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हे धर्मपिता! धर्मांतरित इसाई आपसे कुछ कह रहे हैं!

आरएल फ्रांसिस

नई दिल्ली। हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें! जैसा कि आप जानते हैं कि भारत में ईसाइयों की स्थिति को लेकर लगातार चर्चा का दौर जारी है। धर्मांतरित ईसाइयों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और दूसरा चर्च के कार्य (धर्मप्रचार) पर उठते सवाल और बढ़ता तनाव, चर्चा के दो प्रमुख बिंदु हैं। भारत की जनसंख्या के मुताबिक लगभग 30 मिलियन इसाई हैं जिनमें से 70 प्रतिशत दलित मूल के हैं, जबकि गैर-सरकारी आकड़ों के मुताबिक ईसाइयों की संख्या 60-70 मिलियन से कम नहीं है। आपके नेतृत्व में चलने वाले कैथोलिक चर्च के अंदर यह दलित इसाई लगातार शोषित और उत्पीड़ित किये जा रहे हैं। सैकड़ों वर्ष पूर्व चर्च के लिए किए गए बलिदानों के बदले में उनका उपहास उड़ाया जा रहा है। ईसाइयत के अंदर ही उन्हें दोयम दर्जा दिया जा रहा है। ईसाइयत के मुताबिक ईश्वर ने, मनुष्य का अपनी ही छवि में सृजन किया है, इसी आधार पर आस्था रखने वाला इसाई समाज ‘मानवीय मूल्यों और समानता का प्रचार करता है, पर भारत में उन्हें जन्म एवं जाति के नाम पर अलग किया जा रहा है।

चर्च की विचारधारा

सैद्धांतिक तौर पर मसीहियत में जातिवाद, गैर-बराबरी, नस्लवाद एवं रंगभेद इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके आलवा जहां क्रिश्चियनटी को ‘कैथोलिक चर्च’ की संज्ञा से जोड़ दिया गया है तो उसमें तो जातिवाद की धारणा ही शून्य हो जाती है, क्योंकि कैथोलिक शब्द का अर्थ है यूनीवर्सल अर्थात विश्वव्यापी मसीही परिवार की सदस्यता रखने वाले मसीहीजन या मसीही समुदाय, जिसका प्रमुख एक ही व्यक्ति है, जिसे विकर ऑफ क्राइस्ट (ख्रीस्त का प्रतिनिधि) कहा जाता है, जो अपने विश्वव्यापी अनुयायियों के मार्ग-दर्शन के लिए बिशपों की नियुक्ति करता है। इस प्रकार होली फादर या पोप यानी कि आप, पृथ्वी पर स्वर्ग का वातावरण बनाये रखने का दायित्व वहन कर रहे है। ऐसे मसीही समाज में जहां ईश्वरीय पवित्रता विराजती हो, आप ही बताएं कि वहां जातिवाद, गैर-बराबरी या नस्लवाद जैसे घिनौनी विचारधारा का स्थान ही कहां रह जाता है?

भारतीय चर्च में वंचित वर्ग

भारत में जातिवाद, गैर बराबरी, शोषण एवं उत्पीड़न से त्रस्त वंचित, विगत तीन-चार शताब्दियों से चर्च के समानता और भेदभाव रहित व्यवस्था उपलब्‍ध कराने और उनके सामाजिक विकास का भरोसा दिलाए जाने के बाद, ईसाइयत की शरण में आते हैं। समानता के नाम पर आपके नेतृत्व वाले कैथोलिक चर्च अधिकारियों ने उनका अपने स्वार्थो के लिए जमकर दोहन किया है और जिस जातिवादी एवं गैर बराबरी वाली व्यवस्‍था से छुटकारे की आशा लेकर वंचित, चर्च की शरण में आये थे, वह उन्हें नहीं मिल पाई, उल्टा वह उससे भी भयानक गैर-बराबरी के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। भारतीय चर्च में 70 प्रतिशत वंचित धर्मांतरित इसाई हैं, इनमें से 30 प्रतिशत से भी ज्यादा पिछले 400 साल से और कुछ 200 साल से आपके, पोप के नेतृत्व में कार्य करने वाले चर्च के सदस्य हैं।

इसाईयत की उल्टी राह पर चर्च

आपके नेतृत्व वाला कैथोलिक चर्च भारत में अपने बहुसंख्यक धर्मांतरित सदस्यों को चर्च ढांचे के अंदर समानता और न्याय मुहैया करवाने में पूरी तरह असफल रहा है। चर्च के संसाधनों पर उच्च-वर्गीय ईसाइयों ने कब्जा जमा लिया है, भारत की स्वतंत्रता के बाद ‘वेटिकन’ के नेतृत्व में कैथोलिक चर्च ने बड़ी तरक्की की है, उसके संसाधनों यानी चर्चो, स्कूलों, कॉलेजों, सामाजिक संस्थानों, नई बनने वाली डायसिसों, बिशपों, पादरियों, ननों और उसके अनुयायियों में भारी इजाफा हुआ है, पर इस सबके बावजूद इन धर्मांतरित इसाईयों की स्थिति वैसी ही बनी हुई है, जैसी धर्मांतरण के समय थी।
कैथोलिक चर्च की रीढ़ कहे जाने वाले इन धर्मांतरित इसाईयों की भागीदारी चर्च ढांचे में शून्य है। इन वर्गो के कार्डीनल, बिशप, पादरी ढूढंने से भी नहीं मिलेंगे, जो इक्का-दुक्का लोग इस व्यवस्था में कड़े संघर्ष के बाद शामिल हो पाये हैं वह भी हाशिए पर खड़े हैं और अपने ही उच्च-जातिय धर्म-भाईयों (बिशपो-पादरियो) के गैर-बराबरी वाले व्यवहार का शिकार हो रहे हैं।
चर्च, भारतीय संविधान में मिली विशेष सुविधाओं के तहत देश में हजारों शैक्षिक, स्वास्थ्य एवं गैर-सरकारी सामाजिक संगठन चला रहे हैं। वेटिकन के नेतृत्व में चलने वाला चर्च अपने ढाचें में यहां भी धर्मांतरित इसाईयों के साथ न्याय नहीं कर पा रहा है। पोप जॉन पाल द्वितीय ने इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए चर्च में गैर-बराबरी एवं भेदभावपूर्ण रैवये की कड़ी निंदा करते हुए वर्ष 2003 में कैथोलिक बिशपों से कहा था कि वह वेटिकन के नियुक्त गडरिये हैं, जिन्हें ख्रीस्त की भेड़ों और मेमनों की परवरिश के लिए रखा गया है। वह चर्च के अंदर हर प्रकार के भेदभावपूर्ण रैवये को समाप्त करने का कार्य करें।

आस्था से विश्वासघात

धर्मांतरित इसाईयों के प्रति अपनाई जा रही नीतियों के विरुद्ध अब इस वर्ग में आक्रोश पनपने लगा है। वह चर्च ढाचें में अपने अधिकारों की मांग करने लगे हैं। दुखःद यह है कि चर्च नेतृत्व ने इस आक्रोश एवं धर्मांतरित इसाईयों के अधिकारों के लिए चले संर्घष को अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए गलत दिशा देते हुए ‘भारत सरकार’ की तरफ मोड़ दिया है। अपने ढाचें में अधिकार देने की अपेक्षा चर्च नेतृत्व ‘ईसा मसीह’ के सिद्धांतों को तिलांजलि देते हुए इन करोड़ों वंचित इसाईयों को पुनः उसी जातिवादी व्यवस्था में धकेल रहा है, जिससे मुक्ति के लिए उन्होंने इसाईयत यानि चर्च को चुना था। जब भारत का संविधान बना तो संविधान निर्माताओं ने उन दलितों को आरक्षण उपलब्ध करवाया जो हिंदू व्यवस्था में पीड़ित एवं शोषित थे। भारत की बहुसंख्यक हिंदू जनता ने संविधान में मिले समानता के अवसर को अपने दलित भाईयों के पक्ष में कुर्बान कर दिया, उस भेदभाव एवं मुआवजे के रुप में, जो उनके पूवर्जों ने दलितों के साथ किया था।
हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें ! क्या आपके प्रतिनिधियों को यह नैतिक अधिकार है कि वह चर्च पर गहरी आस्था रखने वाले इन निरीह लोगों की आस्था से विश्वासघात करें? जिन्होंने अपना सर्वस्व चर्च को दे दिया है। इनकी कहानी भी बिलकुल उस गरीब विधवा जैसी ही है, जिसके बारे में ईसा मसीह ने अपने शिष्यों से कहा था कि मंदिर की तिजोरी में सब अपनी आमदनी से डाल रहे हैं और इस गरीब विधवा ने अपनी घटी में से अपना सर्वस्व डाल दिया है। (मार्क 12:41-44)

चर्च मुआवजा दें

चर्च का एक वर्ग निर्लज्जता पूर्ण तरीके से अपनी नाकामियों का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ रहा है, जब भारत का संविधान बना यह करोड़ों वंचित, चर्च के बाड़े में ही रहे। संविधान के तहत अल्पसंख्यकों को भी सरकार ने विशेष सहुलियतें दीं, विशेष अधिकार दिये गये, ऐसे कि जैसे अमेरिका या यूरोप में भी चर्च को नहीं मिलते। इन सुविधाओं और अधिकारों का पूरा लाभ उठाते हुए चर्च ने अपने साम्राज्यवाद का बड़ा विस्तार किया है और अपनी इस सफलता में वह धर्मांतरित इसाईयों को भूल गया है, अब वह इन करोड़ों लोगों की न्याय के पक्ष में उठाई जा रही आवाज़ को गलत दिशा देने में जुट गया है।
भारत की स्वतंत्रता के छह दशकों बाद उसे यह मांग करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि उसकी शरण में आये करोड़ों वंचितों को पुनः जातिवादी व्यवस्था के दायरे में लाया जाए, अगर यह धर्मांतरित इसाई, चर्च की शरण में न गये होते या चर्च नेतृत्व ने उन्हें झूठे सपने न दिखाए होते, तो आज वह भी अपने हिंदू दलित भाईयों की तरह विकास की मंजिलें तय कर पाते। भारत सरकार के बाद चर्च, देश में ऐसी संगठित इकाई है, जो बड़े पैमाने पर रोज़गार उपलब्‍ध करवाती है पर इसमें धर्मांतरित इसाईयों की भागीदारी कितनी है? ज्यादा से ज्यादा-वाहन चालक, रसोइया, र्क्लक, चपरासी, गेटकीपर और वह? वह भी उच्चजातिय बिशपों एवं पादरियों की दया पर, बंधुवा मजदूर जैसी। करोड़ों धर्मांतरित इसाईयों के साथ किये गये अन्याय एवं शोषण के बदले कैथोलिक चर्च उन्हें मुआवजा दे, जैसे वेटिकन ने कई देशों में चर्च पदाधिकारियों की चर्च अनुयायियों के साथ हुईं ज्यादतियों के बदले में दिया है।

नीतियों में बदलाव लाए चर्च

भारतीय चर्च ने शुरु से ही सुरक्षित व्यापार को प्राथमिकता दी है। हजारों स्कूलों, कॉलेजों एवं अन्य संस्थानों का निर्माण किया है। इसका लाभ चर्च नेतृत्व को तो मिला है पर धर्मांतरित इसाई इसके लाभ से वंचित रहे हैं, यहां तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में जहां चर्च का एकाधिकार है, वहां भी वह धर्मांतरित इसाईयों को हिस्सेदारी देने में असफल रहा है। अब सहूलियतें देने से काम नहीं चलेगा, वंचितों को शिरकत भी देनी होगी। चिंता यह है कि भारत की स्वतंत्रता के छह दशकों बाद भी हम अपने ढांचे (इसाईयत) में सामाजिक परिवर्तन नहीं कर पाए, जबकि सनातनी हिंदू समाज में बड़े बदलाव हो रहे हैं। हिंदू संगठनों के प्रयासों से दलितों के लिए मंदिरों के दरवाज़े खोले जा रहे हैं। जातिवाद को समाप्त करने के लिए कई कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। हिंदू दलित राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रुप में लगातार आगे बढ़ रहे हैं, जबकि धर्मांतरित इसाईयों के साथ ऐसा नहीं है।
आपके नेतृत्व वाला चर्च उन्हें पीछे की तरफ धकेल रहा है, वे आज भी चर्च में अपने अस्‍तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं। चर्च इन धर्मांतरित इसाईयों को हिंदू जातियों में शामिल करवाकर 300 मिलियन हिंदू दलितों के बीच अपनी आसान घुसपैठ की राह तलाश रहा है, नहीं तो क्या कारण है कि चर्च को इनकी हर समस्या का समाधान हिंदू दलितों की सूची में ही दिखाई देता है। चर्च नेतृत्व का यह दायित्व है कि वह अपने ढांचे में विकास की प्रक्रिया को न केवल समान बनाए बल्कि वह ऐसी होती दिखाई भी दे। महज संरक्षण, कल्याण के लिए बनाई गई नीतियों या संस्थाओं का होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसका क्रियान्वयन कौन कर रहा है? जब तक धर्मांतरित ईसाइयों को जनसंख्या के अनुपात में चर्च संसाधनों पर ‘हक’ और ’हिस्सेदारी’ नहीं मिलेगी तब तक उन्हे जाति व्यवस्था वाले समाज से वंचित और तिरस्कार करने की समस्याएं रहेंगी।
हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवें ! मैने धर्मांतरित इसाईयों की कुछ समास्याओं को उठाने का प्रयास किया है। भारत में कैथोलिक चर्च और उसके अनुयायियों के बीच का रिश्ता लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित नहीं है। चर्च के अंदर उच्च-जातीय लोगों को धर्मांतरित ईसाइयों की अपेक्षा आगे बढ़ने के अधिक अवसर रहते हैं। चर्च में धर्मांतरित इसाईयों की स्थिति को देखते हुए इसमें कुछ मूलभूत बदलाव लाए जाने की जरुरत है। मौजूदा समय में बिशप ही चर्च की ‘कीपावर’ है और उसकी नियुक्ति वेटिकन से होती है। वह कलीसिया की अपेक्षा वेटिकन के प्रति अपने उत्तरदायित्व को अधिक मानता है। अधिकतर कैथोलिक इसाईयों का मत है कि बिशप का चुनाव कलीसिया के प्रतिनिधियों से किया जाए, ताकि इस पद पर बैठे व्यक्ति को समुदाय के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया जा सके।

धर्म-प्रचार पर सवाल और तनाव

भारत में इसाई समुदाय की सुरक्षा को लेकर आपने हाल-ही में हिंदू समुदाय से अपील की थी कि वह इसाई विरोधी घृणित कुप्रचार के खिलाफ खड़े हों और धार्मिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करें। आपकी यह चिंता स्वाभाविक है, क्योंकि हाल के वर्षो में इसाईयों का दूसरे धर्मो के अनुयायियों के साथ तनाव बढ़ा है और कई स्थानों पर इसने हिंसक रुप अख्‍तियार कर लिया है। बाईस जनवरी 1999 को ग्राहम स्टेंट और उसके दो छोटे बेटों की हत्या का मामला हो या कंधमाल या किसी अन्य स्थान पर हुई हिंसा। भारतीय समाज ने सदैव जाति और धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा का विरोध किया है। भारत सरकार ने हर मामले में तत्परता से कार्यवाही की है और दोषी कोई भी हो उसे दंडित किया गया है। ऐसी हिंसा की जांच के लिए कई आयोगों का भी गठन भी किया गया, जिनकी रिपोर्ट भी चौकानी वाली हैं।
भारत, पूरे विश्व में ‘विधिवता में एकता, सभी धर्मो के प्रति आदर और अलग अलग धर्मो के लोगों के बीच परस्पर सहनशीलता, सहअस्तिव की भावना की दृष्टि से गौरवशाली एवं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।’ भारत के बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की विचारधारा में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं है, यहां प्रत्येक नागरिक एक दूसरे की धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सम्मान करता है। इसाई समुदाय के प्रति घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की जांच के लिए सरकार के विभिन्न आयोगों ने इसके पीछे चर्च के साम्राज्यवादी रैवये की तरफ भी इशारा किया है, ऐसा ही मत देश का सुप्रीम कोर्ट भी व्यक्त कर चुका है। इसाई मत के प्रचार के लिए अपनाए जा रहे तरीकों और दूसरों की आस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप, तनाव बढ़ाने के बड़े कारण हैं जिन्हें हम खुद रोक कर सौहार्द का वातावरण तैयार कर सकते हैं।

भारत में चर्च को पूरी स्वतंत्रता

भारत के संविधान के तहत यहां चर्च को विशेष अधिकार प्राप्त हैं, ऐसे अधिकार जो यूरोपीय चर्च को भी प्राप्त नहीं हैं। सरकार हिंदू, मुस्लिम, सिख और अन्य धर्मो के मामले में कहीं न कहीं अपना हस्तक्षेप करती है। उदाहरण के लिए मुस्लिम समाज की संपत्तियों की देखभाल वक्फ बोर्ड के माध्यम से होती है, जिसके मुतवल्ली की नियुक्ति सरकार करती है, सिख समुदाय में धार्मिक प्रचार-प्रसार एवं धार्मिक संस्थानों के संचालन का कार्य करने वाली समिति का चुनाव भी भारतीय कानूनो के तहत ही होता है। हिंदू समुदाय के बड़े मंदिरों की आय पर सरकार अपना नियत्रंण रखती है और उसे अपनी इच्छा से समाज के वंचित वर्गो के उत्थान पर खर्च करती है। भारत में इसाई समाज ही ऐसा समाज है, जिसके धार्मिक मामलों में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है। चर्च की प्रमुख इकाई बिशप की नियुक्ति आप यानि वेटिकन कर रहा है। चर्चो की अपार धन-संपदा पर पादरियों, बिशपों और वेटिकन का एकाधिकार है, हालांकि यूरोप के कई देशों में वहां की सरकारें चर्च संपत्ति पर अपना नियंत्रण रखती हैं। भारत ही एक ऐसा देश है, जहां चर्च को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है।

धर्म-प्रचार की नीति की समीक्षा जरुरी

वेटिकन की बहुधर्म संवाद परिषद (पोंटीफिसिकल काउंसिल फॉर इंटररिलीजियस डायलाग) ने हाल-ही में भारत के बारे में धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रश्न खड़ा किया है। वेटिकन का इशारा कुछ राज्य सरकारों के धर्मांतरण विरोधी बनाए गये कानूनों की तरफ है। इस कारण धर्म प्रचारकों को काम करने में दिक्कत आ रही है। वेटिकन को समझना चाहिए कि भारत का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आज़ादी देता है, उसमें निहित धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है। समाज सेवा की आड़ में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और वंचित वर्गो के लोगों के व्यवस्थित तरीकों और व्यापक स्तर पर धर्म-परिवर्तन को धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में उचित नहीं कहा जा सकता। धर्मप्रचार और धर्मांतरण के बीच एक लक्ष्मण रेखा भी है। यदि धर्मांतरण कराने का प्रमुख उदे्श्य लेकर घूमने वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दी जाए तो राज्य का यह कतर्व्य बन जाता है कि वह इसमें हस्तक्षेप करे, क्योंकि जहां भी अधिक संख्या में धर्मांतरण हुए हैं, वहां सामाजिक तनाव में बढ़ोत्तरी हुई है।
हे धर्मपिता पोप बेनडिक्ट सोहलवे ! सैद्धांतिक रूप से इसाईयत बराबरी की पक्षधर है और सबको बराबर के अवसर देने की वकालत करती है, लेकिन कैथोलिक चर्च के अंदर जातीय भेदभाव इस सिद्धांत को व्यवहार में लागू नहीं होने देता। सिर्फ यह बातें हिंदू धर्म से वंचितों के धर्मांतरण के समय ही कही जाती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि धर्मांतरित हो जाने के बाद इन लोगों की स्थिति पहले से भी ज्यादा खराब हो जाती है, जिसका अक्सर जिक्र होता है। भारत की स्वतंत्रता के पूर्व और बाद में चर्च ने अपने साम्राज्य का कितना विस्तार किया है और उसके इन अनुयायियों का जीवन स्तर कितना विकसित हुआ है इस पर एक श्वेत-पत्र लाया जाना चाहिए ताकि सत्य लोगों के समक्ष आ सके। पिछले साल 27 अक्तूबर को इटली के असीसी में वेटिकन ने विभिन्न धर्मो के प्रमुखों की बुलाई बैठक में भारतीय प्रतिनिधियों ने भी वेटिकन का ध्यान धर्मांतरण की तरफ आकर्षित किया है। वेटिकन की अपील में सौहार्द का वातावरण तलाशने में बड़ी भूमिका चर्च की ही है। भारतीय चर्च समाज, सेवा के नाम पर और अपने इन अनुयायियों के विकास के नाम पर प्रति वर्ष हजारों करोड़ का विदेशों से अनुदान प्राप्त करता है, पर इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति आज भी ऐसी ही क्यों बनी है, यह सोचने की बात है।
दलित इसाईयों के संगठन ‘पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट’ का मानना है कि चर्च पदाधिकारी अपने किसी भी लाभ और सुविधाजनक सर्वश्रेष्ठता को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहते, इस कारण धर्मांतरित इसाईयों की स्थिति वैसी ही बनी हुई है। जिस तरह की व्यवस्था चर्च में चल रही है, उससे भविष्य में भी धर्मांतरित इसाईयों की बेहतरी की कोई किरण दिखाई नहीं दे रही क्योंकि पारंपरिक रुटीन गैर बराबरी वाले ढांचे की है, इसलिए यह सोचना कि इस ढांचे में चीजें बदलेंगी, वैसी ही उम्मीद है, जैसे शुक्ल पक्ष की परेवा में पूरे चांद का सपना देखना, इसलिए भारत के धर्मांतरित इसाईयों का आपसे आग्रह है कि चर्च ढांचे में बदलाव के लिए ठोस कदम उठाएं जाए।

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