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उत्तराखंड में बर्फ पड़ेगी या वोट?

चुनाव तिथि से पहाड़ की 28 सीटों पर अनिश्चय

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देहरादून। उत्तराखंड में मतदान की तिथि 30 जनवरी को लेकर भारी गतिरोध बना हुआ है। इसके पीछे जो तर्क हैं, उनका निर्वाचन आयोग के पास संतोषजनक जवाब नहीं है। निर्वाचन आयोग के घोषित तिथि में अब कोई संशोधन करने से स्पष्ट इंकार के बावजूद, मतदान तिथि को अव्यवहारिक, लोकतांत्रिक, अवैज्ञानिक कहकर इसे संशोधित करने की मांग यथावत है। उत्तराखंड की 43 विधानसभा सीटें उन पहाड़ी क्षेत्रों में हैं जहां जनवरी के महीने में न्यूनतम तापमान 7 डिग्री से कम होता है। इनमें से 28 सीटें ऐसी हैं, जहां कड़ाके की ठंड पड़ती है और न्यूनतम तापमान शून्य के आसपास होता है और दिन का तापमान 10 डिग्री से भी नीचे होता है। इन स्‍थानों पर पाला सड़कों पर जमकर कांच की तरह सख्त हो जाता है, ऐसे में इन सड़कों पर दोपहर से पहले वाहन चलाना मौत को दावत देना है। राज्य के 38 प्रतिशत मतदान केंद्र ऐसे स्थानों पर हैं, जहां हिमपात होता है या फिर वहां की आबोहवा बेहद प्रतिकूल होती है। क्या निर्वाचन आयोग ने इन स्थितियों को ध्यान में रखा है?
अभी तक जो राजनीतिक हालात हैं, उनके अनुसार लगभग तीन-चार जनवरी तक प्रत्याशियों के टिकट फाइनल हो पाएंगे, अर्थात प्रत्याशियों के पास मतदाताओं तक पहुंचने के लिए मात्र 25 दिन होंगे। कड़ाके की इस ठंड में चुनाव प्रचार के घंटों का आकलन करें तो जनवरी के महीने में एक दिन में महज आठ घंटे ही प्रचार किया जा सकता है, इसमें से भी जनसभाएं, नुक्कड़ सभाएं जैसे सामूहिक जनसंपर्क का समय घटकर छह घंटे ही रह जाता है। सामान्य दिन में चुनाव प्रचार का औसत समय 14 घंटे होता है, सुबह आठ बजे से लेकर रात दस बजे तक। यदि इस औसत समय के पैमाने पर राज्य में प्रत्याशियों को मिले वर्तमान समय को देखें तो इन प्रत्याशियों को वास्तविक रुप से चुनाव प्रचार के लिए मात्र 14 दिन ही मिलेंगे। उत्तराखंड की विधानसभा सीटों का औसत क्षेत्रफल 400 से 500 वर्ग किलोमीटर है। इस प्रकार हर प्रत्याशी को अपने मतदाताओं तक पहुंचने के लिए हर दिन 28 वर्ग किलोमीटर से लेकर 35 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कवर करना होगा यानि चलना होगा। हर गांव तक पहुंचने के लिए उसे हर रोज न्यूनतम 12 से लेकर 16 किलोमीटर पैदल चलना होगा, पहाड़ में यह असंभव है और इसके लिए हर प्रत्याशी को हजार से ज्यादा कार्यकर्ता और साधन चाहिएं।
इसका सीधा अर्थ है कि पहाड़ के अधिकांश मतदाताओं तक प्रत्याशी या उसके कार्यकर्ता नहीं पहुंच पाएंगे। यह स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन नहीं होगा, क्योंकि इससे ज्यादा कार्यकर्ताओं का खर्च वहन करने वाले दल को बाकी दलों पर स्वाभाविक बढ़त मिल जाती है। इससे राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों और उनके मुद्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के मतदाता के बुनियादी अधिकार का हनन होता है। चुनाव सिर्फ राजनीतिक दलों से जुड़ी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह मतदाता के जानकारी प्राप्त करने के बुनियादी अधिकार से जुड़ा मसला है। चुनाव आयोग जब मतदाताओं से मतदान में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने और मतदान जरूर करने की अपील करता है और उसके लिए विभिन्न जागरूकता कार्यक्रम भी आयोजित करता है तो पहाड़ी क्षेत्रों में उसने मतदान और जनसंपर्क की व्यवहारिक कठिनाईयों को क्यों नज़र अंदाज किया?
उत्तराखंड में हर कोई जान रहा और समझ रहा है कि 30 जनवरी को चुनाव आयोग के चुनाव के ऐलान से खतरनाक पहाड़ी रास्तों पर सख्त बर्फ पर चुनाव प्रचार की हड़बड़ी पैदा कर, राजनीतिक कार्यकर्ताओं की ही नहीं, बल्कि मतदान कर्मियों की भी जान को नाहक खतरा पैदा हो गया है। चुनाव आयोग को इसके लिए अतिरिक्त खर्चीले प्रबंध करने होंगे, मतदान कर्मियों को डयूटी पर जाने के लिए बड़ी तादाद में बर्फ के चश्मे, जैकैटें स्नोकटर्स, चेन लगी बसें, जीपें समेत अनेक इंतजाम हैं, जो करने होंगे और इतने सामान का इंतजाम करना भी मुश्किल होगा। ऐसी ही कठिनाई मतदाताओं के सामने भी होगी जो बर्फबारी में मतदान करने के लिए नहीं निकल सकेंगे जिसका मतदान के प्रतिशत पर असर पड़ेगा और मतदान में राजनीतिक दलों की मनमानी एवं गड़बड़ी की आशंका को भी नहीं टाला जा सकेगा। सवाल ये है कि एक अव्यवहारिक पक्ष का चुनाव आयोग ने संज्ञान क्यों नहीं लिया और ऐसी स्थितियों को क्यों आमंत्रित किया जिन पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगे हों?
यदि मतदान की अवधि में हिमपात हुआ तो तब कोई भी इंतजाम, चुनाव संपंन करा सकता है? तब चुनाव आयोग को अनेक अनचाहे प्रश्नों का जवाब देना मुश्किल होगा जिसमें यह आरोप भी हो सकता है कि किसी राजनीतिक दल विशेष को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा चुनाव कार्यक्रम लागू किया गया है। उत्तराखंड जनमंच के प्रमुख महासचिव राजेन टोडरिया ने भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को यह पत्र लिखकर कहा है कि चुनाव सिर्फ मतदान संपंन कराने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह मतदाताओं के पास राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों की नीतियों और कार्यक्रमों को भली-भांति परखने और उन्हे स्वीकार करने या नामंजूर करने की लंबी और जटिल लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, चुनाव आयोग का काम सिर्फ मतदान या चुनाव प्रचार के कायदे-कानून लागू करने की मैकेनिकल कवायद करना नहीं है, आयोग का काम वोट देने के निर्णय तक पहुंचने में मतदाता की कठिनाईयों को सरल करना भी है।
राजेन टोडरिया ने आम तौर पर चुनाव आयोग, निर्वाचन को एक ब्यूरोक्रेटिक एक्सरसाइज मानकर इसे जैसे-तैसे कराता नज़र आता है, कम से कम उत्तराखंड के चुनाव कार्यक्रम को देखकर यही लगता है कि यह पूरा कार्यक्रम हड़बड़ी में जमीनी जानकारी और वैज्ञानिक दृष्टि के बिना ही तैयार कर दिया गया है। पत्र में लिखा गया है कि खेदजनक यह भी है कि ऐसा लोकतांत्रिक विचार विमर्श को ताक पर रखकर नौकरशाही अहंकार के प्रभाव में किया गया है। उन्होंने आग्रह के साथ आशा व्यक्त की है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त मतदान तिथियों के बारे में जिद और धारणाओं के आधार पर नहीं, बल्कि विज्ञान और लोकतांत्रिक विमर्श के आधार पर चुनाव तिथि में जरुरी संशोधन करेंगे।

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