स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम
नई दिल्ली। बारहवें दिल्ली सतत विकास शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फिनलैंड की राष्ट्रपति तारजा हेलोनेन को 2012 का सतत विकास नेतृत्व पुरस्कार प्रदान किया। इस अवसर प्रधानंमत्री ने कहा कि इस वर्ष 1992 के महत्वपूर्ण रिओ पृथ्वी शिखर सम्मेलन की 20वीं वर्षगांठ है, इस सम्मेलन से सतत विकास की अवधारणा की शुरूआत हुई थी और मानव विकास के मानदंड के रूप में सतत विकास की सोच का महत्व बढ़ा। उन्होंने कहा कि 1992 की पर्यावरण और विकास संबंधी रिओ घोषणा में कहा गया था कि वर्तमान और भावी पीढि़यों की आवश्यकताओं की उचित रूप से पूर्ति के लिए विकास के अधिकार को लागू किया जाना चाहिए, इसमें यह भी कहा गया था कि सतत विकास के लिए ग़रीबी उन्मूलन नितांत आवश्यक है।
प्रधानमंत्री ने कहा कि सतत विकास की धारणा, विकास के एक आदर्श के रूप में शुरू हुई थी, पर्यावरण के संरक्षण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अब सतत विकास हमारी नीति का और विशेष रूप से विकासशील देशों में नीतियों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। हमारे सामने वायु प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, बढ़ता कूड़ा-कचरा और नदियों के प्रदूषण की समस्याएं हैं। यह बात भी अब अच्छी तरह महसूस की जा रही है कि सतत विकास को देश अकेले-अकेले प्राप्त नहीं कर सकते हैं। गर्म गैसों के कारण पैदा हुए जलवायु परिवर्तन के खतरे ने पूरे विश्व को एक ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जहां किसी भी एक देश की गतिविधियां पूरी पृथ्वी को प्रभावित कर सकती हैं। इस स्थिति में सतत विकास के लिए औद्योगिक और विकासशील, सभी देशों के सहयोग की आवश्यकता है। यह सहयोग विकास के अधिकार पर आधारित होना चाहिए और समस्या के निदान में विभिन्न देशों की समुचित जिम्मेदारी होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि समुचित जिम्मेदारी की बात इस तथ्य से और भी जरूरी हो जाती है कि विकासशील देशों के मुकाबले औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति गरम गैसों का उत्सर्जन 10 से 12 गुना है, हम जानते हैं कि विश्व में गैसों का कुल विसर्जन कम किया जाना चाहिए, लेकिन जहां तक अलग-अलग देशों की बात है, उनके उत्सर्जन के मामले में इसका क्या मतलब है। हमें इस समस्या को हल करने का उपाय ढूंढना होगा, ताकि विकासशील देश विकास के अपने अधिकार से वंचित न हों, भारत भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाले देशों में से एक है और उसकी इस बात में दिलचस्पी है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों के लिए एक उपयोगी, न्यायपूर्ण और नियमों पर आधारित नीति बने और इसमें विभिन्न देश सहयोग करें। जलवायु परिवर्तन पर हुए संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क सम्मेलन के सिद्धांत इसी आवश्यकता के लिए व्यावहारिक व्यवस्था का आधार बन सकते हैं। इस संदर्भ में यह समझना बहुत जरूरी है कि इस समस्या के निदान के लिए सामूहिक वैश्विक इच्छा शक्ति उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए, इसलिए जलवायु परिवर्तन के प्रबंधन के लिए सामूहिक और सहयोगपूर्ण कार्यवाही संबंधी वैश्विक वार्तालाप को नये उत्साह के साथ आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
मनमोहन सिंह ने कहा कि इस दिशा में सहयोगपूर्ण कार्यवाही के सभी चारों पहलुओं में प्रगति करनी होगी, जिनके बारे में बाली में सहमति हुई थी। ये हैं-राहत, अनुकूलन, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और विकास तथा आर्थिक संसाधनों और निवेश की व्यवस्था। जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इन सभी क्षेत्रों में कार्यवाही होनी चाहिए। इस दृष्टि से डर्बन के मंच को बाली कार्य योजना के आधार पर आगे बढ़ना होगा, भारत जारी वार्ताओं में रचनात्मक भूमिका निभाएगा और निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समझौते के अंतर्गत जो भी जिम्मेदारी दी जाएगी, उसे भारत निश्चित रूप से निभाएगा। उन्होंने कहा कि जहां तक हमारी बात है, हम राहत और अनुकूलन के लिए अपनी राष्ट्रीय नीति पर आगे बढ़ रहे हैं, जलवायु परिवर्तन पर हमारी राष्ट्रीय कार्य योजना संतोषजनक ढंग से प्रगति कर रही है और आठवां राष्ट्रीय मिशन अपने-अपने कार्यों में आगे बढ़ रहे हैं, हम इस वर्ष अप्रैल में शुरू होने वाली 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए नीति बनाएंगे, जो समग्र सतत विकास के साथ-साथ जलवायु के लिए भी लाभकारी होगी।
उन्होंने कहा कि सतत विकास के लिए खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा और सीमित प्राकृतिक सांधनों का सतत उपयोग हमारी नीति के महत्वपूर्ण अंग होंगे, हम 2005 को संदर्भ वर्ष मानते हुए वर्ष 2020 तक गरम गैसों के उत्सर्जन को 20-25 प्रतिशत कम करने के प्रयास करेंगे, कई अन्य देशों की तरह भारत में भी बड़े पैमाने पर जैव विविधता है, हमारा परंपरागत ज्ञान आयुर्वेद की हमारी प्रणालियों के रूप में प्राचीन ग्रंथों में संकलित है और मौखिक परंपराओं में भी उपलब्ध है, विश्व में जैव विविधता की दृष्टि से जो चार बड़े भाग हैं, उनमें प्रजाति-समृद्ध देशों में भारत का स्थान 10वां है, सन् 1992 में जैव-विज्ञान विविधता समझौता हुआ था, इसकी व्यवस्थाओं को लागू करने वाले कुछ देशों में भारत भी शामिल है, जिसने 2002 में व्यापक जैव-विज्ञान विविधता कानून बनाया, लेकिन भारत को और विश्व को, समझौते के तीन उद्देश्यों को पूरा करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त करने का दावा करने के लिए अभी बहुत कुछ करना होगा। ये तीन उद्देश्य हैं-जैवविज्ञान विविधता का संरक्षण, इसके उपयोग के साथ-साथ इसकी निरंतरता को कायम रखना तथा लाभों का निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण।
उन्होंने कहा कि हमने हाल में राष्ट्रीय हरित ट्राइब्यूनल कानून, 2010 के अंतर्गत राष्ट्रीय हरित ट्राइब्यूनल का गठन किया है। इस ट्राइब्यूनल में पर्यावरण सुरक्षा और वनों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों को प्रभावी ढंग से और तेजी से निपटाया जाएगा। इसमें पर्यावरण संबंधी कोई भी कानूनी अधिकार लागू करना शामिल होगा, जिनमें राहत और नुकसान के लिए मुआवजा देने की बात भी शामिल है, हमारे सामने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण एक और ऐसी मिसाल है, जिसमें हम इस पवित्र नदी को बचाने के लिए संस्थागत रूप से नवीकरण की कोशिश कर रहे हैं। इस प्राधिकरण का उद्देश्य गंगा नदी के संरक्षण को सुनिश्चित करना और व्यापक नदी नीति के जरिए पर्यावरण की स्थितियों को कायम रखना है।
प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें उम्मीद है कि सभी संबद्ध पक्षों के सहयोग और इस नई नीति के उपयोग के अच्छे ठोस परिणाम निकलेंगे। सन् 1992 की रिओ घोषणा में दूरगामी प्रभाव के 27 सिद्धांत तय किये गए, जिनका उद्देश्य वैश्विक पर्यावरण और विकास प्रणाली की समेकता को सुरक्षित रखना है। ये सिद्धांत समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं। मैं यहां मौजूद सभी लोगों से आग्रह करता हूं कि वे यह देखें कि नई और न्यायपूर्ण वैश्विक भागीदारी को कायम रखने में उन्हें उचित महत्व दिया गया है कि नहीं, जो कि रिओ घोषणा का उद्देश्य था। इन लक्ष्यों और उद्देश्यों से हम जितना पीछे रह गए हैं, उसे बेहतर करने के लिए हमें आने वाले वर्षों में और जोरदार कार्य करना होगा। यह एक चुनौती है और एक बड़ा अवसर भी है।