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नई दिल्ली। न्यूक्लियर विद्युत पर सूचना उपलब्ध कराने के प्रयासों के क्रम में नरोरा परमाणु न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ने 9 जनवरी 2012 को इंडिया हैबिटेट सेंटर, नई दिल्ली में ‘विकिरण एवं कैंसर पर वैज्ञानिक संगोष्ठी’ नामक एक वैज्ञानिक कार्यशाला सह प्रेस सम्मेलन का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का उद्देश्य मुख्यत: टाटा मेमोरियल सेंटर एवं एनपीसीआईएल के पिछले कई वर्षों के दौरान किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों पर आधारित विकिरण एवं कैंसर संबंधी सूचना का प्रसार करना था। एसए भारद्वाज, निदेशक (तकनीकी) एनपीसीआईएल, डॉ केएम मोहनदास, निदेशक (सीसीई) टाटा मेमोरियल सेंटर, बीबी मित्तल, केंद्र निदेशक नपबिध एवं एन नगाइच अधिशासी निदेशक एनपीसीआईएल ने सम्मेलन का आयोजन किया। नपबिघ से अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी सम्मेलन में उपस्थित थे।
एनपीसीआईएल ने 1995 से 2010 की अवधि के लिए एक अध्ययन आयोजित किया, जिसमें 15 वर्ष के दौरान न्यूक्लियर बिजलीघरों पर कार्मिकों के स्वास्थ्य ब्यौरे शामिल थे। अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि न्यूक्लियर विद्युत केंद्रों में विकिरण के निकट सान्निध्य में कार्य करने वाले कार्मिकों में बीमारी, विशेष रूप से कैंसर के उभरने की दर आम जनता की अपेक्षा कम है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार आम जनता में कैंसर की औसत प्राकृतिक घटना दर 98.5 प्रति लाख है, जबकि एनपीसीआईएल कार्मिकों में यह दर 54.05 प्रति लाख है। इसी प्रकार से, यह भी पाया गया कि कैंसर के कारण मृत्यु के मामले में आम जनता में मृत्यु दर 68 प्रति लाख है, जबकि एनपीसीआईएल कार्मिकों में 29.05 प्रति लाख है।
विकिरण एवं कैंसर पर व्याख्यान देते हुए डॉ मोहनदास ने कैनेडा में यूरेनियम माइनिंग के 17700 कामगारों पर किए अध्ययनों के आधार पर रुचिकर तथ्यों को उजागर किया, जिनकी जांच पिछले कई दशकों से की गई, वे कनाडा में आम जनता की अपेक्षा अधिक स्वस्थ पाए गए। यह तथ्य आम जनता की सोच से पूर्ण रूप से विरूद्ध है और यह दर्शाता है कि न्यूक्लियर विद्युत एवं कैंसर के उभरने के बीच में कोई संबंध नहीं है। एसए भारद्वाज ने विकिरण से संबंधी विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करते हुए बताया कि विकिरण प्रकृति में हर जगह मौजूद है, जिन घरों में हम रहते हैं वहां भी, जो पानी हम पीते हैं, जो खाना हम खाते हैं, उसमें भी इत्यादि। उन्होंने कहा कि एक बात जो ध्यान देने योग्य है कि पोटेशियम-40, रेडियम-226 एवं रेडियम-228 मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से भी विद्यमान रहते हैं।
भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की भारतीय पर्यावरणीय विकिरण मॉनीटरन नेटवर्क (आईईआरएमओएन) प्रणाली से सर्वव्यापी प्राकृतिक पृष्ठभूमिक विकिरण की देशभर में और साथ ही न्यूक्लियर विद्युत संयंत्रों की स्थापना से पूर्व इनके आस-पास के क्षेत्रों की भी नियमित जांच की जाती है, इनके प्रचालन के दौरान यह जांच प्रत्येक न्यूक्लियर विद्युत संयंत्र स्थल पर एक स्वतंत्र पर्यावरणीय सर्वेक्षण प्रयोगशाला (ईएसएल) में होती है। कई वर्षो के दौरान इन मापों ने यह साबित किया है कि न्यूक्लियर बिजलीघरों के आस-पास के क्षेत्रों में विकिरण की मात्रा इतनी कम है कि अत्यंत-संवेदनशील उपकरणों के प्रयोग के बावजूद भी मुश्किल से मापयोग्य है।
डॉ मोहनदास ने दैनिक जीवन में विकिरण के बारे में एक बहुत ही प्रासंगिक तथ्य का भी खुलासा किया कि नियमित चिकित्सा नैदानिक पद्धतियां जैसे- दंत एक्स-रे, वक्ष एक्स-रे, सीटी स्कैन इत्यादि न्यूक्लियर विद्युत संयंत्रों से प्राप्त होने वाले विकिरण की अपेक्षा कई गुणा अधिक विकिरण डोज प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ, वक्ष एक्स-रे से प्रत्येक बार रोगी, विकिरण से इस मात्रा तक उद्भासित होता है जो न्यूक्लियर विद्युत संयंत्रों से लगभग 20 वर्ष में मिलने वाले विकिरण से कहीं अधिक है।
टाटा मेमोरियल सेंटर ने प्रमुख स्थानीय चिकित्सा महाविद्यालयों के सहयोग से भारत में प्रत्येक न्यूक्लियर विद्युत संयंत्र पर एनपीसीआईएल कार्मिकों का जानपदिक-रोगविज्ञान सर्वेक्षण किया। इस अध्ययन से यह पता चला कि एनपीसीआईएल कार्मिकों में जन्मगत कमियां, असंगतियां केवल 0.45 प्रतिशत हैं, जबकि मुंबई में यह 1.4 प्रतिशत है, जैसा कि मुंबई में एक बड़े प्रसूति अस्पताल में अनंतिम अध्ययन से पता चला। समापन सत्र के दौरान यह माना गया कि आम जनता को शिक्षित कर विकिरण एवं न्यूक्लियर विद्युत केंद्रों से संबंधित भ्रांतियों को दूर किया जा सकता है। यह कार्यशाला वास्तव में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एनपीसीआईएल का एक अच्छा कदम है।