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नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने बड़े पैमाने पर उत्तराखंड में 10 से 30 मेगावाट क्षमता की सूक्ष्म परियोजनाएं कायम करने को सैद्धांतिक स्वीकृति दे दी है। इस हिमालयी राज्य में अब ऐसी लगभग 500 परियोजनाओं की स्थापना संभव है। उल्लेखनीय है कि सूक्ष्म पॉवर परियोजनाओं का पर्यावरण पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ता। राज्य में लगभग 4000 मेगावाट की विद्युत दोहन क्षमता विद्यमान है। शुक्रवार को पूर्वान्ह यहां श्रम शक्ति भवन में हुई उच्च स्तरीय भेंट-वार्ता के दौरान खुद ही केंद्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी को 4000 मेगावाट क्षमता की 400-500 माइक्रो बिजली परियोजनाओं का रोड मैप बनाने की सलाह दी।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने कहा कि ऐसी छोटी ऊर्जा परियोजनाओं से पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता, यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परखा जा चुका है। दूसरी और जनरल खंडूड़ी ने कहा कि बड़ी परियोजनाओं में भी नदियों का पानी विद्युत उत्पादन प्रक्रिया के दौरान केवल चार पांच मिनट तक ही टर्बाइन टनल (जिस सुरंग में बिजली पैदा करने वाली मशीन लगी होती है) में रहता है। पानी के टनल में घुसने और निकलने के स्त्रोतों से पानी का नमूना लेकर भी देखा जा चुका है कि विद्युत उत्पादन में पानी खराब नहीं होता, केंद्र को चाहिए कि वह जल विद्युत की उत्पादन प्रक्रिया के बारे में जनता में व्याप्त भ्रमों के निवारण के लिए देश भर में प्रभावी अभियान चलाए।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने इस उच्च स्तरीय भेंट-वार्ता के दौरान जनरल खंडूड़ी से कहा कि उत्तराखंड को ऊर्जा बहुल राज्य बनाने के लिए एक नयी ऊर्जा क्रांति की तैयारी करें। खंडूड़ी ने लोहारी नागपाला योजना को उत्तराखंड से वापस लिए जाने की एवज में केंद्र द्वारा वचनबद्ध रूप से देय 2000 करोड़ रुपये का मुआवजा अब तक अदा न किये जाने का उल्लेख किया। ऊर्जा मंत्री ने इस बारे में शीघ्र कार्रवाई करने का यकीन दिलाया। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने यह भी यकीन दिलाया कि निर्वाचन प्रक्रिया पूरी होने के बाद वह उत्तराखंड का भ्रमण करेंगे और वहां की लंबित ऊर्जा परियोजनाओं के बारे में समुचित निर्णय लेंगे। शिंदे ने कहा कि अविभाजित उत्तर प्रदेश के साथ ऊर्जा क्षेत्र से संबंधित देनदारियों और परिसंपत्तियों से जुड़े लंबित मामलों के भी शीघ्र निस्तारण की दिशा में कदम उठाए जाएंगे।
इससे पहले जनरल खंडूड़ी ने केंद्रीय ऊर्जा मंत्री से अनुरोध किया कि इस मामले में उत्तर प्रदेश तथा टीएचडीसी को पत्र लिख कर उनका पक्ष मंगा लिया जाए। केंद्रीय गृह मंत्रालय से अनुरोध करके भारत सरकार तथा उत्तर प्रदेश के विधि विशेषज्ञों साथ ही प्रमुख अंशधारक ऊर्जा मंत्रालय से भी राय ले ली जाए। खंडूड़ी ने कहा कि भारतीय संविधान में ‘जल’ संसाधन राज्य का विषय है और इस मामले में केंद्र तभी बीच में आता है, जब मसला अंतर्राज्यीय नदियों का हो। सातवीं अनुसूची की द्वितीय अधिसूची के प्रस्तर 17, 56 तथा धारा 262 भी इस मामले में राज्यों के अधिकार एवं कर्तव्य निर्धारित करती है। नियमानुसार उत्तर प्रदेश पुनर्गठन एक्ट की धारा 47(3) के अंतर्गत 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड के गठन तक टिहरी जल विद्युत विकास निगम (टीएचडीसी) में उत्तर प्रदेश राज्य का संपूर्ण निवेश, अंशधारिता और प्राप्त लाभांश राजस्व उत्तराखंड राज्य को हस्तांतरित कर दिया जाना चाहिए, साथ ही इस बकाएदारी पर एकत्रित ब्याज धन, अंशधारिता तथा सकल लाभ भी उत्तराखंड को ही मिलने चाहिएं।
खंडूड़ी ने कहा कि उत्तर प्रदेश से विभाजन के बाद उत्तराखंड को बकायों, लाभांशों तथा परिसंपत्तियों का हक आज तक नहीं मिला। टीएचडीसी पर नियंत्रण हमारा नैतिक और कानूनी अधिकार है, परंतु वह भी नहीं दिया गया। उन्होंने यह भी कहा कि अब तक केंद्र सरकार ने इस मामले में यह कहते हुए कोई हस्तक्षेप नहीं किया है कि उत्तर प्रदेश पुनर्गठन एक्ट में इस आशय का कोई प्रावधान नहीं रखा गया है कि विवाद का निस्तारण करने में केंद्र की क्या भूमिका होगी। उन्होंने कहा कि चूंकि टिहरी बांध उत्तराखंड में अवस्थित है और इस परियोजना की आधार नदी भागीरथी भी उत्तराखंड से ही निकलती है। टिहरी बांध में जलमग्न संपूर्ण क्षेत्र और प्रभावित आबादी भी उत्तराखंड की ही है। टीएचडीसी का पंजीकृत मुख्यालय भी उत्तराखंड के ही क्षेत्र नई टिहरी में है, साथ ही उत्तर प्रदेश पुनर्गठन एक्ट के भाग-4 में परिसंपत्तियों तथा दायित्वों के बंटवारे को लेकर स्पष्ट व्यवस्था है कि प्रस्तावित नवगठित राज्य की सीमा में विभाजन की तिथि तक निजी, व्यवसायिक और औद्योगिक क्षेत्र में हुए समस्त निवेश विभाजन के बाद बने राज्य के अंतर्गत होंगे। इसी कानून में धारा 61 के भाग-4 में इस प्रकरण में केंद्र सरकार की शक्तियों का भी उल्लेख है।
खंडूड़ी ने टिहरी जल विद्युत विकास निगम (टीएचडीसी) में अविभाजित उत्तर प्रदेश के निवेश का उत्तराखंड को निर्धारित हस्तांतरण किये जाने का मुद्दा उठाया। वस्तुतः टिहरी बांध और जल विद्युत परियोजना की परिकल्पना तत्कालीन अविभाजित उत्तर प्रदेश राज्य में की गयी थी, जिसे केंद्रीय योजना आयोग के 1972 में अनुमोदित करने के बाद 1978 में साकार किया जाना शुरू हुआ, लेकिन धन की कमी के कारण नवंबर 1986 में यह तय किया गया कि यह परियोजना राज्य और केंद्र के संयुक्त उपक्रम के रूप में संचालित होगी, बाद में राज्य, केंद्र तथा तत्कालीन सोवियत रूस के साथ वित्तीय एवं तकनीकी सहयोग हासिल करने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये गए। परियोजना 2006 में पूर्ण हुई। केंद्र और राज्य सरकार के मध्य 75:25 के अनुपात में साझेदारी के साथ टिहरी जल विद्युत विकास निगम (टीएचडीसी) 1988 में अस्तित्व में आई। इस परियोजना से जुडी सिंचाई परियोजना का संपूर्ण व्यय राज्य सरकार ने वहन किया।
बैठक के दौरान ही केंद्रीय ऊर्जा सचिव पी उमाशंकर को शिंदे ने जनरल खंडूड़ी के उत्तर प्रदेश पर बकायेदारी से संबंधित दस्तावेज देते हुए निर्देश दिए कि उत्तराखंड तथा उत्तर प्रदेश राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ त्रिपक्षीय बैठक करके अतिशीघ्र इस मामले का निस्तारण कराएं ताकि उत्तराखंड के सामने अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से चली आ रही ऊर्जा क्षेत्र की लंबित देनदारियों की समस्या बाकी न रहे। बैठक में मुख्यमंत्री उत्तराखंड के सलाहकार एलके जोशी, उत्तराखंड के मुख्य स्थानिक आयुक्त एसके मुट्टू, अपर स्थानिक आयुक्त एसडी शर्मा तथा ऊर्जा मंत्रालय के संबंधित अधिकारी मौजूद थे ।