मनीराम शर्मा
नई दिल्ली। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के लिए पिछले साल अपर सत्र न्यायाधीश के पद हेतु लगभग संपूर्ण भारत के 3000 वकीलों ने परीक्षा दी थी, जिसके परिणाम बड़े ही निराशाजनक रहे। प्रारंभिक परीक्षा में मात्र 226 परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण हो सके। मुख्य परीक्षा में 22 परीक्षार्थियों का अलग-अलग पेपरों में शून्य अंक था और उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक (आरक्षित श्रेणी 33% एवं सामान्य श्रेणी 40%) अंक एक भी परीक्षार्थी प्राप्त नहीं कर सका। मात्र 6 परीक्षार्थी ही 35% अंक प्राप्त कर पाए।
यही नहीं, पिछले साल राजस्थान उच्च न्यायालय ने विधिक शोध सहायक के लिए परीक्षा ली थी, जिसमें भी एक भी परीक्षार्थी उत्तीर्ण नहीं हुआ और अब यह परीक्षा पुनः अन्य आधार पर करवाई गयी है। हाल ही में राजस्थान राज्य के दौरे पर आए न्यायाधिपति अल्तमस कबीर ने भी न्यायाधीश पद के लिए योग्य उम्मीदवारों के अभाव की पुष्टि की है। अन्य भारतीय राज्यों की स्थिति भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं लगती है। इस विवेचन का यह अर्थ तो नहीं लगाया जा सकता कि देश में प्रतिभा का अभाव है, किंतु निराशाजनक विषय यह है कि प्रतिभा के लिए भारत में विधि-व्यवसाय आकर्षण का केंद्र नहीं हैं, अर्थात न्यायालयों में सफल होने के लिए प्रतिभा या विधि का ज्ञान नहीं, बल्कि न्यायालयों की परंपरा के अनुरूप अन्य प्रबंध-कौशल, व्यवहार कुशलता आदि की आवश्यकता है।
प्रतिभाशाली और गरिमामयी लोग विधि-व्यवसाय के वातावरण को अपने अनुकूल एवं सम्माननीय नहीं पाते हैं, यद्यपि देश में सरकारी क्षेत्र में सर्वाधिक ऊंचा वेतनमान न्यायिक अधिकारियों को ही दिया गया है, फिर भी इस सेवा में देश की श्रेष्ठ प्रतिभा की कोई ज्यादा रूचि दिखाई नहीं दे रही है। नागरिकों की जेब से सर्वोच्च वेतनमान ऐसे लोक सेवकों को देना पड़ रहा है, जो प्रतिभा की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट नहीं हैं और इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि कालांतर में इस दोयम श्रेणी की प्रतिभा के भरोसे ही देश के संवैधानिक न्यायालय सौंप देने पड़ते हैं।