स्वतंत्र आवाज़
word map

अपनी पराजय का मलबा ईवीएम पर मत फेंकिए!

भारतीय जनमानस के जनादेश को विपक्ष की गालियां क्यों?

इस‌ीलिए नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक्जिट पोल की लहर!

Wednesday 22 May 2019 03:14:21 PM

दिनेश शर्मा

दिनेश शर्मा

electronic voting machine

नई दिल्ली। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में कुछ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने लोकसभा चुनाव के एक्जिट पोल आने के बाद अपनी संभावित पराजय और हताशा से क्षुब्ध एवं क्रुद्ध होकर विश्व के कई देशों में विश्वसनीय और प्रशंसित भारतीय निर्वाचन आयोग के चुनाव प्रबंधन को कलंकित करने एवं नीचा दिखाने की असफल कोशिशें की हैं। इससे भारतीय जनमानस में इन राजनीतिक दलों के नेताओं की न केवल और भी ज्यादा मिट्टी खराब हुई है, अपितु ईवीएम पर उनके आरोप पहले की ही तरह झूंठे और बोगस साबित हो रहे हैं। माना जा रहा है विपक्षी गठबंधनों के नेता चुनाव आयोग और ईवीएम पर नहीं, बल्कि जनमत पर हमला कर रहे हैं, जनसामान्य को गालियां दे रहे हैं, जिसने नरेंद्र मोदी को वोट देकर उनके दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त किया है। चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन को जिस प्रकार की धमकी दी जा रही हैं, उससे तो लगता है कि इनका किसी पर भी भरोसा नहीं है। मायावती, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, अखिलेश यादव, राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, तेजस्वी यादव, गुलाम नबी आजाद, मलिल्कार्जुन खड़गे, शरद पवार, शरद यादव, उपेंद्र कुशवाहा, एचडी देवगौड़ा, असदुद्दीन ओवैसी जैसे जहरीले नेताओं को लगता है कि वे नरेंद्र मोदी के सामने हार रहे हैं, इसलिए ईवीएम और चुनाव आयोग पर हार का मलबा डाल दिया जाए।
दुनिया जानती है कि भारतीय चुनाव आयोग की एक साख है, इसीलिए दुनिया के कई देश भारत से चुनाव प्रबंध सीखते हैं और भारतीय चुनाव आयोग की रणनीतियों को अपने यहां लागू करते हैं। जिन देशों ने ईवीएम को नहीं अपनाया है, उसका कारण यह नहीं माना जाता है कि ईवीएम बेईमान है, अपितु उनके यहां इतनी जनसंख्या नहीं है कि वोट गिनने में कई-कई दिन लगें। अपवाद को छोड़कर उनके यहां मतदान खत्म होते ही वोटों की गिनती शुरू हो जाती है। कुछ देश ऐसे भी हैं, जिनके यहां कहने को तो लोकतंत्र है, लेकिन वहां के शक्तिशाली राजनेता धींगामुश्ती से बूथ पर कब्जे कर, मतपेटियां लूटकर अपना बहुमत सिद्ध करते हैं और सरकार पर कब्जा करते हैं। ऐसे देश हालाकि बहुत कम रह गए हैं। कई इस्लामिक देशों का लोकतंत्र पर नहीं, बल्कि बंदूक बमों और मारधाड़ पर यकीन है एवं वहां सरकारें बनाने का फैसला बगदादी जैसी सोच के लोग ही करते हैं। ऐसी स्थिति चीन और उस जैसे दो-चार देशों में भी है, जहां लोकतंत्रवादी छात्रों ने 1989 में बीजिंग में त्यानमन चौक पर विद्रोह किया था, जिसे चीन की साम्यवादी सरकार के टैंकों ने क्रूरता से कुचल दिया था। वो दिन और आज का दिन वहां कोई लोकतंत्र की सोच भी नहीं सकता और भारत जैसे लोकतंत्र की तो वहां परछाईं भी नहीं जा सकती। भारत में जैसा लोकतंत्र है, वह दुनिया की नज़र में एक पर्व बन गया है। यहां भारतीय जनमानस, लोकतंत्र को कुचलने को आमादा और भ्रष्टाचारियों के समूह के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है, इस‌ीलिए नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक्जिट पोल की लहर दिखाई दे रही है।
भारत में सत्ता हासिल करने के लिए गठबंधन और महागठबंधन जैसे गिरोह बनाकर चलने वाले राजनीतिक दलों का हस्र देश में जनता पार्टी शासन में देखा जा चुका है, उसके बाद कांग्रेस के ही और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ उन्हीं के 'लक्ष्मण' राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह के सौजन्य से तीसरा मोर्चा आया था, जिसके प्रधानमंत्री वे स्वयं हुए और उन्होंने कुछ ही समय बाद सत्ता के लिए तीसरे मोर्चे के भीतर की जंग जीतने के लिए देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करके एक ऐसा भूकंप ला दिया कि आज देश जातियों में बंट गया है और जातियों की राजनीति देश के सर पर चढ़कर नाच रही है। इसका ऐसे तत्वों ने पूरा लाभ उठाया, जो धर्म और जातियों के गठजोड़ से क्षेत्रीय दलों की मजबूरी बन गए, इसीके फलस्वरूप देश में इस्लामिक जेहाद ने बहुत तेजी से पांव पसारे हैं, जिसका असर सांप्रदायिक दंगों, जातीय झड़पों, क्षेत्रीय दलों और क्षत्रपों के जहरीले एजेंडों के रूपमें सबके सामने है और जिसके कारण उभरे हिंदुत्व को भारतीय जनता पार्टी ने लपक लिया, जो आज देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई है, जिसे रोकने के लिए क्षेत्रीय क्षत्रप जातीय आधार और सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर लामबंद हैं। इसमें भाजपा भारतीय जनमानस की पहली पसंद बन गई है, जो उसे जनादेश दे रहा है। विरोधी दलों की नज़र में भारतीय जनमानस देश में जातीय एवं सांप्रदायिक शक्तियां हैं, जिनकी ईवीएम को वे बेईमान ठहराने की असफल कोशिश कर रहे हैं, मीडिया के सामने हथियार दिखाकर खूनखराबे की धमकियां दे रहे हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि दो दशक पूर्व से उत्तर भारत की राजनीति जातीय और क्षेत्रीय राजनीति में ज्यादा ही उलझ के रह गई है। उत्तर भारत के दो राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस के दम तोड़ने के बाद जैसे ही और जिस प्रकार समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव, बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती और उधर बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव के मुंह सत्ता का खून लगा, दोनों जगह की राजनीतिक दशा और दिशा ही एक दिशाहीन बियावान में चली गई। इन नेताओं ने एक शानदार नेतृत्व देने के बजाए उत्तर प्रदेश और बिहार में जंगलराज स्‍थापित किया है। विकास के नाम पर इनके भ्रष्टाचारजनित एजेंडे, जातिवाद और पक्षपात से बिजबिजाते प्रशासनिक फैसले, समाज में धर्मभेद का नंगा नाच, राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता सबसे ज्यादा इन्हीं की देन मानी जाती है, इसीलिए एक समय बाद उत्तर भारत की जनता ने इन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया है। अपने भ्रष्ट साम्राज्यों को बचाने ‌के लिए इन्होंने साम्प्रदायिक विरोधी शक्तियों और धर्मनिर्पेक्षता के पाखंड पर जो खेल-खेले हैं, उनसे दुखी होकर जनमानस ने इन्हें लात मारी है और लात मार रहा है। भारत का प्रधानमंत्री तय करने वाला उत्तर भारत ऐसे क्षेत्रीय नेताओं से परेशान है, जो केवल भ्रष्टाचार मचाने के लिए सत्ता में आना चाहते हैं, जिनके नाम सर्वविदित हैं। ये ही वो लोग हैं, जो अपनी संभावित पराजय से मुंह छिपाने के लिए चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाकर खड़े हैं और उनपर लोकतंत्र को झटका देने का दबाव बना रहे हैं।
नरेंद्र मोदी और भाजपा विरोधी गठबंधनों के नेता लोकसभा चुनाव के ए‌क्‍जिट पोल से इतने डरे हुए हैं कि उन्होंने चुनाव आयोग पर ही हल्ला बोल दिया है। राजस्‍थान छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में और गोरखपुर, फूलपुर, कैराना और नूरपुर के उपचुनाव में उन्हें ईवीएम मशीन में कोई गड़बड़ी नहीं दिखाई दी और लोकसभा के आम चुनाव में सात चरण पूरे होने बाद भी ईवीएम में कोई गड़बड़ी का शोर नहीं हुआ, मगर जैसे ही लोकसभा चुनाव के ए‌क्‍जिट पोल आए, विपक्षी दलों की सांसे उखड़ गईं, कोहराम मच गया, चुनाव आयोग के दफ्तर के सामने धरनेबाज़ी हो गई, विरोधी दलों के हताश नेताओं के झुंड के झुंड दहाड़े मार रहे हैं और सड़कों पर खून बहाने की धमकियां दे रहे हैं। देश के राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी ने कल एक कार्यक्रम में क्या कह दिया कि जनादेश संदेह से परे होना चाहिए, विपक्ष ने इसे लपक लिया है और प्रचार कर दिया है कि प्रणब मुखर्जी को भी ईवीएम पर संदेह है। प्रणब मुखर्जी ने यह भी कहा है कि उनका चुनाव आयोग जैसे संस्‍थानों पर दृढ़ विश्वास है, किंतु प्रणब मुखर्जी को यह भी सोचना चाहिए था कि जब उनका इतना यकीन है तो ऐसे अवसर पर ऐसा संशयात्मक बयान भी नहीं देना चाहिए, जिससे भ्रष्टाचा‌रियों के समूह को चुनाव आयोग पर हमला करने के मौके मिलें। बहरहाल चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाईश नहीं है। देश की जनता को यह एक विश्वास और सुखद एहसास है कि चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट ऐसे नेताओं के दबाव में आने वाला नहीं है। बहरहाल यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारतीय जनमानस के जनादेश को विपक्ष आखिर क्यों गालियां दे रहा है?

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]