए-रसूल इमाम हुसैन ने करबला के मैदान में अपनी और अपने जांनशीनों की कुर्बानियां दी थी। इसके तहत इस्लामिक साल के पहले माह मोहर्रम की दस तारीख तक मजलिस और मातम का दौर जारी रहता है। चांद दिखने के साथ ही नए इस्लामिक साल के मोहर्रम माह का आगाज हो जाता हें। मोहर्रम माह की पहली तारीख से ही शिया मुस्लिम समाज पैगंबर मौहम्मद साहब के नवासे और उनके जांनशीनों द्वारा करबला के मैदान में दी गई शहादत का गम मनाने में जुट जाते हें।
करबला का वाकेआ (घटना) दुनिया की तारीख का एक ऐसा लोमहर्षक वाकेआ माना जाता है, जो तेरह सौ साल का लंबा समय बीत जाने के बावजूद दुनिया वालों के दिलों से दूर न हो सका। हर साल मोहर्रम में इस वाकेआ की याद की जाती है और कयामत तक यह याद ताजा की जाती रहेगी। हजरत इमाम हुसैन अलेयहिस्लाम उच्च विचार, सादा जिंदगी और सच्चई का नमूना थे। वे पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्ला-व-अलैहस्सलाम के प्यारे नवासे, शेरेखुदा हजरत अली (रजि.) और हजरत फातिमा (रजि.) के बेटे थे। उन्होंने अपने नाना पैगंबर इस्लाम की गोद में नेकी और हक की तालीम हासिल कर परवरिश पाई, फिर यह कैसे मुमकिन हो सकता था कि हजरत इमाम हुसैन यजीद की नाइंसाफियों, गुरूर व बदकिरदारी देखकर चुप्पी साध लेते और अपना पाक हाथ यजीद के हाथों में देकर बेअत (आधीनता) कबूल करते।
हजरत इमाम हुसैन ने सच्चाई और हक के लिए मैदाने करबला में न सिर्फ खुद जाम-ए-शहादत पिया, बल्कि इस्लाम की हिफाजत के लिए नन्हें-मुन्ने नौनिहालों, जिनके चेहरों से मासूमियत टपकती थी, अपने परिवार के 72 सदस्यों को कुरबान कर दिया। तारीख गवाह है कि ज्यों-ज्यों जुल्म-सितम बढ़ रहे थे, उनका चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिलता जाता था और जुबान शुक्र इलाही अदा करती थी। इत्मीनाने कल्ब में इजाफा हो रहा था। यही वह दो चीजें हैं, जहां मोमिन-ए-कामिल की अजमत का अंदाजा होता है। देखा गया कि जिनके काम बड़े, उनका नाम बड़ा और जिनके नाम बड़े, उनकी अजमत बड़ी, मगर यह बात भी है कि दुनिया और दुनिया की सारी बातें इधर हुईं और उधर मिटीं, लेकिन दुनिया के काम अगर खुदा के लिए हों, तो यह काम ऐसे हैं, जिनका नाम किसी के मिटाए नहीं मिटता। जो खुदा का हो गया, खुदा उसका हो गया। यह उसी वक्त हो सकता है, जब इंसान अपनी जिंदगी और मौत, सब कुछ खुदा के हवाले कर दे। वैसे भी, न सिर्फ इस्लाम, बल्कि दुनिया के हर मजहब का बड़ा उसूल कुरबानी है और फितरत का भी बड़ा उसूल यही है। खेत में गेहूं का एक दाना अपने आपको मिटा देता है, तो खुदा उस दाने में से सैकड़ों बालियां पैदा कर देता है।
हजरत इमाम हुसैन ने भी अपनी पूरी जिंदगी खुदा के हुक्म को पूरा करने में गुजारी, वह खुदा के हो गए थे और खुदा उनका हो गया और आखिरी वक्त में भी इमाम हुसैन ने अपनी, अपने परिजनों और साथियों की खुदा की राह में कुरबानी देकर यह बता दिया कि हक पर जान देना जिंदा जावेद हो जाना है। जिस समय करबला के मैदान में यजीद की असंख्य फौज हथियारों से लैस इस्लाम को मिटाने के लिए सामने खड़ी थी, इमाम हुसैन ने निडरता से सच्चाई की पताका फहराई, क्योंकि जो हक के लिए लड़ता है, उसे सिर्फ खुदा का खौफ होता है। उसे दुनिया की कोई ताकत क्या डरा सकती है और क्या लालच दे सकती है। प्यारे नबी (सल्ल.) के लख्ते जिगर इमाम हुसैन ने अपनी कुरबानी पेश करके हक की राह में इंसान को जान देने का तरीका सिखा दिया।
तारीख-ए-इस्लाम के वह सुनहरे पन्ने, जिनमें इमाम हुसैन के बहादुराना कारनामे दर्ज हैं, कभी भी दिमागों से नहीं उतर सकते। करबला की घटना के दौरान जितनी मुसीबतें, परेशानियां, जुल्म, ज्यादती इमाम हुसैन और उनके परिजनों ने बर्दाश्त की हैं, यहां तक कि करबला के तपते हुए रेगिस्तान में इमाम हुसैन के प्यासे बच्चों को एक-एक बूंद पानी से भी मेहरूम कर दिया गया और नन्हें-मुन्ने बच्चों के जिस्मों को तीरों से छलनी कर दिया गया। सिर्फ इसलिए कि इमाम हुसैन हक परस्त थे। वह उन उसूलों को जिंदा रखना चाहते थे, जिन्हें लेकर प्यारे नबी (सल्ल.) दुनिया में आए थे। यजीद ने इंसानियत के चेहरे को जिस तरह दागदार किया है, उसका वर्णन सुनकर ही इंसानों के सिर शर्म से झुक जाते हैं। ऐ-इमाम हुसैन, आप पर दुनिया के सभी इंसानों के लाखों-करोड़ों सलाम कि आपने करबला के तपते हुए मैदान में अपना पाक खून बहाकर इस्लाम के तनावर दरख्त को हमेशा-हमेशा के लिए हरा-भरा कर दिया। आपने दुनिया को यह दिखा दिया कि बहादुरी, ईमानदारी, सच्चाई और हक परस्ती की जिंदगी का एक पल बेईमानी की जिंदगी के लाखों सालों से बेहतर है।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]